गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

निःस्पृहता

स्वामी विद्यानंद जी 'विदेह'
प्रियं मा कृणु देवेषु प्रियं राजसु मा कृणु।
प्रियं सर्वस्य पश्यत उत शूद्र उतार्ये।।

अथर्ववेद १९.६२.१

‘स्पृहा’ का अर्थ है इच्छा, चाहना, कामना। मनुष्य की स्पृहा का क्षेत्र जितना संकुचित होता है, मनुष्य उतना ही बद्ध और चिन्तित होता है। स्पृहा की परिधि जितनी विशाल और व्यापक होती जाती है, मनुष्य उतना ही निर्बाध और चिन्ता रहित होता जाता है। रुके हुए जल में दुर्गन्धि आती है; प्रवाहित जल दुर्गन्धिरहित होता है। पोखर में रुका हुआ जल ही सड़ सूख नहीं जाता अपि तु सागर में रुका हुआ जल भी क्षारयुक्त, दुर्गन्धित और अपेय होता है। परन्तु पोखर और सागर का जल वाष्प् बनकर आकाश में व्याप जाता है और मेघ बनकर सर्वत्र बरसता है तो वह रोगनाशक, स्वास्थ्यप्रद और अमृत बन जाता है। जिन कूपों में प्रवाहित स्रोतों का जल आता रहता है उनका जल जीवनप्रद होता है। जिन कूपों में वर्षा का जल रुक जाता है उनका जल उतना अच्छा नहीं होता। गुहा, गृह, ग्राम और नगर में रुका हुआ पवन भी दुर्गन्धित और रोगकारक होता है।

ससीम स्पृहा वह परिधि है जो मनुष्य को चिन्तारूपी दुर्गन्धि से दुर्गन्धित, और मोहरूपी क्षार से क्षारित बना देती है। यदि दुर्गन्धि और क्षार से रहित रहना है तो अपनी स्पृहा को व्यापक बनाइए। व्यापक स्पृहा का नाम ही निःस्पृहता है। स्पृहा को परिधिरहित कर दीजिए, आप निःस्पृह हो जाएंगे। अपनी स्पृहा को विश्वव्यापी बनाइए। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र- सबकी, मनुष्यमात्र की मंगलकामना और हितसाधना कीजिए और मनुष्यमात्र के प्रिय बनिए। प्राणिमात्र के हितचिन्तक और सेवाकारी बनकर, प्राणिमात्र के परम प्यारे बनिए। आप पर जिसकी भी दृष्टि पडे़ वही आपसे प्रेम करे। जो सबका है वह निःस्पृह है। जो निःस्पृह है वह निश्चिन्त है। जो निश्चिन्त है वह स्थिर और शान्त है। जो स्थिर और शान्त है वह धीर है।

(मा) मुझे (देवेषु) ब्राह्मणों में (प्रियम्) प्यारा (कृणु) कर। (मा) मुझे (राजसु) क्षत्रियों में, (उत) तथा (शूद्रे) शूद्र वर्ग में, (उत) तथा (अर्ये) वैश्य वर्ग में (प्रियम) प्यारा (कृणु) बना। मुझे (सर्वस्य पश्यतः) सब देखने वाले का (प्रियम्) प्रिय बना।



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