बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

क्या याचना करूं मैं ?


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...........

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर

प्रभु की कृपा है कि हमें अपनी उन्नति के लिए हमारे अपने-अपने कर्मानुसार मानव शरीर मिला है। हर आत्मा की इच्छा है कि वह शुद्ध सुख को प्राप्त करे ओर दुःख से पूर्णतः निवृत्त हो जाये। इसी के लिए हर आत्मा सदा प्रयत्नशील रहता है। अपने-अपने ज्ञान के अनुसार, अपनी-अपनी समझ के अनुसार प्रत्येक आत्मा अपनी इच्छा-पूर्ति के लिए प्रयत्न करता ही रहता है। मूल इच्छा सबकी समान होते हुए भी, ज्ञान/समझ व परिस्थिति के भेद से भिन्न-भिन्न प्रयत्न होते रहते हैं। प्रयत्नों की इस भिन्नता को देख कर प्रतीत होने लगता है इनकी भिन्न- भिन्न इच्छायें हैं। भिन्न-भिन्न सुख-साधनों को चाहता देखकर, भिन्न-भिन्न सुख-साधनों के लिए प्रयत्न किया जाता देखकर, यही निष्कर्ष निकाला जाता है कि सबकी अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न इच्छायें हैं। किन्तु स्पष्ट है मूल इच्छा तो निरपवाद रूप से सब आत्माओं की समान है।

आध्यात्मिक व्यक्ति हो या भौतिकवादी व्यक्ति, सब में मूल इच्छा समान है। सुख-साधनों की इच्छा में भी पर्याप्त समानताएं देखी जाती हैं।  आध्यात्मिक व्यक्ति भी धन, मकान, वस्त्रा, भोजन आदि को चाहता है क्योंकि शरीर के व्यवहार के लिए ये सब आवश्यक हैं। साधना के लिए शारीरिक अनुकूलता बड़ी सहायक होती है, अतः शरीर के लिए आवश्यक भौतिक साधन व अनुकूलताएं, साधना के लिए भी आवश्यक और सहायक होते हैं। इस प्रकार साधना-प्रिय आध्यात्मिक व्यक्ति भी भौतिक साधनों को चाहता है, वह उचित भी है।

प्रभुकृपा से हमें अपनी आध्यात्मिक प्रगति के लिए, साधना के लिए अनेक/बहुविध साधन मिले हैं। बाह्य मुख्य साधन शरीर के लिए भौतिक वस्तुएं न्यूनाधिक मात्रा में उपलब्ध हैं ही, आन्तरिक-साधन मन व बुद्धि के लिए भौतिक वस्तुएं व ज्ञान भी प्रत्येक को न्यूनाधिक मात्रा में उपलब्ध हैं। हम अपनी आध्यात्मि प्रगति के लिए इन सब साधनों की महत्ता व आवश्यकता को समझते हैं, स्वीकार करते हैं। इन साधनों के न होने पर आध्यात्मिकता में न्यूनता देखते हैं व इनके पर्याप्त होने में आध्यात्मिकता में वृद्धि देखते हैं। यह बात कुछ क्षेत्रों में ही सही होते हुए भी सर्वत्रा लगाई जाने लगती है। साधक जब अपनी आध्यात्मिक प्रगति को न्यून या बाधित देखता है तो उसे प्रायः साधनों की न्यूवता दिखने लगती है और वह इन्हीं साधनों की याचना-प्रार्थना करने लगता है,  इन्हीं के लिए विशेष प्रयत्न करने लगता है।

प्रभु ने तो कृपा करके कर्मानुसार साधन दे दिये हैं व देता रहता है। किन्तु हमें प्रायः साधनों की न्यूनता प्रतीत होती रहती है। साधनों की न्यूनता को हम अपनी आध्यात्मिक प्रगति में मुख्य बाधक कारण मानते रहते हैं, फलतः इन्हीं  की याचना-प्रार्थना अधिक करने लगते हैं, इन्हीं के लिए अधिक प्रयत्न करने लगते हैं। इन सबको करते हुए हमारी आध्यात्मिक याचनाएं प्रार्थनाएं कम होती जाती हैं, आध्यात्मिक प्रयत्न कम होते जाते हैं। इससे आध्यात्मिक प्रगति और कम हो जाती है। एक दुष्चक्र चल जाता है। इमें इस और-अधिक न्यूनता का कारण भी भौतिक साधनों व ज्ञान की कमी प्रतीत होने लगते हैं, फलतः इन्हीं की प्राप्ति में अधिकाधिक प्रयत्न  करने लगते हैं, इन्हीं की याचना-प्रार्थना करने लगते हैं।

प्रभु की महती कृपा है कि आध्यात्मिक प्रगति के लिए अधिक भौतिक साधनों की आवश्यकता नहीं होती है। आवश्यक सामान्य भौतिक साधन अधिकांश को उपलब्ध ही हैं। अभौतिक साधन ‘ज्ञान’ भी पर्याप्त उपलब्ध हो चुका होता है। आध्यात्मिक प्रगति में न्यूनता का मूल कारण इन भौतिक-अभौतिक साधनों का पूरा उपयोग न करना होता है।

प्रभुकृपा से उपलब्ध इन साधनों का जब हम अपने कारण पूरा व उचित उपयोग नहीं कर पा रहे हैं, तो ऐसे में अधिक साधनों की याचना-प्रार्थना करना व उनके लिए प्रयत्न करना, अभी सार्थक नहीं हो पाता है। ये अधिक साधन भविष्य में भले ही सार्थक हों, अभी तो व्यर्थ ही होंगे। भविष्य में भी ये भौतिक-अभौतिक साधन तभी सार्थक होंगे जब हम इनका पूरा व उचित उपयोग करेंगे। ऐसे में साधनों के लिए नई-नई याचनाएं-प्रार्थनाएं करते चले जाना, प्रयत्न करते चले जाना व्यर्थ है, बाधक है।

प्रभु बड़े कृपालु हैं, उनकी व्यवस्था निराली है। यदि हम उपलब्ध भौतिक-अभौतिक साधनों का पूरा उचित उपयोग करते हैं, तो आगे के लिए आवश्यक भौतिक-अभौतिक साधन मिलते चले जाते हैं। ज्ञान का उपयोग-आचरण करने से आगे का नया आवश्यक ज्ञान स्वतः मिलता चला जाता है। साधनों का पूरा व उचित उपयोग करते हुए पुण्य बनता ही रहता है। पुराने पुण्यों का फल भी हमें यथासमय आवश्यकता होने पर स्वतः मिलता जाता है। प्रभु की इस कृपा के रहते साधनों का पूरा व उचित उपयोग ही आगे के लिए याचना-प्रार्थना की नींव रखता है। पूर्ण पुरुषार्थ के बाद ही याचना-प्रार्थना करणीय होती है।

प्रभुकृपा से यदि हम यह देख पा रहे हैं कि हम अपने उपलब्ध भौतिक-अभौतिक साधनों का पूरा व उचित उपयोग नहीं कर पा रहे हैं, तो हम अधिक की याचना कैसे कर सकते हैं ? हमारी ऐसी याचना कैसे उचित कही जा सकती है ? प्रभु को हमारी ऐसी याचना क्यों सुननी चाहिए ? प्रभु को हमारी ऐसी याचना क्यों पूरी करनी चाहिए ? ऐसे में अन्ततः स्वयं के लिए बार-बार प्रश्न उठता है कि इन साधनों की क्या याचना करूँ मैं ?

साभार-परोपकारी मासिकी पत्रिका 

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