बुधवार, 24 सितंबर 2014

विश्व-शान्ति दिवस और हम

नन्द किशोर आर्य
गुरुकुल कुरुक्षेत्र
हरियाणा

‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ सम्पूर्ण विश्व एक परिवार है, संस्कृत के इस सारस्वत कथन में मनुष्य ही नहीं अपितु सभी प्राणियों के प्रति बन्धुभाव प्रकट होता है। सृष्टि का कण-कण अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रतिक्षण कार्य में संलग्न है। ईश्वर की इस विराट संरचना में कुछ भी तो ऐसा नहीं है जो व्यर्थ हो। इन सब अद्भुत रचनाओं में विश्व की सभी आत्माओं को स्वतन्त्रता पूर्वक कार्य करने के लिए परमात्मा की ओर से प्राप्त अनुपम भेंट मानव के शरीर का मिलना है। मानव से भिन्न प्रत्येक प्राणी ईश्वर प्रदत्त स्वभाव के अनुकूल ही अपने-अपने कार्य में संलग्न हैं। इस सारी कायनात का बुद्धिपूर्वक यदि कोई सीधा-सीधा लाभ लेता है तो वह केवल और केवल मनुष्य ही है। विज्ञान के अधुनातन विकास से पूर्व तक मनुष्य अपने जीवन जीने के साधनों को प्राप्त करने में लगा रहा। आवश्यकताओं के अनुकूल होते गए आविष्कारों ने जहाँ मानव को सुख, समृद्धि एवं शान्ति प्रदान की वहीं बेतहाशा बढ़ती लालसा के कारण मानव ने अपने सहित पृथ्वी, आकाश, सागरों, नदियों, वनों एवं सम्पूर्ण प्रकृति मात्र को अशान्ति की ओर धकेल दिया है। स्वार्थ की पशुवृत्ति ने मानव को इतना निर्दयी बना डाला कि वह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने से उत्पन्न पीड़ा तक को अनुभूत नहीं कर पा रहा है।

प्रतिवर्ष विश्वभर में विश्व शान्ति दिवस अथवा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति दिवस 21 सितम्बर के दिन पूरी पृथ्वी पर अहिंसा को कायम रखने के लिए एवं शान्ति का सन्देश देने के लिये मनाया जाता है। यह दिवस सभी देशों और लोगों के बीच स्वतन्त्रता, शान्ति और प्रसन्नता का एक आदर्श माना जाता है। वर्ष 1982 से प्रारम्भ होकर 2001 तक सितम्बर मास के तीसरे मंगलवार को विश्व शान्ति दिवस के रूप में मनाया जाता रहा, लेकिन वर्ष 2002 से इसके लिए 21 सितम्बर का दिन निश्चित कर दिया गया, तब से यह दिवस इसी तिथि को मनाया जाता है।

प्रारम्भिक काल में व्यक्ति अपनी मूल आवश्यकताओं तक सीमित रहकर उपलब्ध संसाधनों से अपना काम चलाता रहा। समय बीतने के साथ ही मानव में संग्रह की प्रवृत्ति प्रबल होने लगी। संग्रह की गई वस्तुओं के संवर्धन एवं संरक्षण के साथ ही शान्ति की अथाह गहराई से उठकर उसने स्वयं ही अशान्ति का चोला ओढ़ना प्रारम्भ कर दिया। क्षणिक सुख की चाह में वस्तुओं का निरन्तर संग्रह करने से यह लबादा दिन-प्रतिदिन दृढ़ होता गया। सीमित आयु में असीमित पाने की इच्छा ही व्यक्ति को अशान्ति के गहरे गर्त में धकेल देती है। जो तेरा है वह तेरा ही है जो मेरा है वह भी तेरा है यह दैवीय भाव हैं, जो तेरा है वह तेरा है और जो मेरा है वह मेरा है यह मानवी भाव है, जो मेरा है वह मेरा ही है लेकिन जो तेरा है वह भी मेरा ही है यह आसुरी विचार मनुष्य के सुख-चैन को समाप्त कर घोर नरक की ओर ले जाने वाला है। जीओ और जीने दो की देव संस्कृति को छोड़ आसुरी कुसंस्कृति की ओर झुकना ही अशान्ति के प्रथम द्वार को खोलना है। अशान्ति व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से देश एवं देश से सम्पूर्ण वसुधा में प्रसृत होती गई। 

लगभग सभी देश इस समय जन-धन की अपार हानि से प्रतिदिन जूझ रहे हैं। इस वैश्विक हानि की समस्या का प्रमुख कारण मात्र आतंकवाद ही है। आतंकवाद विकृत, सड़ी-गली एवं उन्मादी मानसिकता से उत्पन्न मानवता के प्रति किया गया घृणित अपराध है। अकारण स्वयं ही किसी को भी अपराधी मानकर परमात्मा की इस सुन्दरतम रचना का विनाश करना कितना अधम व अक्षम्य अपराध है, इसकी कल्पना मात्र से ही शरीर के रोंगटे खडे़ हो जाते हैं। निरपराध एवं अबोध छोटे बालकों, प्राणों की भीख माँगती महिलाओं, असहाय व चलने में अक्षम वृद्धों व निःशस्त्र युवाओं पर घात लगाकर अथवा प्रत्यक्ष रूप से मौत के घाट उतार देना आतंकियों की पतित मानसिकता का परिचय देने के लिये पर्याप्त है। आह! इनकी नीचता की पराकाष्ठा तो तब देखने को मिलती है, जब वे कोमलमति लघुवय बालक-बालिकाओं के करुण-क्रन्दन को अनसुना कर, उनके हृदय व मस्तिष्क को चीरकर, अपना निवाला बनाकर, क्रूर पशुओं को भी लजा देते हैं। मानवता के इन घृणित अपराधियों की इस बिलबिलाहट के कारण सम्पूर्ण मानवजाति पर समाप्ति का खतरा मंड़रा रहा है।

दिलों में जिनके लगती है, वो आँखों से नहीं रोते।
जो अपनों के नहीं होते, किसी के भी नहीं होते।
समझते जो पराया दर्द, अपने दर्द से ज्यादा।
किसी के रास्ते में वो, कभी काँटे नहीं बोते।।

एक समुदाय दूसरे समुदाय को निगल जाना चाहता है, एक असभ्यता दूसरी सभ्यता को नष्ट करने पर उतारु है, एक जाति दूसरी जाति को समूल नष्ट कर देना चाहती है एक शक्तिशाली देश दूसरे दुर्बल राष्ट्र के संसाधनों को हड़प जाना चाहता है। समुदायों, सभ्यताओं जातियों एवं देशों को नष्ट कर देने वाली ये ताकतें मानवमात्र को शान्ति से जीने का अधिकार नहीं दे सकती ? नस्लभेद, अस्पृश्यता, जातिभेद, आर्थिक असमानता ऐसे विषबुझे तीर हैं जो मानवता को लम्बे समय से निरन्तर मर्माहत कर रहे हैं। इक्कीसवीं सदी के विकसित समाज में भी बहुत से लोग पाषाण युग के पाशविक काल में जीना पसन्द करते हैं। हम शान्ति लाने का प्रयास तो करें। अहिंसा परमो धर्म भारत का मूलमन्त्र रहा है। शान्तिप्रियता इस देश की अकूत सम्पदा सदा से रही है। यदि किसी क्रूर व आततायी शासक को शान्ति की राह में कभी रोड़ा भी समझा तो उसे ऐसे ही समाप्त नहीं कर दिया अपितु उसे सही राह पर आने के अवसर प्रदान किये गये। हमारे इतिहास में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने रावण को युद्ध से पूर्व शान्ति-सन्देश भेजा, योगिराज श्रीकृष्णचन्द्र महाभारत के युद्ध से पूर्व स्वयं शान्तिदूत बन कौरवों के पास गए। महात्मा चाणक्य ने घनानन्द से सीमाओं पर शान्ति रहे ऐसी ही प्रार्थना तो की थी। भयंकर परिणामों वाले हिंसा के मार्ग को कभी-कभी क्रूर व्यक्तियों को सबक सिखाने के लिए अपनाना पड़ता है। कभी-कभी हिंसा के गर्त से निकलकर सम्राट अशोक जैसे अहिंसक बन व्यक्तित्व महात्मा बुद्ध के अहिंसा के सदुपदेश को मानवमात्र तक पहुँचने का सफल प्रयास करते हैं।

परस्पर मैत्रीभाव शान्ति की जड़ों को गहराई तक ले जाता है। मित्रस्य चक्षुषा वयं सर्वाणि भूतानि समीक्षामहे अर्थात् हम सब एक दूसरे को मित्र की दृष्टि से देखें, यजुर्वेद का यह पावन मन्त्र शान्ति का पवित्र उद्घोष करता प्रतीत होता है। मनुर्भव जनया देव्यं जनम् हम सही मायनों में मनुष्य बन अपनी आने वाली पीढि़यों को भी मनुष्य बनने का उपदेश करें। आज भी असमानता का नर्तन समाज में देखने को मिल जाता है। समानता के साथ समरसता होने पर ही मानव, मानव बन सकता है लेकिन समरसता केवल समभाव से नहीं अपितु ममभाव से आती है, जब हम समता की बात करें तो वहाँ ममता को भी उच्चपद प्रदान करने की आवश्यकता रहती है। अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्। यह मेरा है यह तुम्हारा है यह तुच्छबुद्धि की बातें हैं, उदारचेता व्यक्ति पूरी वसुधा को एक परिवार मानकर व्यवहार करते हैं। आसुरी-भावों को मन-मन्दिर से बाहर निकाल फेंके। भौतिक उन्नति के साथ ही साथ आध्यात्मिक उन्नति की समाज में अत्यन्त आवश्यकता है। अक्षरज्ञान व तकनीकी ज्ञान के अतिरिक्त छात्रों को नैतिक व चारित्रिक ज्ञान भी करायें। आकाश की ऊँचाई को स्पर्श करने की अभिलाषा के साथ ही अपनी जमीनी हकीकत से भी वाकिफ रहें। जीवन में ऊँचा चाहे कितना भी उठें लेकिन नीचे पायदान पर खडे़ लोगों के हृदय के स्पन्दन की अनुभूति को महसूस अवश्य करते रहें तभी मानव जन्म की सार्थकता सिद्ध होगी।

विश्व शान्ति दिवस के उपलक्ष्य में मैं इतना ही कहना चाहता हूँ:-

शपथ लेकर हम निरन्तर शान्तिपथ पर ही चलें।
सामने बाधा हो कितनी, हिंसक विचारों को मलें।
क्रूरता कितनी हो फिर भी शान्तिभाव से बढे़ं पलें।
सुखी, नीरोगी सब हों नित अभाव किसी का कभी न खले।