बुधवार, 13 मार्च 2013

दयानन्द दिव्य दर्शन प्राक्कथन



लेखक: श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय

जैसे एक नदी की सृष्टि नाना दिग्देशागत जल-धाराओं के समवाय से होती है, वैसे ही मनुष्य जीवन की सृष्टि भी नाना व्यक्ति और प्रवाह-समूह के समवाय से होती है। जिन्होंने ऊंचे पर्वत पर खडे़ होकर किसी नदी विशेष के उत्पत्ति स्थान को देखा है, वे जानते हैं कि कितने छोटे-बडे़ स्रोत भिन्न-भिन्न दिशाओं से आकर आपस में मिलकर नदी की उत्पत्ति करते हैं। मनुष्य-जीवन भी ठीक इसी प्रकार से उत्पन्न होता है। किसी एक मनुष्य के जीवन की पर्यालोचना करने से मालूम होगा कि उसमें अनेक विभिन्न प्रभावों का सम्मिलन हुआ है। यदि विचार करके देखा जाये कि मैं कौन हूं, यदि अहंभाव का विश्लेषण किया जाये और देखा जाये कि मेरा संगठन किस उपादान से हुआ है। मैं किस-किस शक्ति के समवाय से सृष्ट हुआ हूं, मेरे ‘मैं’ में मेरा कितना निजू भाग और कितना दूसरों का है, तो ज्ञात होगा कि उसमें अनेक छोटे-बडे़ प्रभावों का समवाय है। प्रथम पूर्वजन्मार्जित संस्कार, दूसरे पितृ-शक्ति, तीसरे मातृ-शक्ति, चौथे परिवेष्टनीय शक्ति, पांचवे शिक्षा शक्ति। इन्हीं प्रधान-प्रधान पांचों शक्तियों के स्रोतों के समवाय से मनुष्य की जीवननदी बनती है। इनके अतिरिक्त सूक्ष्मभाव से देखने से उसमें  और भी छोटी-बड़ी शक्तियों का समवाय देखने में आता है। प्रागुक्त परिवेष्टनीय शक्ति के साथ जन्म-गृह, जन्म-स्थान और जन्म-पल्ली का घनिष्ठ सम्बन्ध है।

परिवेष्टनीय शक्ति उसे कहते हैं, जिससे मनुष्य अहरहः घिरा रहता है। उसके भीतर मनुष्य के चतुर्दिग्वर्ती चेतन, अचेतन और उद्भिज्जादि समस्त पदार्थभूत की शक्ति परिगणित होती है। हमने जिस घर में जन्म लिया, उसके चतुर्दिक्स्थ जो कुछ भी है, वह सब हमारे मन पर अपने प्रभाव का विस्तार करता है। जिस ग्राम में हमने जन्म लिया है, उसमें जो कुछ भी है, वह हमारे मन कों संगठित करने में सहायता करता है। जिस स्थान वा जिस ग्राम में हम भूमिष्ठ हुए हैं उसके वृक्ष, लता, नदी, सरोवर, क्षेत्र, जंगल, वनभूमि, शिलास्तूप सब पदार्थ ही हमारे मनोराज्य को विकसित करते हैं। यह एक विवादरहित सत्य है कि मनुष्य का अध्यात्मजगत् जिस प्रकार बाह्यजगत् के ऊपर कार्य करता है, बाह्यजगत् भी उसी प्रकार अध्यात्मजगत् के ऊपर अहरहः अपना प्रभाव करता है। नदी की कल्लोल, सागर-वृक्ष का प्रकम्प, अत्युच्च शैल की गम्भीरता, विस्तीर्ण मरु प्रान्तर की भीषणता, मेघमाला की घन-गम्भीर नीलिमा, निबिड वनभूमि की अपरिच्छिन्न निस्तब्धता, सब ही मनुष्य की चित्तवृत्ति का संगठन करती हैं। यही मनस्तत्त्व पण्डितों ने स्थिर किया है। इसलिये हम कहते हैं कि जो लोग संसार में महाजन के नाम से विख्यात हैं, जो महान् मन और विशाल बुद्धि पाकर धरित्री के पृष्ठ पर आविर्भूत हुये हैं, प्रायः वे सब ही प्रकृति की सुन्दरतर महिमा या रुद्रतर भाव के क्रोड में लालित, पालित और परिवर्धित हुए हैं।

अस्तु ! अगण्य-सुगण्य, पण्डित-मूर्ख, प्रातःस्मरणीय-परिवर्जनीय, भिखारी-प्रासादवासी, किसी भी मनुष्य को समझने का यदि यत्न किया जाय, अथवा मनुष्य जीवन को यदि यथार्थ रूप से चित्रित करके देखा जाए तो यह जानना आवश्यक है कि उसके भीतर परिवेष्टनीय शक्ति ने कितना कार्य किया है। विशेषतः जो महापुरुष हैं जिनके आविर्भाव से धरित्री पवित्र हुई है, जिनके प्रभाव से जन-समाज की गति पलटी है, वस्तुतः जो मनुष्य समाज के प्राण और मेरुदण्ड स्वरूप हैं, उनके चरित्र के वर्णन में उनकी जन्मभूमि का वर्णन अपरिहार्य रूप से आवश्यक है।

जिन्होंने इस पापपरिपुष्ट युग में जन्म लेकर जीवनभर निष्कण्टक ब्रह्मचर्य का पालन किया, जो विद्या में, वाक्पटुता में, तार्किकता में, शास्त्रदर्शिता में, भारतीय आचार्य-मण्डली के बीच में शंकराचार्य के ठीक परवर्ती आसन पर आरूढ़ होने के सर्वथा योग्य थे, वेदनिष्ठा में, वेदव्याख्या में, वेदज्ञान की गम्भीरता में, जिनका नाम व्यासादि महर्षिगण के ठीक नीचे लिखे जाने योग्य था, जो अपने को हिन्दुओं के आदर्श-सुधारक पद पर प्रतिष्ठित कर गये हैं और इस मृतप्राय आर्यजाति को जागरित करके उठाने के उद्देश्य से मृतसंजीवनी औषध के भाण्ड को हाथ में लेकर जिन्होंने भरतखण्ड में चतुर्दिक् परिभ्रमण किया था, दुःख का विषय है कि उनका चरित्र और उनकी जन्मभूमि का प्रसंग आज तक भी अप्रकाशित है। वह भारत-दिवाकर दयानन्द कहां जन्मा था, यह आज तक भी कोई नहीं जानता। आज प्रायः ३३ वर्ष स्वामी दयानन्द सरस्वती को स्वर्गारोहण किए हो गये और जिस आर्यसमाज को इन्होंने इस उद्देश्य से स्थापित किया कि उनके उपदेशों का संसार में प्रचार करें, उसकी आयु भी प्रायः ४॰ वर्ष हो गई, परन्तु उसने स्वामी जी के जन्म स्थानादि जानने के विषय में कोई विशेष यत्न नहीं किया। यद्यपि दयानन्द के जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में कितने ही ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं, परन्तु उनमें किसी में भी उनकी जन्मभूमि की कथा निश्चित रूप से नहीं लिखी गई। इसलिए दयानन्द के जितने जीवन-चरित उपस्थित हैं, वे सब अपूर्ण और अंगहीन हैं। इसलिये आवश्यक है कि उनकी जन्मभूमि के विषय में पूरा अनुसंधान और अन्वेषण किया जाय। इस कार्य को करने का हमने बीड़ा उठाया और हर्ष का विषय है कि असीम प्रयत्न और अनथक परिश्रम के पश्चात् हम अपने संकल्प को पूरा करने में कृतकार्य हुए हैं।

सत्य की खोज के लिए अनुसंधान के अविश्रान्त स्रोत का प्रवाहित रहना, गवेषणा के आलोक का प्रदीप्त रहना और जहां तक हो सके, उसे ले जाये जाना सत्य के निर्णय के लिए गवेषणा का पुनः पुनः परिचालन करना आवश्यक है, इसी प्रकार की घटना-विशेष का लोगों के सामने उज्ज्वल रूप में रखने के लिए और उसे दृढ़तर भित्ति पर प्रतिष्ठित करने के लिए अनुसंधान कार्य में बार-बार व्यापृत होना भी अपरिहार्य है। तब तक वह स्फुटतर और उज्ज्वलतर नहीं हो सकती; जब तक अनेक प्रमाणों को प्रस्तुत नहीं किया जाता, तब तक वह दृढ़तर भूमि के ऊपर स्थापित नहीं हो सकती और यह निर्विवाद है कि नानादिक् से आलोक पात करना और अनेक प्रमाणों का संग्रह करना कष्टसाध्य है।

अतः जो कष्ट हमने सहे, जो धन और समय हमने व्यय किया, उस पर हमें तनिक भी पश्चात्ताप नहीं, क्योंकि दयानन्द के जीवन-चरित का महान् विषय बिना इसके लिखना असम्भव था और उसका लिखना देश के कल्याण के लिए आवश्यक था।

देवेन्द्रनाथ मुखोपध्याय
सन् 1916

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