मंगलवार, 17 मई 2016

स्वर्ग-नरक विवेचन !

लेखक :--
नंदकिशोर आर्य 
संस्कृत प्राध्यापक गुरुकुल कुरुक्षेत्र 

पाठकवृन्द! मानव-जीवन को पाकर बुद्धिमान् व्यक्ति दुःखों से छुटकारा और सुखों की प्राप्ति के लिए दिन-रात पुरुषार्थ करता है। हर व्यक्ति अपने सुखानुरूप भिन्न-भिन्न सांसारिक वस्तुओं को इकट्ठा कर सुखी होने का प्रयत्न करता है। यह सांसारिक सुखानुभूति कितने समय एवं कितनी मात्रा में होगी यह एक अलग विषय है। 

भारतीय जनमानस पुनर्जन्म के सिद्धान्त के साथ इस जीवन एवं अगले जीवन के सुखों की प्राप्ति की इच्छा से युक्त होकर अपना जीवन जीता है। इस जन्म और अगले जन्म के बीच एक दूसरा विचार स्वर्ग एवं नरक का भी बना रहता है। इस स्वर्ग-नरक की विचार सरणी के कारण बहुतों की आजीविका भी चल रही है। इस विचार के आधार पर जब मनुष्य का आत्मा शरीर से अलग होता है तो वह अपने पुण्यों के कारण स्वर्ग एवं पापों के कारण नरक में जाता है। इन स्वर्ग-नरक के सुख-दुःखों की कल्पनाओं का आधार मुख्यतः गरुड़पुराण को ही माना जा सकता है। क्या ऐसा कोई स्थान विशेष है, जहाँ पर आत्माओं को इस प्रकार का सुख एवं दुःख विशेष देने का स्थान परमात्मा ने बनाया है ? गीता के अन्दर आत्मा को शस्त्र से न कटने वाला, आग में न जलने वाला, पानी से न गलने वाला और वायु से न सूखने वाला माना गया है, तो इन स्वर्ग-नरक में तथाकथित यमराज किस रूप में आत्मा को दण्ड देकर सुख वा दुःख प्रदान करते हैं ? क्योंकि जब तक आत्मा शरीर धारण नहीं करता तब तक उसे सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती। यदि इस प्रकार की कोई कार्यप्रणाली हो भी तो उन सुख-दुःखों की प्राप्ति के बाद आत्मा का क्या होगा? क्योंकि किसी भी पुण्य-पाप का अनन्त सुख एवं दुःख रूप फल नहीं हो सकता। वे आत्माएं कितने समय तक के लिए इन तथाकथित स्वर्ग-नरक में रहेंगी? जब उनके सुख एवं दण्ड का समय पूर्ण हो जायेगा तो फिर अगला कौनसा सिद्धान्त या नियम काम करेगा? यदि स्वर्ग कोई स्थान है और वह पुण्यों के फल स्वरूप प्राप्त होता है तो पुरुषार्थ चतुष्टय में मोक्ष का क्या होगा? इसी प्रकार नरक कोई स्थान विशेष है जहां पापों के फल प्रदान किये जाते हैं तो पृथिवी पर मनुष्येतर हाथी, घोड़ा, गाय, गधा, शूकर, पशु-पक्षी आदि योनियों की संरचना किस सिद्धान्त के आधार पर मानी जायेगी? तथाकथित 84 लाख योनियों का क्या होगा जिनमें घूमकर अन्त में मनुष्य का जन्म प्राप्त होता है? क्या मनुष्येतर योनियों में जन्म लेना आत्मा के लिए सुखकारी है? इस प्रकार के नाना प्रकार के प्रश्न आप-हमारे मन में उठ सकते हैं।

स्वभावतः मनुष्य जीवन को पाकर ही हम शुद्ध ज्ञान के आधार पर बुद्धि का उचित प्रयोग करके सुखानुभूति कर पाते हैं, इससे इतर योनियों में सुख की कल्पना लेश मात्र भी नहीं की जा सकती। मनुष्येतर योनियों को मुख्यरूप से भोग की योनि माना जाता है, इन योनियों में मनुष्य जीवन में किये गए पापों का दण्ड भोगना होता है तो उस तथाकथित नरक की आवश्यकता कहां रह जाती है? और यदि नरक में दण्ड का भुगतान हो गया तो इन योनियों की क्या आवश्यकता रह गई? नरक में दण्ड भोगने के बाद आत्मा को स्वतः मनुष्य का जीवन अथवा कुछ पुण्यों के फल स्वरूप स्वर्ग की प्राप्ति होनी चाहिए। उसके बाद ?

पाठकवृन्द! ऐसे अनेक प्रश्न उमड-घुमड़कर आपके हमारे मन में आते हैं, इनका समाधान इस युग के आद्य ऋषि स्वामी दयानन्द जी ने बड़ी ही सरलता के साथ सत्यार्थ प्रकाशादि ग्रन्थों में प्रदान किये हैं। जब प्रश्न स्वर्ग किसे कहते हैं का आया तो लिखा ‘स्वर्ग’ नाम सुख विशेष भोग और उस की सामग्री की प्राप्ति है, और ‘नरक’ जो दुःख विशेष भोग और उसकी सामग्री को प्राप्त होना है। युगद्रष्टा ऋषि ने उन सभी कल्पनाओं को नकार दिया जिसमें इस प्रकार का झूठा जाल बुनकर सरल हृदय मानवों के मन-मस्तिष्क को आतंकित कर जकड़ लिया था। गरुड़पुराण की पोल-पट्टी खोलते हुए चित्रगुप्त और यमराम एवं यमलोक का चित्रण सत्यार्थ प्रकाश में इस प्रकार किया है-

(प्रश्न) क्या गरुड़पुराण भी झूठा है?

(उत्तर) हां असत्य है।

(प्रश्न) फिर मरे हुए जीव की क्या गति होती है?

(उत्तर) जैसे उस के कर्म हैं।

(प्रश्न) जो यमराज राजा, चित्रगुप्त मन्त्री, उस के बडे़ भयंकर गण कज्जल के पर्वत के तुल्य शरीरवाले जीव को पकड़ कर ले जाते हैं। पाप, पुण्य के अनुसार नरक, स्वर्ग में डालते हैं। उस के लिये दान, पुण्य, श्राद्ध, तर्पण, गोदानादि, वैतरणी नदी तरने के लिये करते हैं। ये सब बातें झूठ क्योंकर हो सकती हैं?

(उत्तर) ये बातें पोपलीला के गपोडे़ हैं। जो अन्यत्र के जीव वहां जाते हैं उन का धर्मराज चित्रगुप्त आदि न्याय करते हैं तो वे यमलोक के जीव पाप करें तो दूसरा यमलोक मानना चाहिये कि वहां के न्यायाधीश उन का न्याय करें और पर्वत के समान यमगणों के शरीर हों तो दीखते क्यों नहीं? और मरने वाले जीव को लेने में छोटे द्वार में उन की एक अंगुली भी नहीं जा सकती और सड़क गली में क्यों नहीं रुक जाते। जो कहो कि वे सूक्ष्म देह भी धारण कर लेते हैं तो प्रथम पर्वतवत् शरीर के बडे़-बडे़ हाड़ पोप जी विना अपने घर के कहां धरेंगे?
जब जंगल में आगी लगती है तब एकदम पिपीलिकादि जीवों के शरीर छूटते हैं। उन को पकड़ने के असंख्य यम के गण आवें तो वहां अन्धकार हो जाना चाहिये और जब आपस में जीवों को पकड़ने को दौड़ेंगे तब कभी उन के शरीर ठोकर खा जायेंगे तो जैसे पहाड़ के बडे़-बडे़ अवयव गरुड़पुराण के बांचने, सुनने वालों के आंगन में गिर पडे़ंगे तो वे दब मरेंगे वा घर का द्वार अथवा सड़क रुक जायेगी तो वे कैसे निकल और चल सकेंगे? (सत्यार्थप्रकाश 11)

स्वर्ग-नरक हमारे अपने दैनिक जीवन के साथ जुड़ा हुआ सत्य है। अपनी दैनिक क्रियाओं में सुख प्राप्ति के साधनों को नित्य करते रहें सत्यार्थ प्रकाश एवं वेदादि सत्यग्रन्थों का स्वाध्याय करके अपनी बुद्धि को तर्कयुक्त करके सुखों की कामना युक्त होवें।

आओ ! हम सब सत्यपथ के अनुगामी बनें और अज्ञान-अन्धकार के गहरे अन्धकूप से निकलकर परमात्मा प्रदत्त इस मानव जीवन के मूल्य को जान-समझकर उत्तम आचरण एवं  वैदिक योगविधि से मोक्षानन्द को प्राप्त करने का सुफल प्रयास करें तभी मानव जीवन की सार्थकता सिद्ध होगी।