मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

श्रद्धा

स्वामी विद्यानंद जी 'विदेह'

श्रद्धां देवा यजमाना वायुगोपा उपासते।
श्रद्धा हृदय्ययाकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु।।

ऋग्वेद १॰.१५१.४

श्रद्धा=श्रत्+धा,
     सत्य+धारणा,
     सत्य+धारण,
     आत्म+विश्वास।
सहज विश्वास अथवा अन्धविश्वास का नाम श्रद्धा नहीं है। सत्य को निश्चयपूर्वक जानकर, उसे दृढ़ता के साथ धारण करना श्रद्धा है। सत्य धारणा अथवा निष्ठा के साथ, अभीष्ट की साधना में लगे रहना  श्रद्धा है। आत्मविश्वास के साथ साध्य की साधना में जुट जाना श्रद्धा है। हृदयसंकल्प के साथ लक्ष्य की ओर प्रवृत्त रहना श्रद्धा है। हृदय की गहन भावना के साथ साधना करना श्रद्धा है।

देव श्रद्धा द्वारा ही देवत्व को प्राप्त होते हैं। यज्ञानुष्ठानी श्रद्धा द्वारा ही यज्ञफल {सुखैश्वर्य} प्राप्त करते हैं। यज्ञशील श्रद्धा द्वारा ही श्रेष्ठतम कर्मों की साध में निरत रहते हैं। वीर श्रद्धा द्वारा ही विजयलाभ  करते हैं। योगी भी श्रद्धा द्वारा ही योगसाधना में सिद्धि प्राप्त करते हैं। हृदयसंकल्प में ही श्रद्धा का निवास है। निस्सन्देह हृदय की भावना ही श्रद्धा है।

श्रद्धा से प्रत्येक धन प्राप्त होता है। श्रद्धावान् किसी भी ऐश्वर्य को प्राप्त कर सकता है।

श्रद्धा के साथ, दृढ़संकल्प और निश्चय के साथ योगपथ पर आरूढ़ हूजिए; आप बहुत शीघ्र सफल होंगे। विश्वास रखिए और प्रसन्नता के साथ योगानुष्ठान प्रारम्भ कीजिए।

(देवाः) देवजन, (यजमानाः) यज्ञानुष्ठानी, यज्ञशील जन और (वायु-गोपाः) प्राणरक्षक जन (हृदय्यया आकूत्या) हृदय भावना द्वारा (श्रद्धाम् श्रद्धाम्) अभीष्ट को प्राप्त कराने वाली श्रद्धा को (उपासते) उपासते हैं। वे (श्रद्धया) श्रद्धा से ही (वसु) धन, अभीष्ट (विन्दते) प्राप्त करते हैं।

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