सोमवार, 3 सितंबर 2012

मनमानी कब तक ?


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण..............

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर

प्रभुकृपा से हमें जानने के लिए ज्ञानेन्द्रियां व बुद्धि मिले हैं। इच्छा करने के लिए मन मिला है। बुद्धि व मन में सम्बन्ध रहता है। बुद्धि स्थित ज्ञान के अनुसार ही आत्मा इच्छा करता है व तदनुसार मन विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्दियों को प्रेरित करता है। कोई भी इच्छा या कर्म हम अपनी समझ से अपने हित के लिए ही करते हैं। अपने ज्ञान व अपनी समझ के अनुसार हम अपना हितचिंतन करते रहते हैं व तदनुसार कर्म भी। यही हमारी स्वतन्त्रता है, यह स्वतन्त्रता प्रभु का वरदान है। इस स्वतन्त्रता व वरदान का सदुपयोग भी हो सकता है व दुरुपयोग भी।

प्रभुकृपा से मिली ज्ञानेन्द्रियां प्राथमिक ज्ञान कराती रहती हैं। इनसे सुख-दुःख का भी ज्ञान होता रहता है। अनुकूल संवेदना को हम सुख के रूप में देखते हैं व प्रतिकूल संवेदना को दुःख के रूप में देखते हैं। हम सुख को पाना चाहते हैं, पुनः-पुनः पाना चाहते हैं, दुःख को पूर्णतः हटा देना चाहते हैं, दुःख को कभी नहीं पाना चाहते हैं। हम सुख के साधनों में दुःख के समान अप्रीति रखते हैं। यह हमारी इच्छाओं का प्राथमिक आधार है।

प्रभुकृपा इससे अधिक भी है। प्राथमिक ज्ञान तात्कालिक रूप से उत्पन्न सुख-दुःख पर आधारित रहता है। वह तात्कालिक सुख-दुःख में ही हित-अहित का निश्चय करता है। पर तात्कालिक सुख बाद में दुःख का कारण भी बन सकता है और तात्कालिक दुःख बाद में सुख का कारण भी बन सकता है। यहां दूर के परिणाम को सोचकर हित-अहित का निर्णय किया जाना आवश्यक है, वही वास्तविक ज्ञान है, वही उचित निर्णय है, उसी में सच्चा हित है। प्रभु कृपा से इसके लिए हमें बुद्धि मिली है, स्मृति मिली है। पूर्व अनुभूत सुख-दुःख व उसके परिणामों का परस्पर सम्बन्ध व विश्लेषण हम कर सकते हैं।

प्रभुकृपा से यह सब विश्लेषण करने की सामर्थ्य हमारे में है, किन्तु हम पूरी तरह इसका प्रयोग नहीं करते, सदा इसका प्रयोग नहीं करते। इसके अभाव में हम तात्कालिक सुख-दुःख/ हित-अहित तक सीमित रहते हुए अपने निर्णय करते जाते हैं, जीवन को उसी प्रकार बिताते जाते हैं। इसी में हम अपनी संतुष्टि मान लेते हैं। यह मनमानी है। दूरगामी परिणाम देखकर तदनुसार कर्म करना प्रारम्भ में कठिन लगता है, अतः उसे करने में हमारी अरुचि/अप्रीति रहती है। प्राथमिक ज्ञान के आधार पर जीवन चलाते जाना तो पशु-पक्षीवत् ही जीवन जी रहे होते हैं। मानवोचित जीवन तो दूरगामी परिणाम देखकर कर्म करने में ही सम्भव है।

प्रभुकृपा से जो मानव दूरगामी परिणाम देखकर निर्णय लेते हैं, वे जीवन में अधिक कुशल-सफल-सुखी-संतुष्ट रहते हैं। पर यहां भी इतने मात्र से संतुष्ट हो जाना अपने को परिपूर्णता से वंचित कर देना है। दूरगामी परिणाम को देखकर कर्म करने वालों के निर्णयों में भी विभिन्नताएं देखी जाती हैं, ऊंच-नीच देखी जाती है। कारण है, दूरगामी दृष्टि व विश्लेषण की सामर्थ्य में न्यूनाधिकता होना।

जीवन को हम भी देख-समझ रहे हैं। जीवन को अन्य भी देख-समझ रहे हैं। जीवन को पूर्वजों ने भी देखा-समझा था। जीवन को ईश्वर भी समझता है। ऋषियों ने जीवन को देख-समझकर जो निर्णय दिए, उनसे हमारे निर्णय भिन्न भी होते हैं। ऋषि लोग उच्च सात्विक प्रतिभा युक्त होते हैं, निश्चय ही उनके निर्णयों से भिन्न निर्णय आने की स्थिति में रुककर पुनर्विचार करना आवश्यक है। हम क्यों न अन्यों के अनुभवों-निर्णयों का भी लाभ उठायें ? कम से कम विचारें तो सही। आखिर उनके व हमारे निर्णयों में भेद का कारण क्या है ? बिना ऋषि मुनियों से तुलना के चलने वाला जीवन मनमाना जीवन बन जाता है।

प्रभु ने कृपा करके वेदों में जीवन जीने की दृष्टि प्रदान कर दी है। ऋषियों के निर्णयों में आंशिक त्रुटि की संभावना भले ही रहे, पर सर्वज्ञ प्रभु के निर्णय तो असंदिग्ध हैं, त्रुटि की संभावना से परे है। क्या हमारे निर्णय वेद के निर्णयों से मेल खाते हैं ? मेल न बैठने पर क्या हम उस पर गंभीरता से विचार करते हैं ? यदि हम ऐसा नहीं करते, तो भले ही कितना भी दूर तक विचार करें, विश्लेषण करें, तो भी निर्णयों में पर्याप्त त्रुटि संभव है। ऐसे में अपने ही निर्णयों पर चलते चले जाना मनमानी करना है।

मनमानी का परिणाम हमारी इच्छानुसार हो, यह आवश्यक नहीं। परिणाम तो व्यवस्थानुसार ही आना है। हमें जो परिणाम चाहिए, प्रत्येक आत्मा को जो परिणाम चाहिए उसके लिए ही तो ऋषियों ने व ईश्वर ने अपने निर्णय हमारे सामने रख दिये हैं। मनमाना चलने में इच्छानुसार परिणाम आना संदिग्ध है। वेदों-ऋषियों के अनुसार चलने में इच्छानुसार परिणाम आना निश्चित है। हम मनमानी करना चाहते हैं या मनमाना परिणाम चाहते हैं ? मनमानी करने से मनमाना परिणाम नहीं आता, उचित रीति से करने से मनमाना परिणाम आता है। निर्णय हमें करना है, हमें मनमानी करना प्रिय हो या मनमाने परिणाम प्राप्त करना प्रिय हो? मनमाने परिणाम प्राप्त करने हैं तो मनमानी करना छोड़ना होगा। मनमानी करते हुए हम मनमाने परिणाम से कब तक दूर रहना चाहते हैं ? कब तक मनमानी करेंगे ? कब तक मनमाने परिणाम से दूर रहेंगे ? मनमानी कब तक ?