शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

नित्य-अनित्य का विवेक प्राप्त करो।

आचार्य ज्ञानेश्वर जी कि प्रवचनमाला से 

भूमिकाः- मोक्ष की प्राप्ति और व्यवहार की श्रेष्ठता के लिए विवेक जरूरी है। सबसे पहला है नित्य-अनित्य का विवेक। आचार्यवर कहते हैं:-

क्या मेरा शरीर अनित्य है ? क्या मैं मरूंगा ? यह प्रश्न ऐसा है कि यद्यपि स्थूल रूप से किसी व्यक्ति से पूछा जाये तो वह उत्तर देगा- इसमें क्या नई बात है। मरना तो है। जो उत्पन्न हुआ है, वो तो मरेगा ही। सभी मरते हैं, मैं भी मरूंगा। यहां पर यह उस व्यक्ति का शाब्दिक ज्ञान है, आनुमानिक ज्ञान भी है। इसके अलावा एक प्रात्यक्षिक ज्ञान भी होता है, जो व्यक्ति में विवेक उत्पन्न करने के लिये बाध्य कर देता है। वह विवेक ज्ञान जब उत्पन्न होता है तो व्यक्ति में वैराग्य उत्पन्न होता है। शाब्दिक ज्ञान का उतना प्रभाव नहीं होता है, आनुमानिक प्रमाण से उत्पन्न ज्ञान का प्रभाव उतना नहीं होता है, जितना कि प्रात्यक्षिक ज्ञान का प्रभाव पड़ता है। जब मन के अंदर इस प्रकार की बात उठाकर के बार-बार व्यक्ति विचार करता है कि - क्या मैं कभी बूढ़ा होऊंगा, रोगी होऊंगा, मरूंगा ? यह संसार में जो मुझे दिखाई दे रहा है, जो मेरा परिवार है, जो मैंने इतना लंबा चौड़ा सम्बन्ध बनाया है, ये संसार में सैकड़ों हजारों व्यक्तियों के साथ मधुर संबंध हैं, क्या ये सदा बने रहेंगे ? मेरी बहुत बड़ी ख्याति है। क्या ये ख्याति मेरे मरने के बाद पक्की समाप्त हो जायेगी ? आध्यात्मिक आदमी अपनी मृत्यु को ज्ञान-विज्ञान के आधार पर आज इस समय उपस्थित कर लेता है। उसी पल महसूस कर लेता है कि- ये लो मैं मर गया। जैसे वास्तव में मरने के बाद व्यक्ति की स्थिति होती है, मरकर पता नहीं, वो कहां गया। उसका शरीर नष्ट हो जाता है, उसके सारे संबंध टूट जाते हैं। ऐसे ही आध्यात्मिक आदमी, अपनी मृत्यु के समान स्थिति मन के अंदर उत्पन्न कर लेता है। जैसे मृत्यु होने के बाद में किसी का किसी से संबंध है ही नहीं, बिलकुल संबंध नहीं बनता। मरने के बाद वह कहां गया, कोई नहीं जानता। यह सही है कि अधिकांश व्यक्ति इसी धरती पर से आये हैं। पीछे उनका परिवार था, बेटे-पोते भी थे, कोई मकान भी था, प्रतिष्ठा भी थी, सम्मान भी था। कल्पना कीजिये कि-हम उसी नगर, गली, पड़ोस में आ गये हों, हो सकता है उसी घर में आ गये हों। यह एक सम्भावना है, लेकिन इसका पक्का पता चलेगा नहीं। योगी व्यक्ति इस प्रकार अपने आप से प्रश्न करने उसका समाधान निकालता है कि- मैं मरूंगा। मरने के बाद मेरी ये स्थिति होगी कि सारे संसार का मुझसे संबंध बिलकुल टूट जायेगा। किसी मां के पेट में जाकर के मुझे नये सिरे से सारे संसार का ताना-बाना बुनना पड़ेगा। जो आज हमने 60,70,80 वर्ष की उम्र तक पहँचते- पहुँचते ताना-बाना बुना, अपना व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक संसार बनाता है। जब व्यक्ति मृत्यु को अनुमान प्रमाण के आधार पर, सत्य कल्पना के आधार पर अपने मन-मस्तिष्क में ले आता है तो निश्चित रूप से विवेक उत्पन्न होता है।

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

ईश्वर जीव और प्रकृति को जानें


ईश्वर जीव और प्रकृति को जानें



यज्ञ प्रशिक्षण देते आचार्य ज्ञानेश्वर जी 


भूमिकाः- अपने अविद्या आदि दोषों को दूर करने हेतु विद्या की प्राप्ति करना जरूरी होता है, तब ही लौकिक और आध्यात्मिक सफलता मिलती है। अतः आचार्यवर कहते हैं

मनुष्य जीवन का उद्देश्य है- बंधन से छूट कर के स्वतंत्रता को प्राप्त करना। इसका उपाय है- ईश्वर को जानना, अपने आप को जानना और प्रकृति को जानना। पहले प्रकृति को जानें अर्थात् इस संसार को जानें। फिर अपने स्वयं के स्वरूप को जानें कि मैं कौन हूं, मेरा सामर्थ्य क्या है, मेरी योग्यता क्या है। इसके बाद ईश्वर क्या है, उसका सामर्थ्य क्या है, इसके विषय में जानें। इन तीन चीजों का अच्छी प्रकार से ज्ञान प्राप्त कर लेने पर व्यक्ति प्रकृति के बंधन से छूट सकता है और कोई उपाय नहीं है।
ईश्वर को जानने के लिए व्यक्ति को शास्त्र पढ़ने पड़ते हैं। वेद दर्शन उपनिषद् आदि-आदि शास्त्र हैं। उनको पढ़कर के अपने जीवन को पवित्र बनाना पड़ता है। अपने जीवन को उन आदर्शों के आधार पर चलाना पड़ता है। जो आदर्श जो मर्यादायें जो सिद्धान्त जो विधि-विधान ऋषियों ने वेदों के आधार पर हमारे लिए निर्धारित किये हैं उनके अनुरूप आचरण करना पड़ता है। इनसे विपरीत चलकर के कोई भी व्यक्ति इस बंधन से छूट नहीं सकता दुःखों से छूट नहीं सकता।

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

ईश्वर, जीव, प्रकृति को न जानने


 ईश्वर, जीव, प्रकृति को न जानने वाला भूलें करता है।

भूमिका- अपनी भूल, अपने ही हाथों सुधर जाये, यह अच्छा है, लेकिन इसके पहले भूल का कारण जानना जरूरी होता है, और वह है:-
आर्ष परम्परा के पोषक आचार्य श्री ज्ञानेश्वर जी 
अपनी दिनचर्या में, अपने जीवन में अनेकों प्रकार की त्रुटियाँ, भूलें, दोष दिन में हो जाते हें। न केवल स्थूल (शारीरिक) रूप से, न केवल वाचनिक रूप से बल्कि विचार के माध्यम से भी हमसे त्रुटियाँ होती हैं। जो व्यक्ति सतर्क-सावधान नहीं है, वह रोजाना सैकड़ों प्रकार की भूलें कर लेता है। वह कभी मन में द्वेष उत्पन्न करता है तो कभी राग उत्पन्न करता है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से राग, द्वेष और मोह उत्पन्न करना त्रुटि है, भूल है, दोष है। सतर्क और सावधान न होना, आलसी, प्रमादी, (लापरवाह) होकर के अपने कर्तव्यों को, दायित्वों को भूल जाना, अपने आत्मा को भूल जाना, ईश्वर के सत्य को भूल जाना, संसार के जड़त्व (निर्जीवता-अनात्मा स्वरूप) को भूल जाना, ये त्रुटि है। जो व्यक्ति ईश्वर, जीव और प्रकृति (सत्त्व, रज व तम और इनसे बने संसार) नामक तीन पदार्थों का ज्ञान सतत नहीं रखता है, वह हर समय त्रुटि करता है।
हमें हर समय यह पता होना चाहिए कि-‘‘मैं आत्मा हूँ, शरीर और संसार के पदार्थ जड़ हैं और ईश्वर इनको बनाने वाला है और सर्वव्यापक है।’’ जो व्यक्ति इन तीनों वस्तुओं का ज्ञान हर समय अपने मन, मस्तिष्क में नहीं रखता है, वह त्रुटि कर रहा है, हर पल कर रहा है। ऐसी त्रुटि केवल उससे होती है जो त्रैतवाद (ईश्वर, जीव प्रकृति) को ठीक प्रकार से नहीं समझ रहा है। पता होना चाहिए कि- ये मेरा शरीर जड़ है और मैं इसका संचालक आत्मा हूँ। मैं मन-इन्द्रियों का प्रयोग करने वाला चालक हूँ। इस शरीर को बनाने वाला, इसका संचालन करने वाला और कमरे कर्मों का फल देने वाला और इस शरीर का पालन करने वाला परमपिता परमात्मा है। वह मेरा ईश्वर, मेरे हृदय में बैठा हुआ मुझको अच्छे बुरे का ज्ञान कराता है।

इन तीनों तत्त्वों का ज्ञान जब व्यक्ति को सतत् बने रहता है, तब वह ज्ञानी और दोषरहित होता है। जब तीन प्रकार का ज्ञान उसको नहीं रहेगा तो सतत्, दिनभर अठारह घंटे, हर सेकेंड वह त्रुटि करेगा, भूल करेगा, दोष करेगा। इन तीन तत्त्वों के ज्ञान को जो व्यक्ति प्राप्त कर लेता है, वह व्यक्ति निरंतर उन्नति करता रहता है। इसमें कोई संशय नहीं है।

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

सफलता के पीछे ज्ञान है।


सफलता के पीछे ज्ञान है।

भूमिका- किसी ध्येय में सफलता पाने के लिए उस विषय का ज्ञाता होना जरूरी है। जो जितना अधिक जानकार है, वह उसमें अधिक सफल है। आचार्यवर सफलता का एक रहस्य ये बता रहे हैं कि-


ये सारी स्थितियाँ मानसिक हैं, और ये आध्यात्मिक मानसिक स्थितियाँ, हमारे ज्ञान विज्ञान के परिणाम हैं। ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त करके व्यक्ति उसके अनुरूप सतत चलता रहे तो यह मानसिक स्थिति बनी रहती है।

कौन सफल है ?

भूमिकाः- आध्यात्मिक सफलता यानी मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर चल रहे व्यक्तियों में क्या विशेषत होती है, आचार्यवर यह बताते हैं:-
वानप्रस्थ साधक आश्रम रोजड के व्यवस्थापक देश-विदेश में योग व
 यज्ञ का प्रशिक्षण प्रदान कर ऋषि संस्कृति को स्थापित करने में प्रयत्नशील महान साधक
 आचार्य ज्ञानेश्वर जी आर्य कि प्रवचनमाला से संकलन
 
 व्यक्ति को प्रायः यह अनुभव होता है कि मैं उन्नति कर रहा हूँ, प्रगति कर रहा हूँ, पवित्र होता जा रहा हूँ। अतः वास्तविक उन्नति और विकास क्या है, इसका लक्षण क्या है, यह भी हमें समझना चाहिए।

जो व्यक्ति अधिकतम प्रसन्न रहता है, सन्तुष्ट रहता है, गंभीर रहता है, स्वतन्त्र रहता है, किसी भी प्रकार का भय, चिंता या आशंका उसको नहीं रहती है, उसके मन में द्वेष, वितर्क, संशय उत्पन्न नहीं होते हैं, रजोगुण, तमोगुण की प्रवृत्ति मन में उत्पन्न नहीं होती है, सहनशक्ति, धैर्य, सरलता, विनम्रता, और सेवाभाव उसके मन में बना रहता है, सत्य को, धर्म को, आदर्श को, न्याय को व्यक्ति शिरोधार्य करके चलता रहता है, मन में ईश्वर के प्रति प्रेम बना रहता है, कठिनाईयाँ, बाधायें उपस्थित होने पर भी वह उन आदर्शों और धार्मिक कार्यों को छोड़ता नहीं है, ऐसा व्यक्ति ही उन्नति करता है और वही सफल कहलाता है।

लक्ष्य के प्रति अग्रसर होना, आगे बढ़ते रहना, लक्ष्य प्राप्ति की गति तीव्र करना, बाधाओं से बचना और समस्याओं का समाधान करना, एक सीमा तक व्यक्ति के अपने हाथ में है।

पहले व्यक्ति के जीवन के लक्ष्य का निर्धारण हो जाता है कि - ये मेरा लक्ष्य है। वह उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सर्वात्मना समर्पित होकर के चलता है तो सांसारकि प्रतिकूलतायें, सांसारिक बाधायें, सांसारिक विरोध, सांसारिक कठिनाईयाँ उसके सामने कुछ भी नहीं होती हैं। वह पूर्ण आत्मविश्वास के साथ ईश्वर से शक्ति, ज्ञान, बल और आनंद को प्राप्त करते हुए आगे बढ़ता रहता है। वह भी बिना भय, संशय, शंका, लज्जा उप्तन्न किये हुये।

अनेक बार देखने में आता है कि व्यक्ति दिन में इतना असावधान होता है, इतना तमोगुण, रजोगुण से युक्त रहता है, उसमें इतनी अधिक सकामता और स्वार्थ की वृत्ति रहती है, इतनी इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति होती है, उसके व्यवहारों में, विचारों में इतनी जड़ता रहती है कि ऐसे व्यक्ति को धार्मिक, परोपकारी, ईश्वरभक्त, आध्यात्मिक और योग मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति नहीं मान सकते।

आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति लौकिक वृत्तियों (व्यवहारों) से अत्यन्त विलक्षण (अलग तरह का) होता है। लौकिक व्यक्ति बाह्य चिन्हों के माध्यम से, बाह्य लक्षणों से, बाह्य क्रियाकलापों से कितना ही अपने आप को धार्मिक, आध्यात्मिक प्रकट करने का प्रयास करे, अन्दर से तो वो होता लौकिक ही है। सामान्य रूप से व्यक्ति के व्यक्तित्व का, उसमें मौजूद आध्यात्मिकता का पता नहीं चलता है। हां, जो व्यक्ति उसके निकट में रह रहा है, वह उसके हाव-भाव को, उसके विचारों को और क्रियाओं को ठीक प्रकार से सुनकर के, समझकर के, जानकर के कुछ थोड़ा पता लगा सकता है अन्यथा व्यक्ति की आध्यात्मिकता का, निष्कामता का, ऐषणारहित मनोस्थिति का, उसकी विवेकयुक्त स्थिति काया लौकिक प्रयोजन से रहित मनःस्थिति का सामान्य ज्ञान नहीं हो सकता। वह इसका पता लगा ही नहीं सकता। इतना होने पर भी यह निश्चित है कि दूसरे व्यक्ति हमारा निर्धारण करें या नहीं करें, किन्तु हम अपना निर्धारण जरूर कर सकते हैं कि हमारी क्या स्थिति है, हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं।
साभार:- श्री राधावल्लभ चोधरी

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

ओं शं नो मित्रः शं वरुणः

अथार्याभिविनयप्रारम्भः

प्रार्थना विषय

ओं शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्वर्य्यमा। 
शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरुरुक्रमः।।1।।
ऋ. अ.1। अ.6।व.18। मं.9।।

व्याख्यानः- हे सच्चिदानन्दानन्तस्वरूप, हे नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव, हे अद्वितीयानुपमजगदादिकारण, हे अज निराकार सर्वशक्तिमन्, न्यायकारिन्, हे जगदीश, सर्वजगदुत्पादकाधार, हे सनातन, सर्वमंगलमय, सर्वस्वामिन्, हे करुणाकरास्मत्पितः परमसहाय, हे सर्वानन्दप्रद, सकलदुःखविनाशक, हे अविद्यान्धकारनिर्मूलक, विद्यार्कप्रकाशक, हे परमैश्वर्यदायक, साम्राज्यप्रसारक, हे परमैश्वर्यदायक, साम्राज्यप्रकाशक, हे अधमोद्धारक, पतितपावन, मान्यप्रद, हे विश्वविनोदक, विनयविधिप्रद, हे विश्वासविलासक, हे निर×जन, नायक, शर्मद, नरेश, निर्विकार, हे सर्वान्तर्यामिन्, सदुपदेशक, मोक्षप्रद, हे सत्यगुणाकर, निर्मल, निरीह, निरामय, निरुपद्रव, दीनदयाकर, परमसुखदायक, हे दारिद्यªविनाशक, निर्वैरविधायक, सुनीतिवर्धक, हे प्रीतिसाधक, राज्यविधायक, शत्रुविनाशक, हे सर्वबलदायक, निर्बलपालक, हे सुधर्मसुप्रापक, हे अर्थसुसाधक, सुकामवर्द्धक, ज्ञानप्रद, हे सन्ततिपालक, धर्मसुशिक्षक, रोगविनाशक, हे पुरुषार्थप्रापक, दुर्गुणनाशक, सिद्धिप्रद, हे सज्जनसुखद, दुष्टताड़न, गर्वकुक्रोधकुलोभविदारक, हे परमेश, परेश, परमात्मन्, परब्रह्मन्, हे जगदानन्दक, परमेश्वर व्यापक सूक्ष्माच्छेद्य, हे अजरामृताभयनिर्बन्धनादे, हे अप्रतिमप्रभाव, निगुर्णातुल, विश्वाद्य, विश्ववन्द्य, विद्वद्विलासक, इत्याद्यनन्तविशेषणवाच्य, हे मंगलप्रदेश्वर ! आप सर्वथा सबके निश्चित मित्र हो, हमका सत्यसुखदायक सर्वदा हो, हे सर्वोत्कृष्ट, स्वीकरणीय, वरेश्वर ! आप वरुण अर्थात् सबसे परमात्तम हो, सो आप हम को परमसुखदायक हो, हे पक्षपातरहित, धर्म्मन्यायकारिन् ! आप आर्य्यमा (यमराज) हो इससे हमारे लिये न्याययुक्त सुख देनेवाले आप ही हो, हे परमैश्वर्य्यवन्, इन्द्रेश्वर ! आप हमको परमैर्श्वयुक्त शीघ्र स्थिर सुख दीजिये। हे महाविद्यावाचोधिपते, बृहस्पते, परमात्मन् ! हम लोगों को (बृहत्) सबसे बड़े सुख को देनेवाले आप ही हो, हे सर्वव्यापक, अनंत पराक्रमेश्वर विष्णो ! आप हमको अनंत सुख देओ, जो कुछ मांगेंगे सो आपसे ही हम लोग मांगेंगे, सब सुखों का देनेवला आपके विना काई नहीं है, सर्वथा हम लोगों को आपका ही आश्रय है। अन्य किसी का नहीं क्योंकि सर्वशक्तिमान् न्यायकारी दयामय सबसे बड़े पिता को छोड़ के नीच का आश्रय हम लोग कभी न करेंगे, आपका तो स्वभाव ही है कि अंगीकृत को कभी नहीं छोड़ते सो आप सदैव हमको सुख देंगे, यह हम लोगों को दृढ़ निश्चय है।।1।।


महर्षि स्वामी दयानंद जी द्वारा प्रणीत आर्याभिविनय से 

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

गोमाता

गोमाता 



प्राचीन काल से ही ऋषिमुनियों ने गाय को पूजनीय बताया है।... ऐसा क्यों? गाय में ऐसा क्या है? आइए जानते हैंरूगाय एकमात्र ऐसा प्राणी है जिसके मल मूत्र तक पवित्र हैं। गाय का दूध तो रोगों में उपयोगी है ही उसका मूत्र और गोबर भी अत्यंत उपयोगी है। जो हमारे स्वास्थ्य के लिए सर्वश्रेष्ठ है। गाय के मूत्र में पोटेशियम, सोडियम, नाइट्रोजन, फास्फेट, यूरिया, यूरिक एसिड होता है। दूध देते समय गाय के मूत्र में लेक्टोज की वृद्धि होती है। जो हृदय रोगों के लिए लाभकारी है। गाय का दूध फैट रहित परंतु शक्तिशाली होता है उसे पीने से मोटापा नहीं बढ़ता तथा स्त्रियों के प्रदर रोग आदि में लाभ होता है। गाय के गोबर के कंडे से धुआं करने पर कीटाणु, मच्छर आदि भाग जाते हैं तथा दुर्गंध का नाश होता है। गाय के समीप जाने से ही संक्रामक रोग कफ सर्दी, खांसी, जुकाम का नाश हो जाता है। गोमूत्र का एक पाव रोज सुबह खाली पेट सेवन करने से कैंसर जैसा रोग भी नष्ट हो जाता है।गाय एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो ऑक्सीजन ग्रहण करता है और ऑक्सीजन ही छोड़ता है

गोशाला हर्सोला 

करवा चोथ का व्रत वेद क्या कहता है


करवा चोथ का व्रत वेद क्या कहता है 



धर्म की जिज्ञासा वाले के लिए वेद ही परम प्रमाण है ,अतः हमें वेद में ही देखना चाहिए कि वेद का इस विषय में क्या आदेश है ? वेद का आदेश है—-
व्रतं कृणुत !  ( यजुर्वेद  ४-११ )
व्रत करो , व्रत रखो , व्रत का पालन करो
ऐसा वेद का स्पष्ट आदेश है ,परन्तु कैसे व्रत करें ? वेद का व्रत से क्या तात्पर्य है ? वेद अपने अर्थों को स्वयं प्रकट करता है..वेद में व्रत का अर्थ है—-
अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छ्केयं तन्मे राध्यतां इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि  !!   ( यजुर्वेद  १–५ )

हे व्रतों के पालक प्रभो ! मैं व्रत धारण करूँगा , मैं उसे पूरा कर सकूँ , आप मुझे ऐसी शक्ति प्रदान करें… मेरा व्रत है—-मैं असत्य को छोड़कर सत्य को ग्रहण करता रहूँ
इस मन्त्र से स्पष्ट है कि वेद के अनुसार किसी बुराई को छोड़कर भलाई को ग्रहण करने का नाम व्रत है..शरीर को सुखाने का , रात्रि के १२ बजे तक भूखे मरने का नाम व्रत नहीं है..चारों वेदों में एक भी ऐसा मन्त्र नहीं मिलेगा जिसमे ऐसा विधान हो कि एकादशी , पूर्णमासी या करवा चौथ आदि का व्रत रखना चाहिए और ऐसा करने से पति की आयु बढ़ जायेगी … हाँ , व्रतों के करने से आयु घटेगी ऐसा मनुस्मृति में लिखा है

पत्यौ जीवति तु या स्त्री उपवासव्रतं चरेत्  !
आयुष्यं बाधते भर्तुर्नरकं चैव गच्छति  !!
जो पति के जीवित रहते भूखा मरनेवाला व्रत करती है वह पति की आयु को कम करती है और मर कर नरक में जाती है …
अब देखें आचार्य चाणक्य क्या कहते है —

पत्युराज्ञां विना नारी उपोष्य व्रतचारिणी  !
आयुष्यं हरते भर्तुः सा नारी नरकं व्रजेत्  !!    ( चाणक्य नीति – १७–९ )

जो स्त्री पति की आज्ञा के बिना भूखों मरनेवाला व्रत रखती है , वह पति की आयु घटाती है और स्वयं महान कष्ट भोगती है …
अब कबीर के शब्द भी देखें —

राम नाम को छाडिके राखै करवा चौथि !
सो तो हवैगी सूकरी तिन्है राम सो कौथि !!
जो इश्वर के नाम को छोड़कर करवा चौथ का व्रत रखती है , वह मरकर सूकरी बनेगी
ज़रा विचार करें , एक तो व्रत करना और उसके परिणाम स्वरुप फिर दंड भोगना , यह कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? अतः इस तर्कशून्य , अशास्त्रीय , वेदविरुद्ध करवा चौथ की प्रथा का परित्याग कर सच्चे व्रतों को अपने जीवन में धारण करते हुए अपने जीवन को सफल बनाने का उद्योग करों

लेखन - अनिलदेव आर्य
भोपाल मध्यप्रदेश

सोमवार, 19 सितंबर 2011

त्रिशब्‍द अटूट सम्‍बन्‍ध


त्रिशब्‍द अटूट सम्‍बन्‍ध

अनादि तत्त्‍व = ईश्‍वर, जीव और प्रकृति।
प्राकृतिक मूल गुण = सत्‍व, रजस् और तमस्।
जगत के कारण = निमित्त, उपादान और साधारण।
"ओ३म्" के अक्षर = अ, ऊ  और म्।
वैदिक महाव्‍याहृतियाँ = भूः, भुवः और स्‍वः।
ईश्‍वर के गुण = सर्वव्‍यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान।
ईश्‍वर के कर्म = सृष्टिकर्त्ता, ज्ञानप्रदाता और कर्मफलदाता।
ईश्‍वर के स्‍वभाव = सत्‍य, चेतन और आनन्‍दस्‍वरूप।
जीवात्‍मा के गुण = एकदेशी, अल्‍पज्ञ और अल्‍पसामर्थ्‍यवान। (मनुष्‍य जाति)   
जीवात्‍मा के कर्म = भोग, योग और मोक्षप्राप्ति का प्रयत्‍न। (मनुष्‍य जाति)     
जीवात्‍मा के स्‍वभाव = सत्‍य, चेतन और कर्मशील। (मनुष्‍य जाति)    
प्रभु मिलन के साधन = ज्ञान, कर्म और उपासना।
जीवन के परम-सत्‍य = जन्‍म, जीवन और मृत्‍यु।
साधना के साधन = ज्ञान, भक्ति और वैराग्‍य।
सफलता के शत्रु = स्‍वार्थ, आलस्‍य और अहंकार।
कर्म के साधन = मन, वचन और कर्म।
कर्म के भेद = शुभ, मिश्रित और अशुभ।
कर्म के रूप = अकाम, सकाम और निष्‍काम।
कर्मफल की प्राप्ति = जाति, आयु और भोग।
कर्मफल के प्रकार = फल, प्रभाव और परिणाम।
त्रिविध दुःख = आध्‍यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक।
वस्‍तु के रूप = स्‍थूल, सूक्ष्‍म और सूक्ष्‍मतम।
तीन शरीर = स्‍थूल, सूक्ष्‍म और कारण।
तीन अवस्‍थाएँ = जागृत, स्‍वप्‍न, सुषुप्ति।
काल की स्थिति = भूत, वर्तमान और भविष्‍य।
जीवन की स्थितियाँ = बचपन, यौवन और बुढापा।
लोक परिस्थियाँ = स्‍वर्ग, नरक और वैराग्‍य।
लड़ाई-झगड़े के कारण = धन, स्‍त्री और भूमि।
वाद-विवाद के कारण = अज्ञानता, अहंकार और निर्बलता। 
तीन लिंग = स्‍त्रीलिंग, पुर्लिंग और नपुंसकलिंग।
मानव व्‍यवहार = आत्‍मवत्, सदाचार और मधुर=भाषण।
मानव कर्तव्‍य = सेवा, सत्‍संग और स्‍वाध्‍याय।
आर्य की परिभाषा = धर्माचारी, सेवाधारी और निर्हंकारी।
मनुष्‍य की पहचान = संस्‍कार, संस्‍कृति और मानवता।
आर्य की पहचान = धर्म, कर्म और आचरण।
मित्र की पहचान = आत्‍मवत् व्‍यवहारी, विघ्‍न निवारक और निःस्‍वार्थी।
शत्रु की पहचान = अत्‍यन्‍त मधुरभाषी, अवसरवादी और अत्‍यन्‍त स्‍वार्थी। 
गुरु की पहचान = मार्गदर्शक, धार्मिक और निःस्‍वार्थी।
संन्‍यासी की पहचान = प्राणायाम, प्रवचन और परोपकार।
धार्मिक की पहचान = धर्मनिष्‍ट, परोपकारी और सर्वहितैषी।  
मनुष्‍य का गुरु = ईश्‍वर, वेद और धर्मनिष्‍ठ माता=पिता=आचार्य।
स्‍वस्‍थ जीवन रहस्‍य = शुद्धाहार, शुद्धविहार और शुद्धव्‍यवहार।
घर का अर्थ = माता, पिता और संतान।
परिवार की परिभाषा = माता=पिता, पुत्र=पुत्रवधु और संस्‍कारी संतानें।
मूर्तिमान देवता = पितर (जीवित माता, पिता), गुरु (शिक्षक, आचार्य एवं आध्‍यात्मिक मार्गदर्शक तथा पति के लिये धर्मपत्‍नी एवं पत्‍नी के लिये पति) और अतिथिगण।
यज्ञ की परिभाषा = देव-पूजा, संगति-करण और दान।
यज्ञ की भावना = त्‍याग, परोपकार, और सेवा।
यज्ञ की सार्थकता = शुद्धता, समर्पण और वैदिक-विधि।
स्‍वाध्‍याय सामग्री = वेद, आप्‍त-पुरुष व्‍यवहार और स्‍व-अध्‍याय।
स्‍वाध्‍याय प्रक्रिया = पठन-पाठन, श्रवण-प्रवचन और सदाचरण।
सत्‍संग के पात्र = सदाचारी, धर्माचारी और धार्मिक विद्वान।
जप की विधि = नाम-स्‍मरण, अर्थ-चिन्‍तन और आचरण।
धर्म की विधि = सत्‍य, अहिन्‍सा और प्रेम।
श्राद्ध की विधि = सत्‍याचरण, पितर-सम्‍मान और समर्पण।
प्रेम की विधि = त्‍याग, समर्पण और निरभिमानता।
पूजा की विधि = सदुपयोग, मन-वचन-कर्म से सेवा और आज्ञा-पालन।
ध्‍यान की विधि = मौनावस्‍था, अर्थसहित प्रभु-नाम स्‍मरण और निरन्‍तराभ्‍यास।
समाधि की विधि = निर्विषयं मनः, निर्विषयं मनः और निर्विषयं मनः।
योग की उपलब्धि = प्रेम, समानता और आनन्‍द।
मदन जी रहेजा 

रविवार, 4 सितंबर 2011

ऐश्वर्य में रमने वाला मन

आचार्य सत्यजित जी आर्य
प्रभु-कृपा से हमें मन नामक एक अन्त:करण मिला है। प्रभु ने इस मन को ऐश्वर्यप्रिय बनाया है। इसलिए हर व्यक्ति ऐश्वर्य को पाना चाहता है। हर व्यक्ति ऐश्वर्य को देखकर या प्राप्तकर प्रसन्न होता है। ऐश्वर्य रहित स्थिति में प्रसन्नता नहीं रहती, ऐश्वर्य के कम होने पर प्रसन्नता कम हो जाती है। प्रभु ने सकल ऐश्वर्य प्रदान किये हैं। उसने ऐश्वर्यों को चाहने वाले ‘मन’ को भी दिया है।
संसार में अनेकविध ऐश्वर्य हैं। धन-सम्पत्ति, सुन्दर-शरीर, मधुर-वाणी, रंग-रूप, तीक्ष्ण व स्वच्छ बुद्धि, ज्ञान, वृक्ष-वनस्पति, नदी-पर्वत, पशु-पक्षी आदि बहुविध ऐश्वर्य संसार में बहुतायत से बिखरा पड़ा है। व्यक्ति इनकी ओर बार-बार आकर्षित होता रहता है। एक ऐश्वर्य से मन भर गया है तो दूसरे ऐश्वर्य को पाने में लग जाता है। थोड़ा ऐश्वर्य प्राप्त करने के बाद जब उससे भी मन भर जाता है तो व्यक्ति अधिक ऐश्वर्य की प्राप्ति में लग पड़ता है।
ऐश्वर्य की इच्छा को, अधिकाधिक ऐश्वर्य की इच्छा को आध्यात्मिक-क्षेत्रा में हीन दृष्टि से देखा जाता है। वस्तुत: ऐश्वर्य की चाह तो सब में होती है, भौतिकवादी सांसारिक व्यक्ति में भी और आध्यात्मिक व्यक्ति में भी। ऐश्वर्य की कामना प्रगति के लिए आवश्यक है, प्रगति चाहे भौतिक हो या आध्यात्मिक। भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त करके, उसका अनुभव लेकर व्यक्ति उससे जब वितृष्ण हो जाता है, भौतिक ऐश्वर्य की चाह-ललक से ऊपर उठ जाता है, तो इसे ही ‘वैराग्य’ कहते हैं। किन्तु इस वैराग्य का कारण भी ऐश्वर्य की कामना ही है। जिस भौतिक बाह्य ऐश्वर्य को चाहा था वह पुरुषार्थ कर पा भी लिया था, उससे पूर्ण तृप्ति को पाना असंभव ज्ञात होने पर व्यक्ति आध्यात्मिक- आन्तरिक ऐश्वर्य को पाना चाहता है। आध्यात्मिक आन्तरिक ऐश्वर्य अधिक प्रसन्नता देता है, अधिक देर तक रहता है। आध्यात्मिक ऐश्वर्य की प्रसन्नता की विशेषता यह होती है कि वह प्रसन्नता व्यग्रता से रहित, बहुत शांत-गंभीर होती है।
भौतिक बाह्य-ऐश्वर्य इसलिए हीन व हेय है क्योंकि आध्यात्मिक-आन्तरिक ऐश्वर्य उससे बड़ा व अधिक होने से श्रेष्ठ व उपादेय होता है। आध्यात्मिक व्यक्ति का मन भी ऐश्वर्य-प्रिय होता है। प्रारंभिक आध्यात्मिक व्यक्ति को पर्वत, वन, नदियां, झरने, घाटियां, पर्वतशिखर आदि प्राकृतिक ऐश्वर्य बहुत आकर्षित करते हैं। इन्हें पाकर वह प्रसन्न होता है व अधिक एकाग्र होकर आध्यात्मिक आन्तरिक एकाग्रता-सुख-शान्ति -सन्तोष को और अधिक ऊँचे स्तर पर पाता रहता है।
इन सब ऐश्वर्यों का भी ऐश्वर्य एक और ऐश्वर्य है। वह है परमपिता परमात्मा का ऐश्वर्य। उच्च स्तर का साधक-योगाभ्यासी-योगी वही बन पाता है जिसे परमात्मा का ऐश्वर्य आकर्षित करने लगता है। उसे सांसारिक बाह्य ऐश्वर्य व आन्तरिक आध्यात्मिक एकाग्रता-शान्ति-संतोष आदि ऐश्वर्य भी फीके लगने लगते हैं। वह इन अन्य ऐश्वर्यों का आवश्यक उपयोग तो करता है, पर उसे वे अंतिम-ऐश्वर्य की तरह नहीं लगते हैं। ऐश्वर्य में रमने वाला मन परमात्मा के ऐश्वर्य में ऐसा रमता है कि उसके अन्य राग समाप्त हो जाते हैं, वह वैराग्य को प्राप्त हो जाता है। वेद (श्रव्य-काव्य) और प्रकृति (संसार, दृश्य-काव्य) में बुद्धिपूर्वक प्रवेश करने वाले को वहां ईश्वर के नित्य-नये ऐश्वर्य का बोध होता रहता है, वह ईश्वर में ही रम जाता है, ईश्वर के ऐश्वर्य में ही रमा रहता है। उसे भौतिक प्राकृतिक ऐश्वर्य लुभा नहीं पाते, वह इनसे विरत हो जाता है।
प्रभु-कृपा से मिले ऐश्वर्य-प्रिय मन की पूर्ण सफलता यही है कि वह चरम-ऐश्वर्य को चाहने लगे। यदि व्यक्ति अपने मन की ऐश्वर्य-प्रियता का समझदारी से उपयोग करे, तो ईश्वर-साक्षात्कार तक पहुँच सकता, अपने जीवन को चरितार्थ कर सकता है, कृतकृत्य हो सकता है। अपने मन को परमात्मा के ऐश्वर्य की ओर मोड़ देने पर सभी आध्यात्मिक उपलब्धियां सहज मिलती जाती हैं। प्रभु-कृपा से प्राप्त ऐश्वर्य-प्रिय मन का यही सर्वोत्कृष्ट उपयोग है।

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

ऐश्वर्य - जिसे पाने के लिए यह जन्म मिला



ऋषितुल्य आचार्य सत्यजित जी का लेख  

आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...........
ऐश्वर्य-जिसे पाने के लिए यह जन्म मिला

 प्रभु कृपा से मिले इस जन्म को पाकर हम अनेक सुख व सुख के साधनों को उपलब्ध हो सकते हैं। हमारे पुरुषार्थ की न्यूनाधिकता इसमें न्यूनाधिकता का कारण बनती है, अन्यों का सहयोग व विरोध भी कारण बनता है। पुरुषार्थ की न्यूनाधिकता का मुख्य कारण हमारी इच्छा की न्यूनाधिकता का होना है। किसी विषय में इच्छा की न्यूनाधिकता का होना उस विषय से होने वाले हानि-लाभ सम्बन्धी हमारे ज्ञान पर निर्भर करता है। जिस साधन अर्थात~ ऐश्वर्य के बारे में हमारा ज्ञान यह हो कि यह अधिक लाभकर है, हम उसे पाने की इच्छा कर ही लेते हैं व पुरुषार्थ भी उसे पाने का करने लग जाते हैं। पुरुषार्थ के अनुरूप उस ऐश्वर्य को न्यूनाधिक पा भी लेते हैं।
 कुछ ऐश्वर्य ऐसे हैं जिन्हें हम अल्प मात्रा में ही उपलब्ध कर पाते हैं। उन ऐश्वर्यों को अधिक मात्रा में पाना हमारे सामथ्र्य से बाहर होता है, यथा धन, सम्पत्ति, ज्ञान, बल आदि। कुछ ऐश्वर्य सर्वोच्चता पर निर्भर करते हैं - सबसे बड़ा ज्ञानी, धनी, बली आदि। इसे तो सब प्राप्त ही नहीं कर सकते। ऐसी सर्वोच्चता को तो एक समय में एक ही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। कितना भी यत्न करें सब ऐसे सर्वाच्च शिखर पर नहीं पहुँच सकते। ये सब बाह्य ऐश्वर्य हैं।
 इन अनेक ऐश्वर्यों से भिन्न भी अनेक ऐश्वर्य हैं जो हम सब पा सकते हैं। प्रभु-कृपा से हम सब मनुष्यों में यह सामथ्र्य है कि उन आन्तरिक ऐश्वर्यों को न केवल पा सकते हैं बल्कि उन आन्तरिक ऐश्वर्यों के चरम तक भी पहुँच सकते हैं। वह ऐश्वर्य है आध्यात्मिक शान्ति-सन्तोष का, वह ऐश्वर्य है ईश्वर की निकटता का, वह ऐश्वर्य है निर्भयता का, वह ऐश्वर्य है शोकरहितता का, वह ऐश्वर्य है ईश्वर के आनन्द का।
 बाह्य ऐश्वर्य कम हों या अधिक, दोनों ही स्थितियों में प्रभु ने हमारे में यह सामर्थ्य दी है कि हम आन्तरिक ऐश्वर्यों को पा सकते हैं। आन्तरिक ऐश्वर्यों की प्राप्ति सब कर सकते हैं। आन्तरिक ऐश्वर्य की न्यूनता का यहां प्रश्न नहीं रहता। बाह्य ऐश्वर्य तो सीमित होने से सब को इच्छानुसार पूरे-पूरे नहीं मिल सकते। हम सब एक साथ चक्रवर्ती सम्राट नहीं बन सकते, वह तो एक समय में एक ही व्यक्ति बन सकता है। आन्तरिक ऐश्वर्य के सम्राट हम सब बन सकते हैं। एक का आन्तरिक ऐश्वर्य दूसरे के आन्तरिक ऐश्वर्य में बाधक नहीं बनता, नहीं बन सकता। एक का बाह्य ऐश्वर्य दूसरे के बाह्य ऐश्वर्य में बाधक बन सकता है, बनता है।
  इन अनुपम अद्वितीय आन्तरिक ऐश्वर्यों की प्राप्ति के लिये आन्तरिक साधना ही मुख्य उपाय है। प्रभु-कृपा से हम आन्तरिक-साधना, मन की शुद्धि, मन की एकाग्रता, विवेक, वैराग्य आदि को प्राप्त करने का पुरुषार्थ आरंभ कर दें या जितना पुरुषार्थ कर रहे हैं उसे बढ़ा दें तो हमारे पुरुषार्थ के साथ ईश्वर की कृपा भी जुड़ जायेगी व दोनों के मिलने से तदनुरूप हमारे में आन्तरिक ऐश्वर्य की वृद्धि होने लग जायेगी। प्रभु हम पर कृपा करने को उद्यत हैं, हमें पुरुषार्थ हेतु उद्यत होना है, पुरुषार्थ करना है।

आचार्य सत्यजित~
ऋषि उद्यान, अजमेर

बुधवार, 29 जून 2011

महर्षि मन्तव्य

     
   मैं अपना मन्तव्य उसी को जानता हूँ  की जो तीन काल में एकसा सबके सामने मानने योग्य है. मेरा कोई नवीन कल्पना वा मतमतान्तर चलाने का लेशमात्र भी अभिप्राय नहीं है किन्तु जो सत्य है उसको मानना, मनवाना और जो असत्य है उसको छोड़ना और छुड़वाना मुझको अभीष्ट है. यदि मैं पक्षपात करता तो आर्यावर्त में प्रचलित मतों में से किसी एक मत का आग्रही होता किन्तु जो-जो आर्यावर्त वा इन देशों में अधर्मयुक्त चाल-चलन है उसका स्वीकार और जो धर्मयुक्त बातें हैं उनका त्याग नहीं करता, न करना चाहता हूँ क्योंकि ऐसा करना मनुष्य धर्म से बहिः है.
-महर्षि दयानन्द

यज्ञ का अनुष्ठान


01. जब उत्तम-उत्तम उपदेशक होते हैं तब अच्छे प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सिध्द होते हैं / और जब उत्तम उपदेशक और श्रोता नहीं रहते तब अंध परम्परा चलती है / फिर भी जब सत्पुरुष होकर सत्योपदेश होता है. तभी अंध परम्परा नष्ट होकर प्रकाश की परम्परा चलती है .

02. मनुष्य लोग अपनी विद्या और उत्तम क्रिया से जिस यज्ञ का सेवन करते हैं उससे पवित्रता का प्रकाश, पृथिवी का राज्य, वायुरूपी प्राण के तुल्य राजनीति, प्रताप, सब की रक्षा, इस लोक और परलोक में सुख की वृध्दि, परस्पर कोमलता से वर्तना ओए कुटिलता का त्याग इत्यादि श्रेष्ठ गुण उत्पन्न होते हैं इसलिए सब मनुष्यों को परोपकार तथा अपने सुख के लिए विद्या और पुरुषार्थ के साथ प्रीतिपूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान नित्य करना चाहिए.
सत्यार्थ प्रकाश 

सोमवार, 27 जून 2011

सुखों कि खान

        सब लोगों को चाहिए की अच्छे-अच्छे कामों से प्रजा की रक्षा तथा उत्तम-उत्तम गुणों से पुत्रादि की शिक्षा सदैव करें कि जिससे प्रबल रोग विघ्न और चोरों का अभाव होकर प्रजा और पुत्रादि सब सुखों को प्राप्त हों यही श्रेष्ठ काम सब सुखों कि खान है /
         हे मनुष्य लोगो ! आओ अपने मिल के जिसने इस संसार में आश्चर्यरूप पदार्थ रचे हैं उस जगदीश्वर के लिए सदैव धन्यवाद देवें. वही परम कृपालु ईश्वर अपनी कृपा से उक्त कामों को करते हुए मनुष्यों कि सदैव रक्षा करता है.
महर्षि दयानंद सरस्वती