गुरुवार, 7 मार्च 2013

३. कैसा धन प्राप्त करें ?


एन्द्र सानसिं रयिं सजित्वानं सदासहम्।
वर्षिष्ठमूतये भर।।
ऋग्वेद १.८.१.

अर्थ- हे (इन्द्र) परमेश्वर ! आप कृपा करके (सानसिम्) जिसका मिलकर उपभोग कर सकें ऐसे (सजित्वानम्) अपने समान लोगों में विजय दिलवाने वाले (सदा अहम्) दुष्ट शत्रु एवं हानि या दुःखों को सहन करने में समर्थ (वर्षिष्ठम्) वृद्धि करनेवाले (रयिम्) धन को (ऊतये) रक्षा के लिये (आ भर) अच्छी प्रकार दीजिए। 

कौटिल्य अर्थशास्त्र में कहा है-सुखस्य मूलं धर्मः सुख का मूल धर्म है और धर्मस्य मूलमर्थः धर्म का मूल धन है। जैसे ऊँचे पर्वतों से चारों दिशाओं में नदियाँ प्रवाहित होकर लोगों की प्यास बुझाती है वैसे ही ढेर सारे धन से सभी कार्य सिद्ध होते हैं।

यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ति।।

जिसके पास धन है उसे ही कुलीन पण्डित, विद्वान् और गुणी मानते हैं। सभाओं में उसी के प्रवचन, भाषण होते हैं। लोग उसके दर्शन को लालायित रहते हैं। सभी गुण धन के आश्रित हैं।

गत मन्त्र (ऋ॰ १.१.६) में कहा है कि देनेवाले को परमात्मा और देता है। यहाँ पर कैसे धन की कामना करें समझाया है।

१. सानसिम्- हे परमेश्वर ! हमें ऐस धन दीजिए जिसका हम उपभोग कर सकें। हम उपभुक्त धनवाले होवें। केवल धन के ऊपर सांप की भाँति चौकड़ी मारकर न बैठ जायें। जिस धन से हमारा शरीर स्वस्थ और बलिष्ठ बना रहे ऐसा धन दीजिए। धन के लोभ में हम अपने स्वास्थ्य को ही दाव पर न लगा दें। हमने यह भी सुना है-धन गया तो कुछ भी नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया, इसका भाव यही है कि स्वास्थ्य का मूल्य धन से अधिक है। अमेरिका का प्रसिद्ध उद्योगपति रॉकफेलर कहता था कि कोई मेरी आधी सम्पत्ति लेकर यदि मुझे स्वास्थ्य प्रदान करने को तैयार हो तो मैं समझूँगा कि यह घाटे का सौदा नहीं है। सानसिम् का यह भी अर्थ है कि हम धन का मिल-बाँट कर उपभोग करें। ‘केवलाघो भवति केवलादी’ अकेला खाने वाला पाप का ही भक्षण करता है।

२. धन की दूसरी कामना यह हानी चाहिये कि वह सजित्वानम् अर्थात् हमें विजय दिलवाने वाला हो। जिस धन को प्राप्त करने के लिये स्वास्थ्य की ओर ध्यान न दिया हो, उस धन का अपने लिये क्या उपयोग हो सकता है। रोगी व्यक्ति न अच्छा खा-पी सकता है और न ही अन्य आमोद-प्रमोद करता है। उसे ये सारे ताम-झाम नीरस लगते हैं। इसका दूसरा अर्थ यह है कि यह धन हमें अपने सजातीय अर्थात् समान क्षमता वालों में विजय दिलाने वाला हो। जिसको प्राप्त करने के पश्चात् उसके छीन लेने, चोरी हो जाने अथवा प्राणों का संकट उपस्थित हो जाये, वह धन किसी काम का नहीं। लोक में कहावत है-ऐसा सोना किस काम का जिसके आभूषण बना कानों में पहिनने पर चोर-उचक्के कानों को ही फाड़ कर आभूषणों को छीन लें। प्राप्त धन की सुरक्षार्थ सुदृढ़ भवन, पहरेदार या उसे शुभ कार्यों में लगा दिया जाये। नीतिकार कहते हैं-

दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति।।

दान, भोग, नाश ये धन की तीन गतियाँ होती हैं। जो न दान देता और न ही उसका उपभोग करता उसकी तीसरी गति अर्थात् विनाश होना निश्चित है।

३. सदासहम्- जिस धन को प्राप्त कर हमस ब आपत्ति एवं विघ्नों का निवारण कर सकें ऐसा धन दीजिए। जिससे अपने शत्रुओं का मान मर्दन किया जा सके, जो किसी भी परिस्थिति को सहन करने का सामर्थ्य प्रदान करे, उसी की कामना करनी चाहिये।

४. वर्षिष्ठम्-जहाँ केवल व्यय ही होता रहे, आय का स्रोत नहीं हो, वह धनराशि कितनी ही बड़ी क्यों न हो, देर-सवेर उसका स्रोत सूख जाता है। इसीलिये प्राप्त धन को ऐसे उद्योग-धन्धों में लगायें जिससे उसकी निरन्तर वृद्धि होती रहे।

५. इससे अगले मन्त्र में कहा है-

नि येन मुष्टिहत्यया नि वृत्रा रुणधामहै। त्वोतासो न्यर्वता।। ऋग्वेद १.८.२।।

हे प्रभो! धन प्राप्त कर हम शरीर का बल इतना बढ़ायें कि मुष्टि-प्रहार से ही दुष्ट जनों का मान-मर्दन कर सकें और (अर्वता) अश्वारोही सैनिकों की सेना सजाकर शत्रु बल को रोकने में सफल हों, ऐसे धन को हमें दीजिए।

इस मन्त्र के भावार्थ में महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं-ईश्वर के सेवक मनुष्यों को उचित है कि अपने शरीर और बुद्धिबल को बहुत बढ़ावें जिससे श्रेष्ठों का पालन और दुष्टों का अपमान सदा होता रहे। जिससे शत्रु जन उनके मुष्टि-प्रहारों को न सह सकें, इधन-उधर छिपते भागते फिरें।



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