सोमवार, 11 मार्च 2013

जिन्दगी से खेलो ना


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...........

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर

प्रभुकृपा से हमें मानव तन में कर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार मिल चुका है। नये कर्म करने का अवसर मिलना बहुत बड़ी बात है। साथ में कर्म की स्वतन्त्रता का होना, वरदान से कम नहीं है। हम इच्छानुसार जैसे व जितने कर्म करना चाहते हैं, वैसे व उतने कर्म यथासामर्थ्य स्वतन्त्रता से कर सकते हैं। अच्छे व बुरे का विवेक हमें करना होता है। विवेक प्राप्ति का साधन बुद्धि, ज्ञानेन्द्रियां आदि प्रभु द्वारा उपलब्ध करा दी गई हैं। अन्तःकरण में भी प्रभु की प्रेरणाएं अनुभव की जा सकती हैं। इन सबका सदुपयोग कर विवेक को जगाये रखते हुए, हित-अहित का विचार रखते हुए कर्म की स्वतन्त्रता के अधिकार का उपयोग करना होता है।

प्रभु द्वारा प्रदत्त कर्म की स्वतन्त्रता तभी वरदान सिद्ध होती है, जब विवेक के साथ इसका उपयोग किया जाता है। किसी कर्म के करने या न करने का निर्णय अन्ततः सुख-दुःख के आधार पर होता है। इसे ही हित-अहित के रूप में देखा जाता है, जो कि उचित भी है। स्वज्ञान के अनुसार प्रायः सभी सुख-दुःख/हित-अहित को ध्यान में रखकर कर्म के करने न करने का निर्णय करते हैं। ज्ञान-विवेक में अन्तर आते ही कर्म में अन्तर आ ही जाता है। आध्यात्मिक व्यक्ति को अपने कर्मों पर दृष्टि रखने के साथ अपने ज्ञान-विवेक पर भी दृष्टि रखनी होती है।

प्रभुकृपा से बहुत से मानव सच्चे हृदय से आध्यात्मिक मार्ग पर चल रहे हैं। अपने जीवन को सार्थक आध्यात्मिक-जीवन में बदल रहे हैं। इनका विवेक इन्हें एक निश्चित मार्ग पर चलाता है। कर्म के करने या न करने का निर्णय ये भी अन्ततः सुख-दुःख/हित-अहित के आधार पर लेते हैं, किन्तु दूर-दृष्टि से। मात्र इस जन्म को ध्यान में रखा जाए, तो कर्म के करने या न करने के निर्णय एक सीमा तक ही उचित हो पाते हैं। इतने मात्र से इस मानव जीवन की सार्थकता नहीं हो पाती है।

प्रभुकृपा से आध्यात्मिक व्यक्ति में यह समझ बनने लगती है। वह इस समझ-विवेक को धीरे-धीरे बढ़ाता जाता है, परिष्कृत करता जाता है। वह अपने विवेक का परीक्षण करता रहता है और अपनी समझ को संशोधित करता जाता है। परिणाम यह आता ही है कि वह मात्र इस जीवन को ध्यान में रखकर करने या ने करने का निर्णय नहीं करता, वह मात्र इहलौकिक सुख-दुःख को आधार बनाकर निर्णय नहीं करता। उसकी दृष्टि में पारलौकिक सुख-दुःख भी रहता है। वह दोनों को ध्यान में रखता है। दोनों को ध्यान में रखते हुए हित-अहित के अनुसार कर्म करने या न करने का निर्णय लेता है। ऐसे में कभी निर्णय में देर भी हो जाती है, जो कि अन्यों को अव्यावहारिक प्रतीत होती है, किन्तु आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए यह आवश्यक होता है।

प्रभुकृपा से जैसे-जैसे विवेक परिपक्व होता जाता है, स्वाभाविक होता जाता है, दिशा व दृष्टि निश्चित-स्थिर होती जाती है, वैसे-वैसे निर्णय शीघ्रता-सहजता-सरलता से होते जाते हैं। निर्णय करते समय मन में कोई संघर्ष-द्वन्द्व-खिंचाव नहीं रहता। निर्णय उचित ही होते हैं, निर्णय हितकर ही निकलते हैं। आध्यात्मिक व्यक्ति एक भिन्न स्तर पर जीता है, उसके निर्णय अनेकों को अनुचित लग सकते हैं, लगते हैं, पर प्रभुकृपा से उसमें इतना आत्मविश्वास होता है कि वह अपने निर्णयों पर स्थिर रह पाता है, सन्तुष्ट रह पाता है, वह संशय से ग्रस्त नहीं होता। उसे स्पष्ट दिखता है कि इन सांसारिक लोगों की तरह निर्णय करना आत्मा के लिए हितकर नहीं है।

प्रभु ने सहजता से सृष्टि का निर्माण किया, उसके लिए यह क्रीड़ावत् था। वह संसार को सहजता से चला भी रहा है, यह भी उसके लिए क्रीड़ावत् है। कठिन दिखने वाला आध्यात्मिक जीवन भी विवेक के बढ़ने के साथ सहज होता जाता है, क्रीड़ावत् होता जाता है। सांसारिक व्यक्ति जब बिना विवेक के इस जीवन में क्रीड़ा करने लगता है, तो वह अपने को क्रीड़ा का आनन्द लेता हुआ अनुभव करते हुए भी आध्यात्मिक दृष्टि से विनाश की ओर ले जा रहा होता है। आध्यात्मिक दृष्टि से रहित यह क्रीड़ा उसके जीवन को खिलवाड़ बना देती है। वह अपने बहुमूल्य जीवन से खेल रहा होता है। वह अपना बहुमूल्य जीवन/समय खेल में बिता रहा होता है। अपनी जिन्दगी से खेलकर मानव जीवन बिता देना आध्यात्मिक व्यक्ति को भंयकर बर्बादी के समान लगता है। आध्यात्कि मार्ग पर चलना है, तो जिन्दगी से खेलना रोकना होता है। आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करना हो, तो अपने द्वारा किये जा रहे खिलवाड़ पर गंभीर विचार आरम्भ करना होता है। आध्यात्मिक जीवन जीना हो, तो जिन्दगी से खेलना बन्द करना होता है। प्रारम्भ में यह कठिन प्रतीत होता है, धीरे-धीरे सहज-सरल-क्रीड़ावत् हो जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि होने से यह क्रीड़ा जीवन के साथ खिलवाड़ नहीं बनती। प्रभु की कृपा से वह प्रभु के समान निर्लिप्त सहज क्रिया-क्रीड़ा बन जाती है।



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