मंगलवार, 17 मई 2016

स्वर्ग-नरक विवेचन !

लेखक :--
नंदकिशोर आर्य 
संस्कृत प्राध्यापक गुरुकुल कुरुक्षेत्र 

पाठकवृन्द! मानव-जीवन को पाकर बुद्धिमान् व्यक्ति दुःखों से छुटकारा और सुखों की प्राप्ति के लिए दिन-रात पुरुषार्थ करता है। हर व्यक्ति अपने सुखानुरूप भिन्न-भिन्न सांसारिक वस्तुओं को इकट्ठा कर सुखी होने का प्रयत्न करता है। यह सांसारिक सुखानुभूति कितने समय एवं कितनी मात्रा में होगी यह एक अलग विषय है। 

भारतीय जनमानस पुनर्जन्म के सिद्धान्त के साथ इस जीवन एवं अगले जीवन के सुखों की प्राप्ति की इच्छा से युक्त होकर अपना जीवन जीता है। इस जन्म और अगले जन्म के बीच एक दूसरा विचार स्वर्ग एवं नरक का भी बना रहता है। इस स्वर्ग-नरक की विचार सरणी के कारण बहुतों की आजीविका भी चल रही है। इस विचार के आधार पर जब मनुष्य का आत्मा शरीर से अलग होता है तो वह अपने पुण्यों के कारण स्वर्ग एवं पापों के कारण नरक में जाता है। इन स्वर्ग-नरक के सुख-दुःखों की कल्पनाओं का आधार मुख्यतः गरुड़पुराण को ही माना जा सकता है। क्या ऐसा कोई स्थान विशेष है, जहाँ पर आत्माओं को इस प्रकार का सुख एवं दुःख विशेष देने का स्थान परमात्मा ने बनाया है ? गीता के अन्दर आत्मा को शस्त्र से न कटने वाला, आग में न जलने वाला, पानी से न गलने वाला और वायु से न सूखने वाला माना गया है, तो इन स्वर्ग-नरक में तथाकथित यमराज किस रूप में आत्मा को दण्ड देकर सुख वा दुःख प्रदान करते हैं ? क्योंकि जब तक आत्मा शरीर धारण नहीं करता तब तक उसे सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती। यदि इस प्रकार की कोई कार्यप्रणाली हो भी तो उन सुख-दुःखों की प्राप्ति के बाद आत्मा का क्या होगा? क्योंकि किसी भी पुण्य-पाप का अनन्त सुख एवं दुःख रूप फल नहीं हो सकता। वे आत्माएं कितने समय तक के लिए इन तथाकथित स्वर्ग-नरक में रहेंगी? जब उनके सुख एवं दण्ड का समय पूर्ण हो जायेगा तो फिर अगला कौनसा सिद्धान्त या नियम काम करेगा? यदि स्वर्ग कोई स्थान है और वह पुण्यों के फल स्वरूप प्राप्त होता है तो पुरुषार्थ चतुष्टय में मोक्ष का क्या होगा? इसी प्रकार नरक कोई स्थान विशेष है जहां पापों के फल प्रदान किये जाते हैं तो पृथिवी पर मनुष्येतर हाथी, घोड़ा, गाय, गधा, शूकर, पशु-पक्षी आदि योनियों की संरचना किस सिद्धान्त के आधार पर मानी जायेगी? तथाकथित 84 लाख योनियों का क्या होगा जिनमें घूमकर अन्त में मनुष्य का जन्म प्राप्त होता है? क्या मनुष्येतर योनियों में जन्म लेना आत्मा के लिए सुखकारी है? इस प्रकार के नाना प्रकार के प्रश्न आप-हमारे मन में उठ सकते हैं।

स्वभावतः मनुष्य जीवन को पाकर ही हम शुद्ध ज्ञान के आधार पर बुद्धि का उचित प्रयोग करके सुखानुभूति कर पाते हैं, इससे इतर योनियों में सुख की कल्पना लेश मात्र भी नहीं की जा सकती। मनुष्येतर योनियों को मुख्यरूप से भोग की योनि माना जाता है, इन योनियों में मनुष्य जीवन में किये गए पापों का दण्ड भोगना होता है तो उस तथाकथित नरक की आवश्यकता कहां रह जाती है? और यदि नरक में दण्ड का भुगतान हो गया तो इन योनियों की क्या आवश्यकता रह गई? नरक में दण्ड भोगने के बाद आत्मा को स्वतः मनुष्य का जीवन अथवा कुछ पुण्यों के फल स्वरूप स्वर्ग की प्राप्ति होनी चाहिए। उसके बाद ?

पाठकवृन्द! ऐसे अनेक प्रश्न उमड-घुमड़कर आपके हमारे मन में आते हैं, इनका समाधान इस युग के आद्य ऋषि स्वामी दयानन्द जी ने बड़ी ही सरलता के साथ सत्यार्थ प्रकाशादि ग्रन्थों में प्रदान किये हैं। जब प्रश्न स्वर्ग किसे कहते हैं का आया तो लिखा ‘स्वर्ग’ नाम सुख विशेष भोग और उस की सामग्री की प्राप्ति है, और ‘नरक’ जो दुःख विशेष भोग और उसकी सामग्री को प्राप्त होना है। युगद्रष्टा ऋषि ने उन सभी कल्पनाओं को नकार दिया जिसमें इस प्रकार का झूठा जाल बुनकर सरल हृदय मानवों के मन-मस्तिष्क को आतंकित कर जकड़ लिया था। गरुड़पुराण की पोल-पट्टी खोलते हुए चित्रगुप्त और यमराम एवं यमलोक का चित्रण सत्यार्थ प्रकाश में इस प्रकार किया है-

(प्रश्न) क्या गरुड़पुराण भी झूठा है?

(उत्तर) हां असत्य है।

(प्रश्न) फिर मरे हुए जीव की क्या गति होती है?

(उत्तर) जैसे उस के कर्म हैं।

(प्रश्न) जो यमराज राजा, चित्रगुप्त मन्त्री, उस के बडे़ भयंकर गण कज्जल के पर्वत के तुल्य शरीरवाले जीव को पकड़ कर ले जाते हैं। पाप, पुण्य के अनुसार नरक, स्वर्ग में डालते हैं। उस के लिये दान, पुण्य, श्राद्ध, तर्पण, गोदानादि, वैतरणी नदी तरने के लिये करते हैं। ये सब बातें झूठ क्योंकर हो सकती हैं?

(उत्तर) ये बातें पोपलीला के गपोडे़ हैं। जो अन्यत्र के जीव वहां जाते हैं उन का धर्मराज चित्रगुप्त आदि न्याय करते हैं तो वे यमलोक के जीव पाप करें तो दूसरा यमलोक मानना चाहिये कि वहां के न्यायाधीश उन का न्याय करें और पर्वत के समान यमगणों के शरीर हों तो दीखते क्यों नहीं? और मरने वाले जीव को लेने में छोटे द्वार में उन की एक अंगुली भी नहीं जा सकती और सड़क गली में क्यों नहीं रुक जाते। जो कहो कि वे सूक्ष्म देह भी धारण कर लेते हैं तो प्रथम पर्वतवत् शरीर के बडे़-बडे़ हाड़ पोप जी विना अपने घर के कहां धरेंगे?
जब जंगल में आगी लगती है तब एकदम पिपीलिकादि जीवों के शरीर छूटते हैं। उन को पकड़ने के असंख्य यम के गण आवें तो वहां अन्धकार हो जाना चाहिये और जब आपस में जीवों को पकड़ने को दौड़ेंगे तब कभी उन के शरीर ठोकर खा जायेंगे तो जैसे पहाड़ के बडे़-बडे़ अवयव गरुड़पुराण के बांचने, सुनने वालों के आंगन में गिर पडे़ंगे तो वे दब मरेंगे वा घर का द्वार अथवा सड़क रुक जायेगी तो वे कैसे निकल और चल सकेंगे? (सत्यार्थप्रकाश 11)

स्वर्ग-नरक हमारे अपने दैनिक जीवन के साथ जुड़ा हुआ सत्य है। अपनी दैनिक क्रियाओं में सुख प्राप्ति के साधनों को नित्य करते रहें सत्यार्थ प्रकाश एवं वेदादि सत्यग्रन्थों का स्वाध्याय करके अपनी बुद्धि को तर्कयुक्त करके सुखों की कामना युक्त होवें।

आओ ! हम सब सत्यपथ के अनुगामी बनें और अज्ञान-अन्धकार के गहरे अन्धकूप से निकलकर परमात्मा प्रदत्त इस मानव जीवन के मूल्य को जान-समझकर उत्तम आचरण एवं  वैदिक योगविधि से मोक्षानन्द को प्राप्त करने का सुफल प्रयास करें तभी मानव जीवन की सार्थकता सिद्ध होगी।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

नया दिन - नया जीवन

आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण..............

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर (राजस्थान)

प्रभुकृपा से हमें प्रगति के उत्तम साधन प्राप्त हुए हैं। उत्तम शरीर, उत्तम इन्द्रियां, उत्तम मन, उत्तम बुद्धि, उत्तम ज्ञान न्यूनाधिक मात्रा में कर्मानुसार उपलब्ध हैं। यदि हमारे पूर्वकर्मानुसार ये साधन कुछ कम उत्तम व कुछ विकृत भी मिले हैं तो भी, इन्हें अधिक उत्तम बनाने व सुधारने का सामर्थ्य-अवसर भी हमें मिला है। ईश्वर ने मुक्ति से लौटी आत्माओं को तो समान ही साधन व अवसर दिये थे। उन साधनों व अवसरों में उत्तम बनने-बनाने की उत्तम सामर्थ्य भी दी थी, इसलिये वे समान व सामान्य होते हुए भी उत्तम थे। सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान् अनुपम प्रभु की यह कृपा भी अनुपम व उत्तम ही थी। प्रभु ने कर्म की स्वतन्त्रता के अनुपम अवसर को देकर इसमें चार चांद लगा दिये।

प्रभुकृपा से अनुपम साधनों से भरी सृष्टि भी मिली। उसके उपयोग व कर्म के अनुसार हमने संस्कार व कर्माशय बनाये, फलतः तदनुरूप साधनों व अवसरों की न्यूनाधिकता भी हुई। साधनों व अवसरों की कितनी भी न्यूनता हो पुनरपि नया कर सकने की संभावना व सामर्थ्य के कारण और अवसर उत्तम व अनुपम हैं। अल्पज्ञ अल्पशक्तिमान् आत्मा चाहे जितनी त्रुटि कर दे, चाहे जितना बड़ा दोष कर दे, उसे फल (दण्ड) भोगने के रूप में पुनः सुधार व प्रगति का अवसर सदा मिलता रहता है। प्रभु की यह सर्वोच्च कृपा है।

पिछले दिनों या पिछले जीवन में हमने क्या-क्या गलत कर डाला, यह विचार दुःखदायी होता है। स्वकृत पापकर्मों की स्मृति से दुःख होना, उन्नति का द्योतक है। हमारे दोष की प्रसिद्धि होने से हमें बड़ा कष्ट होता है, अन्यों के हमारे साथ व्यवहार बदल जाते हैं, यह भी हमारे सुधार व प्रगति में बहुत सहायक है। पिछले क्षण जो दुष्कर्म किया, वह हमारी लज्जा का कारण होते हुए भी नये पुरुषार्थ व आत्मविश्वास की भूमिका बनाता है।

पतित आत्मा को भी प्रभुकृपा से फल-भोग के बाद सदा नये अवसर दिये जाते हैं। पिछला दिन व पिछला जीवन कितना भी बुरा हो, कितना ही निन्दनीय हो, कितना भी अपयश देने वाला हो, कितना भी लज्जित करने वाला हो, पर नया दिन व नया जीवन सदा नई आशा व अवसर लेकर आता है। वह उन्मुक्त होकर कहता है-‘हे आत्मा ! मैं तेरे सामने खड़ा हूँ, तू मेरा जितना अधिक व जितना अच्छा उपयोग कर सकता है, कर ले। मैं तुझे किंचित् भी नहीं रोकूंगा, किंचित् भी नहीं टोकूंगा, उठा ले लाभ जितना तू उठाना चाहता है’। पिछला दिन कैसा भी हो, पर नया दिन पूर्णतः नया है। पिछला दिन हमने व्यर्थ कर दिया हो तो भी, नया दिन पुनः सार्थक करने के लिए मिल गया है।

प्रभुकृपा से हम पिछले कटु-अनुभवों को एक ओर रख कर, उससे पीडि़त ही न होते जाते हुए, उससे शिक्षा-अनुभव का लाभ लेकर नया जीवन नये सिरे से आरम्भ कर सकते हैं। नये दिन को मधुर-अनुभव वाला बना सकते हैं। नया दिन नये संतोष का कारण बन सकता है। पिछले अनुभव का लाभ लेकर नये दिन पुनः पुरुषार्थ किया हो, तो वह पुरुषार्थ मात्र भी परम संतोष देने वाला होता है, परिणाम भले ही कुछ भी हुआ हो। यदि नये दिन में भी त्रुटियां हो गईं, तो भी सीख व अनुभव तो दे ही गईं। प्रभुकृपा से नया दिन पुनः प्राप्त होगा। पुनः नया अवसर मिला है तो पुनः प्रगति की जा सकती है, पुनः सुधार किया जा सकता है। 

नये अवसर का मिलना, नये जीवन का मिलना है। नये जीवन का मिलना, नये अवसर का मिलना है। नया दिन एक नया जीवन है। इस नये जीवन को और अधिक उचित रीति से जीना है। नये दिन को नया जीवन बनाना है। प्रभु की कृपा है कि उसने हमें ऐसी सामर्थ्य दी है, हमें उस सामर्थ्य का सदुपयोग करना है। नया दिन नया जीवन बनने को सज्जित है, प्रभु की कृपा हमें आज भी उपलब्ध हो रही है।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

प्रार्थना

आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण..............


आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर (राजस्थान)

प्रभु-कृपा से मिले जीवन-शरीर में रहते हुए हम अनेक विशेष कार्यों को करने में समर्थ हैं। प्रभु से प्रार्थना करना भी उनमें से एक है। संसार के अधिकांश व्यक्ति किसी न किसी रूप में प्रभु से प्रार्थना करते हैं, प्रार्थना करते ही रहते हैं। अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार प्रभु को अलग-अलग स्वरूप में मानते हुए भी प्रार्थना तो प्रायः सभी करते रहते हैं। जब अपनी शक्ति-सामर्थ्य से हम वह सब नहीं प्राप्त कर पाते हैं, जिस सब को हम प्राप्त करना चाहते हैं; अन्य मनुष्य-प्राणियों-प्रकृति की सहायता से भी हम वह सब कर व पा नहीं पाते हैं। बस, यहीं हमारी प्रार्थना का जन्म होता है।
हम सब में न्यूनताएँ हैं, हम उन्हें दूर करना चाहते हैं, अन्य कोई प्रत्यक्ष सहारा न मिलने पर हम परोक्ष सहारे-शक्ति से आशा करते हैं कि वह हमारी इन न्यूनताओं-अभावों को दूर कर दे। यह बहुत स्वाभाविक व उचित भी है। हम अपने जीवन में जिस का भी अभाव अनुभव करते हैं, उसी के लिये प्रार्थना करने लगते हैं। भिन्न-भिन्न मनुष्यों को भिन्न-भिन्न अभाव खटकते हैं, तदनुसार ही उनकी प्रार्थना का स्वरूप बनता है।
प्रभु ने मानव शरीर देकर हम पर अत्यन्त कृपा की है। मानव शरीर चलाने के लिये आवश्यक वस्तुएँ-ज्ञान देकर पुनः कृपा की है। प्रभु की यह कृपा हमारे कर्म-सापेक्ष होती है। हमारे कर्मों के अनुसार ही हमें मानव-शरीर मिला। शरीर का स्वरूप, बुद्धि, स्वास्थ्य आदि भी जो प्रभु-प्रदत्त हैं, वे हमारे पिछले कर्मों के अनुसार हैं। इस जन्म का पुरुषार्थ या अपरुषार्थ इन्हें और अच्छा व बुरा बनाता रहता है। यह भी कर्म-सापेक्ष है। अन्याय-अधर्म से हम धनादि साधन पा सकते हैं, पाते हैं, किन्तु उसका दण्ड समेत भुगतान करना ही होता है, अतः ऐसी प्राप्ति को उपलब्धि नहीं कहा जा सकता, न इसे प्रभु-कृपा कहा जा सकता है।
प्रभु से हमें जो भी मिला है, वह हमारे कर्मानुसार मिला है। प्रभु से हमें जो नहीं मिला है, वह भी हमारे कर्मानुसार है। यह अटल नियम है। जब हम प्रार्थना करते हैं, तब वह भी हमारे कर्मानुसार ही पूर्ण होती है। प्रार्थना के सफल होने का अर्थ है कि हमारे वैसे कर्म हैं। प्रार्थना के असफल होने का अर्थ है कि हमारे वैसे कर्म नहीं हैं।
किन्तु हम प्रार्थना के समय इस तथ्य को प्रायः भूले रहते हैं। हमें प्रभु पर ऐसी श्रद्धा हो गई है, हमने प्रभु पर ऐसा विश्वास कर लिया है कि वह ऐसा कृपालु है, जो सच्ची भावना से की गई प्रार्थना को अवश्य स्वीकार कर लेता है। इस सच्ची-भावना को बनाने के लिये हम हृदय की गहराइयों से प्रार्थना करते हैं, पुनः प्रार्थना करते हैं, रो-रोकर प्रार्थना करते हैं, अनेक व्रत-संकल्पों के साथ प्रार्थना करते हैं, क्षमा मांगते हुए प्रार्थना करते हैं, कुछ दान-पुण्य कर देने की शर्त के साथ प्रार्थना करते हैं, और करते ही जाते हैं।
प्रभु बड़े कृपालु हैं, वे मात्र भावना से प्रार्थना नहीं स्वीकारते। वे हमारी भावना के साथ हमारे कर्मों को भी देखते हैं। कर्म नहीं तो फल नहीं, यह नियम प्रभु की बहुत बड़ी कृपा है, न्याय है, हमारे लिये हितकर है। प्रभु-कृपा से हम अच्छे-अच्छे कर्म करते जायें, करते जायें। हमारा कर्माशय जब पुण्यों से भरा होगा तो हमारी प्रार्थना जो हमारे लिये हितकर है, जिससे अन्यों की हानि नहीं होती है, शीघ्र पूरी होती जायेगी।
वह कितना आनन्द का जीवन होगा, जब हमारी प्रार्थना शीघ्र पूर्ण होगी, जब हमें बार-बार प्रार्थना नहीं करनी पड़ेगी, जब हमें प्रार्थना के बाद उसके पूर्ण होने के लिये लम्बे समय तक प्रतीक्षा नहीं करनी होगी। प्रभु कृपालु हैं, प्रार्थना को सुनते हैं, उन्हें पूरा भी करते हैं, बस हमें अपना कर्तव्य पूरा करना है, शुभकर्मों का संचय करना है, अशुभ कर्मों से पूर्णतः हट जाना है।

ध्यान-सुख, एकान्त सुख

आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण..............

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर (राजस्थान)

प्रभु-कृपा से हमें अनेक सुख प्राप्त हैं। हम भी सुख ही चाहते थे। ईश्वर ने अनेकविध सुखों को अनेक वर्षों तक अनेक बार मिलते रहने की व्यवस्था कर रखी है। हम भी प्रतिदिन अनेक सुखों को प्राप्त कर संतुष्ट होते रहते हैं। यह सुख हमारे अनुकूल होता है। इस अनुकूलता को पाकर हमें उसका सदुपयोग करना होता है, उसे हम करते भी रहते हैं। प्रत्येक सुख व अनुकूलता की अपनी-अपनी आवश्यकता व उपयोगिता है।
प्रभु-कृपा से हमें अनेक सुख इतने सुलभ व सुज्ञेय हैं कि छोटा बच्चा, किशोर व नवयुवक भी बिना बताये-सिखाये इन्हें प्राप्त कर सकता है। अनेक सुख दूसरों के बताने-सिखाने पर हमें सरलता से मिलने लगते हैं। किन्तु ये सुख प्रायः स्थूल होते हैं, बाह्य-स्थूल द्रव्यों के सम्पर्क से प्राप्त होते हैं, बाह्य इन्द्रियों से इन्हें सरलता से प्राप्त किया जा सकता है। प्रभु-कृपा से ये बहुत सरल व सहज हैं। क्योंकि जीवन जीने के लिये ये आवश्यक हैं, अतः प्रभु ने अतिकृपा कर इन्हें सर्वसुलभ बनाया है।
प्रभु ने कृपा करके इन अनेक सुखों के अतिरिक्त भी सुख पाने की व्यवस्था हमारे लिये कर रखी है। ये सूक्ष्म हैं, आन्तरिक हैं, अन्तःकरण से ग्राह्य हैं। बाह्य-स्थूल पदार्थों से निरपेक्ष होकर इन्हें पाया जा सकता है। इन सूक्ष्म-सुखों को प्रभु ने अत्यन्त आह्लादकारक बनाया है। ये सूक्ष्म-सुख बिना खर्चे से प्राप्त होते हैं, जितना चाहें उतने मिलते हैं, अधिक देर तक मिलते हैं व सर्वत्र मिलते हैं। बाह्य-स्थूल सुखों की अपेक्षा इनमें बहुत अधिक स्वतन्त्रता है, बंधन व हानि की संभावना नगण्य है।
प्रभु की महती कृपा से हमें अनेकविध सुख प्राप्त हैं। किन्तु हम बाह्य-स्थूल सुखों में अधिक समय-श्रम लगा देते हैं। आन्तरिक-सूक्ष्म-सुखों के लिये हमारे माव समय-श्रम बच ही नहीं पाता है। यदि हम पूरी कामना से कुछ समय एकान्त के लिये निकाल सकें, तो आन्तरिक-सूक्ष्म-सुख का रसास्वादन मिलते ही फिर इसे नहीं छोड़ पायेंगे। फिर तो जब भी समय मिलेगा या एकान्त में या भीड़ में, कहीं भी इस आन्तरिक-सूक्ष्म-सुख को लेने में समर्थ होते जायेंगे। प्रभु-कृपा से यह अभ्यास हमें कुशल बना देता है।
प्रभु की अनेकविध कृपा का भरपूर लाभ उठाने की सामथ्र्य को पाना हमारा अधिकारा है। अधिकार के लिए कुछ कत्र्तव्य करने होते हैं। प्रभु-कृपा से हम यह कर सकते हैं। एकान्त-सुख या कहें ध्यान-सुख लेने में कुशल होने पर ज्ञात हो जायेगा कि यह सुख अधिक सरल, अधिक सहज और अधिक अनुकूल है। इस सुख को पाने पर ही वास्तविक आध्यात्मिक प्रगति आरम्भ होती है। प्रभु ने कृपा कर सब साधन दे दिये हैं। हम उनका उपयोग भी कर सकते हैं। प्रभु द्वारा दिखाया मार्ग परम कल्याणकारक है, उसके द्वारा प्रदत्त साधन सदा परम कल्याणकारक हैं।

नया संसार

आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण..............
आचार्य सत्यजित् जी  ऋषि उद्यान, अजमेर (राजस्थान)

प्रभु की कृपा से संसार में हमें इस बार मनुष्य शरीर मिला है। संसार में अनेक प्रकार के छोटे-बड़े, उच्च-निम्न स्तर के शरीर हैं। मूलतः यह संसार सब आत्माओं के लिए एक जैसा होते हुए भी शरीर, साधनादि के भेद से एक जैसा नहीं रह पाता। गायों का संसार अलग है, चींटियों का संसार अलग है, मछलियों-पक्षियों का अलग है और मनुष्यों का अलग है।
जन्म लेते ही हम संसार को स्पर्श, शब्द, रूप आदि विषयों के रूप में जानने लगते हैं। समय के साथ हमारे अच्छे-बुरे, खट्टे-मीठे-कड़वे अनुभव बनते जाते हैं और इससे हमारा संपर्क व व्यवहार अपना-अपना एक संसार बन जाता है। हमारा संपर्क व व्यवहार जिनके साथ होता जाता है, वे हमारे संसार में जुड़ते जाते हैं। जिनसे हमारा संपर्क व व्यवहार कम होते-होते छूट जाता है, वे हमारे संसार से बाहर हो जाते हैं। हमारा अपना-अपना एक अलग संसार है। हमारे सुख-दुःख, हानि-लाभ, हित-अहित इनसे जुड़े रहते हैं। यह हमारा अपना-अपना बाह्य-संसार है।
बाह्य-संसार से भिन्न हमारा अपना-अपना आन्तरिक-संसार भी होता है; मानसिक स्तर पर, वैचारिक स्तर पर, ज्ञान के स्तर पर। हमारे बाह्य-संसार में परस्पर जितनी भिन्नताएं हैं, उससे बहुत अधिक भिन्नताएं आन्तरिक-संसार में होती हैं। लगभग समान बाह्य-संसार मे रहने व व्यवहार करने वालों के भी आन्तरिक-संसार परस्पर अति भिन्न व नितान्त विपरीत हो सकते हैं। सबका अपना-अपना सोच है, अपने-अपने विचार हैं, अपना-अपना ज्ञान है, अपना-अपना दृष्टिकोण है, जीवन के लक्ष्य भिन्न-भिन्न बने हुए हैं। हमारा यह आन्तरिक-संसार अन्यों से विलक्षण होता है। इसमें हमारे पूर्वजन्म के संस्कारों की भिन्नता भी कारण बनती है।
बाह्य-संसार भी हमारा अपना-अपना है व आन्तरिक-संसार भी हमारा अपना-अपना है। बाह्य-संसार की अपेक्षा आन्तरिक-संसार हमारा अधिक अपना होता है, हमारा अधिक निजी होता है, हमारा अधिक आत्मीय होता है, हमारा अधिक व्यक्तिगत होता है, हमें वह अधिक प्रतीत भी होता है। हमारे बाह्य-संसार को अधिक लोग जानते हैं, अधिक लोग उससे परिचित रहते हैं। हमारे आन्तरिक-संसार को कम लोग जानते हैं, कम लोग उससे परिचित रहते हैं। बाह्य-संसार में हम कम वस्तुएं छुपा कर रख सकते हैं। आन्तरिक-संसार में बहुत कुछ छुपा कर रख सकते हैं, बहुत कुछ छुपा कर रखते हैं, अनेक बातों की दूसरों को भनक तक नहीं लगने देते।
हमारे बाह्य व आन्तरिक संसार भिन्न-भिन्न होते हैं, किन्तु ये एक-दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। ये एक दूसरे को बहुत प्रभावित करते हैं। कभी-कभी तो इतना प्रभावित कर देते हैं कि जैसा हमारा बाह्य-संसार होता है, वैसा ही आन्तरिक-संसार बन जाता है अथवा जैसा हमारा आन्तरिक-संसार होता है, वैसा ही बाह्य-संसार बन जाता है। ये परस्पर इतना प्रभावित करने लगते हैं कि उसके दुष्प्रभाव को रोक पाना हमें असंभव प्रतीत होने लगता है। हमारे बाह्य-संसार को व्यक्ति-वस्तु-परिस्थिति अधिक प्रभावित करते हैं, उन पर हमारा नियन्त्रण अपेक्षाकृत कम रहता है। हमारे आन्तरिक-संसार को अन्य व्यक्ति-वस्तु-परिस्थिति अपेक्षाकृत कम प्रभावित करते हैं, उसमें अन्यों का दखल-हस्तक्षेप कम रहता है।
प्रभु की कृपा है कि हमारा बाह्य-संसार जो भी हो, जैसा भी हो, पुनरपि हम अपने आन्तरिक-संसार को भिन्न रूप में रख सकते हैं। बाह्य-संसार को बदलने में हमारी स्वतनन्त्रता बहुत कम है, जबकि आन्तरिक-संसार को बदलने में हमारी स्वतन्त्रता बहुत अधिक है। प्रभु-कृपा से हम योग-साधना द्वारा बाह्य-संसार से निरपेक्ष, स्वतन्त्र, एक बिलकुल नया आन्तरिक-संसार रच सकते हैं। ऐसा आन्तरिक-संसार जिसमें सब कुछ हमारी इच्छा वाला हो, जितना व जैसा पवित्र उसे बनाना चाहें, बना सकते हैं। दूसरों के अनावश्यक व अनधिकृत हस्तक्षेप से बहुत दूर; बाह्य-संसार की दुरवस्था, गंदगी, अशान्ति से बहुत दूर; एक सुव्यवस्थित, शुद्ध व शान्त संसार बना कर उसमें रह सकते हैं।
आन्तरिक-संसार एक भिन्न संसार है। योग-साधना से रहित व्यक्तियों का यह आन्तरिक-संसार उनके लिए अत्यन्त दुःख-बाधा-समस्या व पतन का कारण बन जाता है। प्रभुभक्त योग साधकों का आन्तरिक-संसार उनके लिए अत्यन्त सुख-अनुकूलता-शान्ति- समाधान व उन्नति का आधार बन जाता है। प्रभु की कृपा सदा साथ है। हमें अपना नया आन्तरिक-संसार बनाना है, वहीं आत्म-दर्शन व प्रभुदर्शन भी होंगे।

गुरुवार, 21 जनवरी 2016

भारतीय प्राचीन राजनीति (2)

ओ३म्
इतिहास शोधक, गवेषक स्वर्गीय श्री पण्डित भगवद्दत्त जी

    अब संसार के इतर देशों की व्यवस्था सुनिए। पहले सारे संसार में स्वायम्भुव मनु-प्रोक्त राजशास्त्र तथा वैवस्वत मनु द्वारा उसका रूपान्तर ही अधिकतर प्रयुक्त होता था। पुनः ब्राह्मणों के अभाव में योरुप और मिश्र आदि देश विद्याहीन हुए। तब कालडिया में हमूरब्बी का, और इबरानी लोगों में मूसा का नियम प्रचलित हुआ। इन दोनों के नियम भी मनु के नियमों का विकृत और अधूरा रूप थे।

    यूनान अथवा यवन देश में सब से प्रथम अफलातून (Plateau) ने राजशास्त्र का ग्रन्थ लिखा। इसके विषय में इंगलैण्ड के अध्यापक ई.जे. अर्विक ने एक खोज पूर्ण ग्रन्थ सन् 1920 में लन्दन से प्रकाशित कराया। उसका नाम है-

The Message of Plateau : A Reinterpretation of the republic.

इस पुस्तक के प्रारम्भ में योग्य लेखक लिखता है-

The republic is based largely upon ancient Indian social philosophy.

       अर्थात्-अफलातून का ‘जनतन्त्रराज्य ग्रन्थ’ अधिकांश में प्राचीन भारतीय वर्णाश्रम की मर्यादा पर आश्रित है।
   जिस वर्णाश्रम को आज लोग आमूलचूल मिटा देना चाहते हैं, उस पर अफलातून के ग्रन्थ का आधार है। सत्य है, मूर्ख संसार अपनी जड़ों को काट रहा है।
   
    इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि योरुप की मुहुर्मुहुः घोषित गणतन्त्र राज्यप्रणाली का उद्गम भी आर्य संस्कृति से हुआ है। प्रश्न होता है, क्या योरुप अथवा अमेरिका का कथित उन्नत मस्तिष्क मानव-कल्याण के लिए राजशास्त्रविषयक कोई उपयोगी सरल तथा उत्कृष्ट पद्धति निकाल सहा है वा नहीं ? श्रोतृवृन्द! इसका उत्तर हमारे अगले कथन में मिलेगा।
   
   परन्तु आर्य राजनीति को उसके स्वच्छ रूप में, उसके निर्मल कलेवर में समझने के लिए निम्नलिखित कतिपय मूल तत्त्वों और सत्य पर आश्रित वज्र सिद्धान्तों का ज्ञान परमावश्यक है। इसलिए पहले वे मूल सिद्धान्त लिखे जाते हैं-
   
 (1) योरुप के वर्तमान सिद्धान्त में मत (religion) और अध्यात्मविहीन (secular) को पृथक् मान लिया गया है। योरुप के प्रायः विचारक, जिन पर विकासमत की पूरी छाप है, आत्मा का तथा दैवी ज्ञान का अस्तित्व नहीं मानते। वे मनुष्यकृति में ही विश्वास रखते हैं। इसके ठीक विपरीत भारत के इतिहास में मोक्षशास्त्र को त्रिवर्गशास्त्र से पृथक् माना है, पर दोनों में आत्मिकभावना का पूर्ण समावेश स्वीकार किया है। दोनों का उद्गम वेद से और दैवी है। बौद्ध और जैन भी इनका उद्गम मनुष्य से न मानकर दैवी अर्थात् सर्वश्र तीर्थंकरों द्वारा मानते हैं।
    इसलिए यह सत्य है कि मानव-जीवन के चार उद्देश्यों में से धर्म, अर्थ काम के त्रिवर्ग को मोक्ष से पृथक् मानकर भी, हम उस अर्थ में सैक्यूलर नहीं हैं, जिस अर्थ में पण्डित जवाहर लाल जी हमें सैक्यूलर बनाना चाहते हैं। हमारा ईश्वर में, और वेद के अनादित्व में पूर्ण विश्वास है। और राजनीति वेद से चली, तथा ऋषियों द्वारा इसका स्पष्टीकरण हुआ, इस सत्य ऐतिहासिक तथ्य को परे फैंक कर हम असत्य का मार्ग ग्रहण नहीं कर सकते। हम मनुष्य-कर्तृत्व की उत्कृष्टता में विश्वास नहीं रखते।

यत् खलु शब्द आह तद् अस्माकं प्रमाणम् -व्याकरण महाभाष्य।

हम शब्दप्रमाण के माननेवाले हैं।

    (2) इसके साथ यह भी ध्यान रखने योग्य है कि कुरान और बाइबिल के समान वेद नहीं। वेद आदि सृष्टि में हुआ है, और वेद शब्द का अर्थ ज्ञान है। वेद के मन्त्र उपदेश देते हैं-मोक्ष और राजनीति का। एक लाख अध्यायों में आदि त्रिवर्गशास्त्र का ज्ञान देने वाला ब्रह्मा, जो कुरान और बाइबिल में आदम अथवा आदि देव के नाम से प्रसिद्ध है, तथा राजशास्त्र के महान् आचार्य इन्द्र, बृहस्पति, शुक्र और नारद, तथा धर्म अथवा कानून का एक लाख श्लोकों में विधान करने वाला स्वायम्भुव मनु, सब मुक्तकण्ठ से एक ही ध्वनि करते हैं-

वेदोऽखिलो धर्ममूलम्-मनु

    कोटल्य भी विद्याओं में त्रयी का प्रधान स्थान मानता है। बाइबिल आदि अधिकतर भक्ति और पूजा का मार्ग बताते हैं। अतः जब कोई वेद-विश्वासी आर्यराज्य की घोषणा करता है, तो उसे Communal अथवा मतवादी नहीं कहा जा सकता। वह सम्पूर्ण विद्याओं के भण्डार वेद की शुद्ध राज्य-पद्धति का समर्थक है। हाँ उसका आधार भ्रान्तिपूर्ण मानव-बुद्धि पर नहीं, ईश्वर के ज्ञान और ऋषियों के व्याख्यान पर हैं।

    राजशास्त्र के पूर्वोक्त उपदेष्टा ऋषियों ने राज्य, राष्ट्र, प्रजा, दण्ड, धन-विभाजन, भूमि, कर, न्याय और विधान आदि के सम्पूर्ण सिद्धान्त इस निर्मलरूप में दिए हैं कि उनकी तुलना प्लैटो, बिस्माक, डिजरेली, ग्लेडस्टन, कार्लमार्क्स, लेनिन, हिटलर, स्टैलिन, चर्चिल, रोजवेल्ट, ट्रमन अथवा जवाहरलाल आदि अणुमात्र भी नहीं कर सकते। अतः उन ऋषियों के राजशास्त्र के सिद्धान्तों द्वारा संसार को राग-द्वेष रहित करके सुखी बनाने का प्रयास करनेवाले आर्य विकृत शब्द हिन्दू से पुकारे जाने वाले श्रद्धावान् लोगों को Communal कहना अनुचित है, अज्ञान का फल है, नहीं नहीं महान् पाप है। वस्तुतः संसारमात्र में केवल आर्य ही कम्यूनल नहीं है, शेष दूसरे सारे लोग जिन्होंने अधूरे विकृत रागद्वेषयुक्त मनुष्य-निर्मित आधारों पर राजशास्त्र के सिद्धान्त अथवा विधान बनाकर अपनी-अपनी Communities (समूह) बनाई हैं, कम्यूनल हैं। आर्यराज्य में घृणा और वैमनस्य का लेश नहीं है।
    
    जिस प्रकार कम्यूनिस्ट बनने वालों को ईश्वर आत्मा पुनर्जन्म और कर्मफल के अस्तित्व के विश्वास को तिलांजलि देनी पड़ती है, तथा जिस प्रकार कम्यूनिस्ट लोग कार्लमार्क्स को ज्ञान का परम पुंज मानते हैं अपिच जिस प्रकार सोशलिस्ट बनने वाल को धन के बटवारे के सिद्धान्त-विशेष मानने पड़ते हैं और पूंजीपति और मजदूर रूपी अति घृणित शब्दों द्वारा उद्घोषित, वर्तमान-युगीन सदोषमत स्वीकार करने पड़ते हैं, अपरं च जिस प्रकार कांग्रेस में प्रवेश करने वालों को संप्रथित संस्कृति (Composite Culture) के दूषित मत में विश्वास करना पड़ता है, तथा वेद बाइबिल और कुरान वर्णित आदि-मनुष्य के जन्मविषयक सिद्धान्त का विश्वास त्याग करके श्री महात्मा गांधी जी द्वारा स्वीकृत विकासमत अपनाना पड़ता है, उसी प्रकार आर्य-राजनीति में विश्वास करने वाले को वेद को ज्ञान का मूल और सर्वांगपूर्ण उद्गम का मूल मानना पड़ता है, जो तथ्य स्वतः-सिद्ध, इतिहास-सिद्ध और तर्कसिद्ध है, तथा जिस सिद्धान्त के सम्मुख जर्मन लेखकों का मिथ्या भाषा-मत जर्जरीभूत हो रहा है, तो इसमें आर्य अथवा हिन्दू का कोई दोष नहीं। वह उसी प्रकार के वैज्ञानिक-मार्ग का पुजारी है, जिस प्रकार के वैज्ञानिक मार्ग पर एक वनस्पतिशास्त्र-वेत्ता अथवा एक रसायनशास्त्रवेत्ता चल रहा है।

    इस कथन में अत्युक्ति का लेशमात्र भी नहीं कि राजनीति के क्षेत्र में वास्तविक अधिकार आर्य का ही है, और शेष लोग तो इस विषय में बालक के समान हैं। संसार को आर्यशास्त्र से सीखने की आज भी आवश्यकता है। इस सिद्धान्त के सर्व-विदित न होने का दुःख है, पर इस विषय में दोष अपना है। हमने अभी तक एतद्विषयक उत्कृष्ट साहित्य संसार के सामने नहीं धरा। आर्यसमाज का सब धन और शक्ति अति छोटे कामों में लगी है।

    (3) तीसरा मूल तत्त्व है-ह्रास-सिद्धान्त विषयक। मानव जाति काल के सहस्रों वर्ष के महान् चक्र में, सामूहिकरूप से उन्नति की ओर नहीं गई। यह ह्रास और अवनति की ओर मुख किए है। विज्ञान के जिन महान् आविष्कारों पर वर्तमान नास्तिक संसार मुग्ध है, वे मानव के लिए कल्याणकारी सिद्ध हुए तथा होंगे वा नहीं, इस का निर्णय भावी संसार करेगा। अतः दस-बीस आविष्कारों को ही जीवन-उन्नति का सर्वे-सर्वा मानना, सब कुछ नहीं है। भगवान् मनु ने सहस्रों वर्ष पूर्व कह दिया था कि राष्ट्रों में महायन्त्रों का प्रवर्तन पतन का कारण अर्थात् उपपातक होता है-

सर्वाकरेष्वधिकारो महायन्त्रप्रवर्तनम्।
हिंसौषधीनां स्त्र्याजीवोऽभिचारो मूलकर्म च।।11-62।।

    इसलिए ज्ञात होता है कि महायन्त्रों को जानते हुए भी ऋषियों ने इनका अधिक प्रचार मनुष्य के कल्याण का हेतु नहीं माना। अतः इन पर उन्होंने नियन्त्रण कर दिया। महायन्त्रों से पाश्चात्य संसार को जो सुख हुआ है, उसका परिणाम कुछ ही वर्षों में निकलने वाला है।

    राजनीति के क्षेत्र में भी जो उन्नत दशा पूर्व समयों में थी, उस का सहस्रांश भी अब नहीं है। मैं आपको रामराज्य के विषय की कतिपय यथार्थ घटनाएँ सुनाता हूँ-

विधवा यस्य विषये नानाथाः काश्चनाभवन्।।47।।
नित्यं सुभिक्षमेवासीद् रामे राज्यं प्रशासति।।48।।
अदंशमशका देशा नष्टव्यालसरीसृपाः।
नान्योन्येन विवादोऽभूत् स्त्रीणामपि कुतो नृणाम्।
धर्मनित्याः प्रजाश्चासन् रामे राज्यं प्रशासति।।51।।
सर्वा द्रोणदुधा गावो रामे राज्यं प्रशासति।।52।।
महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 29

    अर्थात्-रामराज्य में विधवा और अनाथ नहीं थे। खाना-पीना सदा सुलभ था। सम्पूर्ण देश में मच्छर, सिंह, सर्प, कानखजूरा और बिच्छू आदि न थे। पर्वतों के निर्जन स्थानों में भले ही हों। किसी स्त्री का दूसरी स्त्री से कभी झगड़ा नहीं होता था, पुरुषों के झगड़े की तो बात ही क्या। प्रजा धर्म में स्थिर थी। अधर्मी नास्तिक तब न थे। प्रत्येक गौ न्यून से न्यून 32 सेर दूध देती थी।

    पौरव कुल के चक्रवर्ती सुहोत्र के राज्य में निर्धन से निर्धन पुरुष का बालक सोने के हाथी-घोड़े रूपी खिलौनों से खेलता था। महाभारत शान्तिपर्व में लिखा है-

यस्मै हिरण्यं ववृषे मधवा परिवत्सरम्।।29/32।।

    मैं कल्पित बातें नहीं कह रहा। सत्य इतिहास के ये नग्नचित्र हैं। भला कौनसा कम्युनिस्ट अथवा सोशलिस्ट राज्य है, जो क्रियात्मक रूप में इनके समीप भी पहुंच सकता है। अतः यदि इस प्रकार के सुखी आर्य-राज्य के निर्माण का हम यत्न करें, तो इसमें किसको आपत्ति हो सकती है ? राज्य-व्यवस्था में ऋषियों का सिद्धान्त अजेय है। रूस और अमरीका की डिण्डीभि निःसार है। वे कम्यूनल हैं, हम प्राणीमात्र के हैं।

बुधवार, 20 जनवरी 2016

भारतीय प्राचीन राजनीति (एक)

ओ३म्
भारतीय प्राचीन राजनीति (1)

इतिहास शोधक, गवेषक स्वर्गीय श्री पण्डित भगवद्दत्त जी

राजनीति को समझने के लिए, उसके जटिल सिद्धान्तों पर अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए, और संसार आर्यवर्त्म से विचलित न हो, इसके लिए राजनीति के प्रादुर्भाव का इतिहास जानना अत्यावश्वक और अनिवार्य है। अतः प्रथम उसी पर संक्षिप्त रूप से प्रकाश डाला जाता है।
आयुर्वेदीय कायचिकित्सा के अग्निवेश तन्त्र (भारत युद्ध से 240 वर्ष पूर्व) का जा रूप, चरक- प्रति-संस्कृता (विक्रम से 3000 वर्ष पूर्व) अपूर्व आर्षसंहिता में सम्प्रति उपलब्ध है, उसके विमान स्थान, अध्याय 3 में लिखा है-
आदिकाले.............व्यपगत-भय-राग-द्वेष-मोह-लोभ-क्रोध............आलस्यपरिग्रहाश्च पुरुषाः बभुवुः अमितायुषः।............भ्रश्यति तु कृतयुगे केषांचिद् अत्यादानात् सांपन्निकानां शरीरगौरवमासीत्। शरीरगौरवाच्छ्रमः। श्रमाद् आलस्यम्। आलस्यात् संचयः। संचयात् परिग्रहः। परिग्रहाल्लोभः प्रादुरासीत्। ।।28।।
ततस्त्रेतायां लोभाद् अभिद्रोहः। अभिद्रोहाद् अनृतवचनम्।...........ततस्त्रेतायां धर्मपादोऽन्तर्धानमगमत्।..........।।29।।
कैसा सुन्दर वर्णन है। संसारमात्र के साहित्य में प्राचीनतम कालविषयक यह ऐतिहासिक तथ्य सुरक्षित नहीं है। आर्य ऋषियों का संसार पर अतुलनीय उपकार है, जो मानवपन के इतिहास का उन्होंने निष्पक्ष-चित्र उपस्थित कर दिया है।
चरक-वैशम्पायन का अभिप्राय है-
‘पहला मानव धर्मपरायण था। तत्पश्चात् आलस्य के कारण अनेक लोग संचय (Hoarding) की प्रवृत्ति वाले हो गए। संचय से ग्रहण करने की इच्छा, और परिग्रह से लोभ उत्पन्न हुआ। तब त्रेता में लोभ से द्रोह और द्रोह से असत्य-भाषण उत्पन्न हुआ।’ पुराने इतिहास का यह मुंह बोलता चित्र है।
ठीक यही तथ्य अग्निवेश के सहपाठी भगवान् पराशर की ज्योतिष-संहिता में भी सुरक्षित है। यह ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं, पर इस के अनेक लम्बे पाठ पुराने टीका आदि ग्रन्थों में मिलते हैं। इस पराशरतन्त्र की प्रति संस्कृता ज्योतिष-संहिता में लिखा है-
पुरा खल अपरिमित-शक्ति-प्रभा-प्रभाव-वीर्य............धर्मसत्त्वशुद्धतेजसः पुरुषा बभूवुः। तेषां क्रमाद् अपचीयमानसत्त्वानाम् उपचीयमानरजस्तमस्कानां लोभः प्रादुरभवत्। लोभात् परिग्रहम्। परिग्रहाद् गौरवम्। गौरवाद् आलस्यम्। आलस्यात् तेजाऽन्तर्दधे।
यही अनुपम ऐतिहासिक इतिवृत्त भगवान् कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास (3050 वर्ष विक्रम से पूर्व) ने महाभारत संहिता, शान्तिपर्व, अध्याय 186 में भृगु-भरद्वाज-संवाद के प्रसंग में सुरक्षित किया है-
इत्येते चतुरो वर्णा येषां ब्राह्मी सरस्वती।
विहिता ब्रह्मणा पूर्वं लोभात्त्वज्ञानतां गताः।।12।।
भीष्म उवाच
नियतस्त्वं नरश्रेष्ठ शृणु सर्वमशेषतः।
यथा राज्यं समुत्पन्नमादौ कृतयुगेऽभवत्।।13।।
नैव राज्यं न राजासीन् न दण्डो न च दाण्डिकः।
धर्मेणैव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति च परस्परम्।।14।।
पलयानास्तथाऽन्योन्यं नरा धर्मेण भारत।
खेदं परमाजग्मुस्ततस्तान् मोह आविशत्।।15।।
ते मोहवशमापन्ना मानवा मनुजर्षभ।
प्रतिपत्ति-विमोहाच्च धर्मस्तेषामनीनशत्।।16।।
नष्टायां प्रतिपत्तौ तु मोहवश्या नरास्तदा।
लोभस्य वशमापन्नाः सर्वे भारतसत्तम।।17।।
अर्थात्-खेद के कारण अज्ञान, और बुद्धि में अज्ञान के कारण धर्मनाश तथा बुद्धिनाश से लोभ का प्रारम्भ हुआ।
इन लेखों का सार यही है कि संसार में दुःख का मूल अज्ञान, संचय और लोभ से आरम्भ हुआ। प्रवृद्ध लोभ के कारण जब मानव कृच्छ्र दशा को प्राप्त हुआ, तो उसमें मात्स्यन्याय प्रवृत्त हुआ। जिस प्रकार एक मत्स्य छोटी मच्छियों को खा लता है, उसी प्रकार सशक्त मनुष्य निर्बलों को खाने लगा। तब ऋषियों के उपदेश से राजधर्म चला, तथा वैवस्वत मनु इस सृष्टि का प्रथम राजा हुआ।
राजनीति के महापण्डित आचार्य विष्णुगुप्त कौटल्य ने लिखा है-
मात्स्यन्यायाभिभूताः प्रजाः मनुवैवस्वतं राजानं प्रचक्रिरे।
कौटल्य ने यह इतिवृत्त महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 67 से लिया-
राजा चेन्न भवेल्लोके पृथिव्यां दण्डधारकः।
शूले मत्स्यानिवापक्ष्यान् दुर्बलान् बलवत्तराः।।16।।
अराजकाः प्रजाः पूर्वं विनुशुरिति नः श्रुतम्।
परस्परं भक्षयन्तो मत्स्या इव जले कृशम्।।17।।
ताभ्यो मनुं व्यादिदेश मनुर्नाभिननन्द ताः।।21।।
अर्थात्-मात्स्यन्याय की प्रवृत्ति पर वैवस्वत मनु प्रथम राजा चुना गया। मनु के न चाहने पर भी प्रजाओं ने उस पर राज्य भार डाल दिया।
मनु से पूर्व पृथु वैन्य अभिषिक्त हुआ था, पर वह समस्त भूमण्डल का राज नहीं था। शतपथ ब्राह्मण में लिखा है-
पृथुर्ह वै वैन्यो मनुष्याणां प्रथमोऽभिषिषिचे।।5।3।5।4।।
मुन भारत मिश्र आदि सब देशों का राजा था। मिश्र देश के पुराने ग्रन्थों में उसे मेनेस नाम से स्मरण किया है।
शतपथ से पूर्व वाल्मीकि मुनि का भी इस विषय में साक्ष्य है-
आदिराजो मनुरिव प्रजानां परिरक्षिता। ।।बालकाण्ड 6/4।।
मनु ने व्यवस्था की कि संसार में अज्ञान, संचय और लोभ का नाश होता रहे तथा बली निर्बलों को न सताएँ।
इतने वर्णन से आप समझ लेंगे कि राज्य वही श्रेष्ठ है, जहां ज्ञान का साम्राज्य रहे, जहाँ अज्ञानी न्यून हों, जहाँ संचय की प्रवृत्ति दान और त्याग के वशीभूत रहे, तथा जहाँ लोभग्रस्त पुरुष थोडे़ हों, तथा जहाँ निर्बल भी आराम और सुख का जीवन व्यतीत करें, और जहाँ चोरी डाका अपि च बलात्कार आदि कुछ न हो। अस्तु।
इस प्रकार वैवस्वत मनु के काल से भारतीय राजशास्त्र, अथवा दण्डशास्त्र तथा अर्थशास्त्र का प्रयोग वृद्धि को प्राप्त हुआ। राजशास्त्र का मूल वेद में है। भगवान् ब्रह्मा  ने वेद से आकृष्ट करके त्रिवर्ग का मूलशास्त्र एक लाख अध्याय में दिया। उसका उत्तरोत्तर संक्षेप होता गया। वैवस्वत मनु ने उस परम्परागत शास्त्र का विस्तृत प्रयोग आरम्भ किया। मनु के पश्चात् वह शास्त्र अधिक संक्षिप्त होता गया। श्री भगवान् ब्रह्मा जी के काल से भारत-युद्ध-काल तक इस राजनीति-शास्त्र के निम्नलिखित 24 प्रधान उपदेष्टा हुए-
01. ब्रह्मा                              02. स्वायम्भुव मनु                    03. प्राचेतस मनु
04. वैवस्वत मनु                 05. विशालाक्ष-शिव                    06. इन्द्र-सहस्राक्ष
07. बृहस्पति-सुरगुरु           08. काव्यउशना-शुक्र                  09. नारद-देवर्षि-पिशुन
10. बुध-राजपुत्र                  11. सुधन्वा आंगिरस                  12. मरुत आविक्षित
13. भरद्वाज बार्हस्पत्य        14. पराशर                                 15. गर्ग
16. गौरशिरा                       17. भागुरि                                  18. भीष्म-कौणपदन्त
19. द्रोण-भारद्वाज               20. कृष्ण देवकीपुत्र                     21. उद्धव मन्त्री-वातव्याधि
22. विदुर                            23. शाम्बव्य                              24. वेदव्यास कृष्ण द्वैपायन

इनके अतिरिक्त आठ धर्मसूत्रकारों ने भी न्यूनाधिक प्रसंगवश राजशास्त्र का उपदेश दिया। इनमें से पहले तीन का उपदेश कुछ विस्तार से है-
01. हारीत                           02. देवल                                    03. शंखलिखित
04. गौतम                          05. वसिष्ठ                                   06. आपस्तम्ब
07. बौधायन                       08. शौनक (राजधर्म में)
इनमें अन्तिम तीन भारत युद्ध के 200 वर्ष पश्चात् अपने धर्मसूत्र लिख रहे थे। इनके अनन्तर निम्नलिखित छः आचार्यों और पण्डितों ने राजधर्म का आर्ष उपदेश संक्षिप्त किया।
01. आम्भीय                      02. चारायण                               03. विष्णुगुप्त कौटिल्य
04. विष्णु शर्मा                   05. कामन्दक                             06. सोमदेव सूरि
इन अड़तीस महर्षियों मुनियों आचार्यों और पण्डितों के ज्ञान का जो अंश सम्प्रति उपलब्ध है, उनमें पारंगत व्यक्ति ही राजनीति के विषय में कुछ कह सकता है।