शनिवार, 16 मार्च 2013

दयानन्द दिव्य दर्शन भूमिका


लेखक: श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय



हमसे हमारे बन्धुवर्ग बार-बार यह प्रश्न करते हैं कि तुम यह क्या कर रहे हो ? मनुष्य पृथ्वी पर जन्म लेकर जो काम करते हैं; जिस मार्ग का अनुसरण करते हैं, तुम उनमें से कोई काम भी नहीं करते ? तुमने अपने जीवन का इतना समय केवल ‘दयानन्द-दयानन्द’ की रट लगाकर गंवाया है। जीवन के जिस अंश को सबसे श्रेष्ठ माना जाता है तुमने उसे ‘दयानन्द- दयानन्द’ कहके ही बिताया है।

बन्धुवर्ग का यह आक्षेप सर्वथा निर्मूल भी नहीं है, क्योंकि गत १५ वर्ष के अधिक भाग को हमने दयानन्द-सम्बन्धी कार्य में ही लगाया है। दयानन्द सरस्वती की जीवन-कथा के कीर्तन करने, दयानन्द के एक सर्वांग-सुन्दर जीवन-चरित के प्रकाशित करने के अभिप्राय से सामग्री और विवरण-माला के संग्रह करने में पूरे १५ वर्ष न भी लगे हों पर इसमें तो सन्देह ही नहीं है कि १॰ वर्ष तो अवश्य ही लगे हैं।

सहस्रों रुपयों की प्राप्ति के लिए मनुष्य जितना उत्साह और परिश्रम करता है, हमने उतना उत्साह और परिश्रम दयानन्द के जीवन की एक-एक घटना का पता लगाने में व्यय कर दिया है। एक ही घटना की सत्यता का निश्चय करने के लिए हम अनेक बार एक ही स्थान में गए हैं। जिस समय भी यह सुना कि अमुक स्थान पर अमुक व्यक्ति के पास जाने से दयानन्दचरित की अमुक घटना का ठीक-ठीक पता लग सकता है, हम उसी समय टिकट लेकर सैकड़ों मील की यात्रा करके उस स्थान पर पहुंचे हैं। हमारी यह दशा रही है कि यदि आज हम अजमेर हैं तो कुछ दिन पीछे अमृतसर हैं, और दो मास पीछे मध्यभारत के इन्दौर नगर में हैं, कभी महाराष्ट्र देश में कोल्हापुर में हैं तो कभी संयुक्तप्रान्त में गंगा के तटवर्ती ग्राम कर्णवास में। इसी प्रकार इस विशाल भारतवर्ष के सभी प्रान्तों में (केवल मद्रास प्रान्त को छोड़कर) बरसों पर्यटन किया है। न हमने जाडे़ की परवाह की है न गर्मी की, न शरीर के स्वास्थ्य की ओर ध्यान दिया, न अस्वास्थ्य की ओर। कभी-कभी हम धनाभाव के कारण अस्थिर तो हो गये, परन्तु हमने अपने व्रत को नहीं तोड़ा। प्रवास के कष्ट-क्लेश को भी हर प्रकार सहन किया। जो व्रत हमने धारण किया था, उससे हमें किसी वस्तु ने एक दिन के लिए भी विचलित नहीं किया, न प्रबल धनाभाव ने, न अनेक प्रकार की बाधाओं ने और न ही प्रवास की असुविधाओं से उत्पन्न हुए सामयिक नैराश्य ने। परन्तु प्रश्न यह है कि इस कठिनाइयों ने हमें विचलित क्यों नहीं किया ? दयानन्द कौन है ? उसकी शिक्षा में ऐसी कौन-सी अलौकिक शक्ति है, इसके उपदेशों में ऐसा कौन-सा संजीवन मन्त्र छिपा हुआ है, जिसके कारण हम उसके जीवन-इतिहास के लिए क्लेश पर क्लेश सहते आये हैं ? दयानन्द के चरित के प्रकाशन के साथ भारत-भूमि का ऐसा कौन-सा हिताहित सम्बद्ध है जिसके कारण हमने सैकड़ों प्रतिकूलताओं के बीच में अपने आपको अटल रखा है ? दयानन्द की शिक्षा व उदाहरण के साथ बंगवासियों का, बल्कि भारतवासियों का और इससे भी अधिक पृथ्वीभर के रहनेवालों का ऐसा कौनसा कल्याण अनुस्यूत है जिसके कारण हमने अपने आपको इस भीष्म प्रतिज्ञा में बांधा है ? इन प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर देना आवश्यक है। इसलिए हम अपने लेख को कुछ खोलकर लिखने का यत्न करेंगे।



महर्षि दयानन्द सरस्वती


दयानन्द दिव्य दर्शन


जन्म १८२४ मोक्षप्राप्ति १८८३

बाल्यावस्था का नाम                        मूलशंकर
पितृनाम                        श्री करसन जी तिवारी
मातृनाम                        श्रीमती यशोदा देवी
जन्मस्थान                        टंकारा (गुजरात)
यज्ञोपवीत संस्कार                        १८३४
बोध का प्रथम आलोकन
एवं प्रभुप्राप्ति का संकल्प                 शिवरात्रि १८३८
यजुर्वेद सम्पूर्ण कण्ठस्थ                 १८३८
गृहत्याग                         १८४५
ब्रह्मचर्यदीक्षा (शुद्धचैतन्य)         १८४६
सन्यासदीक्षा-स्वामी पूर्णानन्द जी
से दयानन्द नाम धारण                 १८४८
मथुरा में स्वामी विरजानन्द जी दण्डी
के पास शास्त्राध्ययन                         १४-११-१८६॰ से ७-४-१८६३ तक
हरिद्वार कुम्भ पर पाखण्ड-खण्डिनी पताका १२-३-१८६७
वैचारिक क्रान्ति और वैदिक संस्कृति की
पुनः स्थापना के अमर ग्रन्थ
‘सत्यार्थ प्रकाश’ का लेखन                         ७-४-१८७४
आर्यसमाज की स्थापना                 ७-४-१८७५
संस्कारविधि का लेखन                 १८७६
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का लेखन         १८७७
जीवन चरित्र का प्रकाशन                         १५-१२-१८७७
देहत्याग एवं मोक्षप्राप्ति                दीपावली ३॰-१॰-१८८३

जीवनकाल वर्ष - ५९


लेखक: श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय

बुधवार, 13 मार्च 2013

दयानन्द दिव्य दर्शन प्राक्कथन



लेखक: श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय

जैसे एक नदी की सृष्टि नाना दिग्देशागत जल-धाराओं के समवाय से होती है, वैसे ही मनुष्य जीवन की सृष्टि भी नाना व्यक्ति और प्रवाह-समूह के समवाय से होती है। जिन्होंने ऊंचे पर्वत पर खडे़ होकर किसी नदी विशेष के उत्पत्ति स्थान को देखा है, वे जानते हैं कि कितने छोटे-बडे़ स्रोत भिन्न-भिन्न दिशाओं से आकर आपस में मिलकर नदी की उत्पत्ति करते हैं। मनुष्य-जीवन भी ठीक इसी प्रकार से उत्पन्न होता है। किसी एक मनुष्य के जीवन की पर्यालोचना करने से मालूम होगा कि उसमें अनेक विभिन्न प्रभावों का सम्मिलन हुआ है। यदि विचार करके देखा जाये कि मैं कौन हूं, यदि अहंभाव का विश्लेषण किया जाये और देखा जाये कि मेरा संगठन किस उपादान से हुआ है। मैं किस-किस शक्ति के समवाय से सृष्ट हुआ हूं, मेरे ‘मैं’ में मेरा कितना निजू भाग और कितना दूसरों का है, तो ज्ञात होगा कि उसमें अनेक छोटे-बडे़ प्रभावों का समवाय है। प्रथम पूर्वजन्मार्जित संस्कार, दूसरे पितृ-शक्ति, तीसरे मातृ-शक्ति, चौथे परिवेष्टनीय शक्ति, पांचवे शिक्षा शक्ति। इन्हीं प्रधान-प्रधान पांचों शक्तियों के स्रोतों के समवाय से मनुष्य की जीवननदी बनती है। इनके अतिरिक्त सूक्ष्मभाव से देखने से उसमें  और भी छोटी-बड़ी शक्तियों का समवाय देखने में आता है। प्रागुक्त परिवेष्टनीय शक्ति के साथ जन्म-गृह, जन्म-स्थान और जन्म-पल्ली का घनिष्ठ सम्बन्ध है।

परिवेष्टनीय शक्ति उसे कहते हैं, जिससे मनुष्य अहरहः घिरा रहता है। उसके भीतर मनुष्य के चतुर्दिग्वर्ती चेतन, अचेतन और उद्भिज्जादि समस्त पदार्थभूत की शक्ति परिगणित होती है। हमने जिस घर में जन्म लिया, उसके चतुर्दिक्स्थ जो कुछ भी है, वह सब हमारे मन पर अपने प्रभाव का विस्तार करता है। जिस ग्राम में हमने जन्म लिया है, उसमें जो कुछ भी है, वह हमारे मन कों संगठित करने में सहायता करता है। जिस स्थान वा जिस ग्राम में हम भूमिष्ठ हुए हैं उसके वृक्ष, लता, नदी, सरोवर, क्षेत्र, जंगल, वनभूमि, शिलास्तूप सब पदार्थ ही हमारे मनोराज्य को विकसित करते हैं। यह एक विवादरहित सत्य है कि मनुष्य का अध्यात्मजगत् जिस प्रकार बाह्यजगत् के ऊपर कार्य करता है, बाह्यजगत् भी उसी प्रकार अध्यात्मजगत् के ऊपर अहरहः अपना प्रभाव करता है। नदी की कल्लोल, सागर-वृक्ष का प्रकम्प, अत्युच्च शैल की गम्भीरता, विस्तीर्ण मरु प्रान्तर की भीषणता, मेघमाला की घन-गम्भीर नीलिमा, निबिड वनभूमि की अपरिच्छिन्न निस्तब्धता, सब ही मनुष्य की चित्तवृत्ति का संगठन करती हैं। यही मनस्तत्त्व पण्डितों ने स्थिर किया है। इसलिये हम कहते हैं कि जो लोग संसार में महाजन के नाम से विख्यात हैं, जो महान् मन और विशाल बुद्धि पाकर धरित्री के पृष्ठ पर आविर्भूत हुये हैं, प्रायः वे सब ही प्रकृति की सुन्दरतर महिमा या रुद्रतर भाव के क्रोड में लालित, पालित और परिवर्धित हुए हैं।

अस्तु ! अगण्य-सुगण्य, पण्डित-मूर्ख, प्रातःस्मरणीय-परिवर्जनीय, भिखारी-प्रासादवासी, किसी भी मनुष्य को समझने का यदि यत्न किया जाय, अथवा मनुष्य जीवन को यदि यथार्थ रूप से चित्रित करके देखा जाए तो यह जानना आवश्यक है कि उसके भीतर परिवेष्टनीय शक्ति ने कितना कार्य किया है। विशेषतः जो महापुरुष हैं जिनके आविर्भाव से धरित्री पवित्र हुई है, जिनके प्रभाव से जन-समाज की गति पलटी है, वस्तुतः जो मनुष्य समाज के प्राण और मेरुदण्ड स्वरूप हैं, उनके चरित्र के वर्णन में उनकी जन्मभूमि का वर्णन अपरिहार्य रूप से आवश्यक है।

जिन्होंने इस पापपरिपुष्ट युग में जन्म लेकर जीवनभर निष्कण्टक ब्रह्मचर्य का पालन किया, जो विद्या में, वाक्पटुता में, तार्किकता में, शास्त्रदर्शिता में, भारतीय आचार्य-मण्डली के बीच में शंकराचार्य के ठीक परवर्ती आसन पर आरूढ़ होने के सर्वथा योग्य थे, वेदनिष्ठा में, वेदव्याख्या में, वेदज्ञान की गम्भीरता में, जिनका नाम व्यासादि महर्षिगण के ठीक नीचे लिखे जाने योग्य था, जो अपने को हिन्दुओं के आदर्श-सुधारक पद पर प्रतिष्ठित कर गये हैं और इस मृतप्राय आर्यजाति को जागरित करके उठाने के उद्देश्य से मृतसंजीवनी औषध के भाण्ड को हाथ में लेकर जिन्होंने भरतखण्ड में चतुर्दिक् परिभ्रमण किया था, दुःख का विषय है कि उनका चरित्र और उनकी जन्मभूमि का प्रसंग आज तक भी अप्रकाशित है। वह भारत-दिवाकर दयानन्द कहां जन्मा था, यह आज तक भी कोई नहीं जानता। आज प्रायः ३३ वर्ष स्वामी दयानन्द सरस्वती को स्वर्गारोहण किए हो गये और जिस आर्यसमाज को इन्होंने इस उद्देश्य से स्थापित किया कि उनके उपदेशों का संसार में प्रचार करें, उसकी आयु भी प्रायः ४॰ वर्ष हो गई, परन्तु उसने स्वामी जी के जन्म स्थानादि जानने के विषय में कोई विशेष यत्न नहीं किया। यद्यपि दयानन्द के जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में कितने ही ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं, परन्तु उनमें किसी में भी उनकी जन्मभूमि की कथा निश्चित रूप से नहीं लिखी गई। इसलिए दयानन्द के जितने जीवन-चरित उपस्थित हैं, वे सब अपूर्ण और अंगहीन हैं। इसलिये आवश्यक है कि उनकी जन्मभूमि के विषय में पूरा अनुसंधान और अन्वेषण किया जाय। इस कार्य को करने का हमने बीड़ा उठाया और हर्ष का विषय है कि असीम प्रयत्न और अनथक परिश्रम के पश्चात् हम अपने संकल्प को पूरा करने में कृतकार्य हुए हैं।

सत्य की खोज के लिए अनुसंधान के अविश्रान्त स्रोत का प्रवाहित रहना, गवेषणा के आलोक का प्रदीप्त रहना और जहां तक हो सके, उसे ले जाये जाना सत्य के निर्णय के लिए गवेषणा का पुनः पुनः परिचालन करना आवश्यक है, इसी प्रकार की घटना-विशेष का लोगों के सामने उज्ज्वल रूप में रखने के लिए और उसे दृढ़तर भित्ति पर प्रतिष्ठित करने के लिए अनुसंधान कार्य में बार-बार व्यापृत होना भी अपरिहार्य है। तब तक वह स्फुटतर और उज्ज्वलतर नहीं हो सकती; जब तक अनेक प्रमाणों को प्रस्तुत नहीं किया जाता, तब तक वह दृढ़तर भूमि के ऊपर स्थापित नहीं हो सकती और यह निर्विवाद है कि नानादिक् से आलोक पात करना और अनेक प्रमाणों का संग्रह करना कष्टसाध्य है।

अतः जो कष्ट हमने सहे, जो धन और समय हमने व्यय किया, उस पर हमें तनिक भी पश्चात्ताप नहीं, क्योंकि दयानन्द के जीवन-चरित का महान् विषय बिना इसके लिखना असम्भव था और उसका लिखना देश के कल्याण के लिए आवश्यक था।

देवेन्द्रनाथ मुखोपध्याय
सन् 1916

सोमवार, 11 मार्च 2013

जिन्दगी से खेलो ना


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...........

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर

प्रभुकृपा से हमें मानव तन में कर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार मिल चुका है। नये कर्म करने का अवसर मिलना बहुत बड़ी बात है। साथ में कर्म की स्वतन्त्रता का होना, वरदान से कम नहीं है। हम इच्छानुसार जैसे व जितने कर्म करना चाहते हैं, वैसे व उतने कर्म यथासामर्थ्य स्वतन्त्रता से कर सकते हैं। अच्छे व बुरे का विवेक हमें करना होता है। विवेक प्राप्ति का साधन बुद्धि, ज्ञानेन्द्रियां आदि प्रभु द्वारा उपलब्ध करा दी गई हैं। अन्तःकरण में भी प्रभु की प्रेरणाएं अनुभव की जा सकती हैं। इन सबका सदुपयोग कर विवेक को जगाये रखते हुए, हित-अहित का विचार रखते हुए कर्म की स्वतन्त्रता के अधिकार का उपयोग करना होता है।

प्रभु द्वारा प्रदत्त कर्म की स्वतन्त्रता तभी वरदान सिद्ध होती है, जब विवेक के साथ इसका उपयोग किया जाता है। किसी कर्म के करने या न करने का निर्णय अन्ततः सुख-दुःख के आधार पर होता है। इसे ही हित-अहित के रूप में देखा जाता है, जो कि उचित भी है। स्वज्ञान के अनुसार प्रायः सभी सुख-दुःख/हित-अहित को ध्यान में रखकर कर्म के करने न करने का निर्णय करते हैं। ज्ञान-विवेक में अन्तर आते ही कर्म में अन्तर आ ही जाता है। आध्यात्मिक व्यक्ति को अपने कर्मों पर दृष्टि रखने के साथ अपने ज्ञान-विवेक पर भी दृष्टि रखनी होती है।

प्रभुकृपा से बहुत से मानव सच्चे हृदय से आध्यात्मिक मार्ग पर चल रहे हैं। अपने जीवन को सार्थक आध्यात्मिक-जीवन में बदल रहे हैं। इनका विवेक इन्हें एक निश्चित मार्ग पर चलाता है। कर्म के करने या न करने का निर्णय ये भी अन्ततः सुख-दुःख/हित-अहित के आधार पर लेते हैं, किन्तु दूर-दृष्टि से। मात्र इस जन्म को ध्यान में रखा जाए, तो कर्म के करने या न करने के निर्णय एक सीमा तक ही उचित हो पाते हैं। इतने मात्र से इस मानव जीवन की सार्थकता नहीं हो पाती है।

प्रभुकृपा से आध्यात्मिक व्यक्ति में यह समझ बनने लगती है। वह इस समझ-विवेक को धीरे-धीरे बढ़ाता जाता है, परिष्कृत करता जाता है। वह अपने विवेक का परीक्षण करता रहता है और अपनी समझ को संशोधित करता जाता है। परिणाम यह आता ही है कि वह मात्र इस जीवन को ध्यान में रखकर करने या ने करने का निर्णय नहीं करता, वह मात्र इहलौकिक सुख-दुःख को आधार बनाकर निर्णय नहीं करता। उसकी दृष्टि में पारलौकिक सुख-दुःख भी रहता है। वह दोनों को ध्यान में रखता है। दोनों को ध्यान में रखते हुए हित-अहित के अनुसार कर्म करने या न करने का निर्णय लेता है। ऐसे में कभी निर्णय में देर भी हो जाती है, जो कि अन्यों को अव्यावहारिक प्रतीत होती है, किन्तु आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए यह आवश्यक होता है।

प्रभुकृपा से जैसे-जैसे विवेक परिपक्व होता जाता है, स्वाभाविक होता जाता है, दिशा व दृष्टि निश्चित-स्थिर होती जाती है, वैसे-वैसे निर्णय शीघ्रता-सहजता-सरलता से होते जाते हैं। निर्णय करते समय मन में कोई संघर्ष-द्वन्द्व-खिंचाव नहीं रहता। निर्णय उचित ही होते हैं, निर्णय हितकर ही निकलते हैं। आध्यात्मिक व्यक्ति एक भिन्न स्तर पर जीता है, उसके निर्णय अनेकों को अनुचित लग सकते हैं, लगते हैं, पर प्रभुकृपा से उसमें इतना आत्मविश्वास होता है कि वह अपने निर्णयों पर स्थिर रह पाता है, सन्तुष्ट रह पाता है, वह संशय से ग्रस्त नहीं होता। उसे स्पष्ट दिखता है कि इन सांसारिक लोगों की तरह निर्णय करना आत्मा के लिए हितकर नहीं है।

प्रभु ने सहजता से सृष्टि का निर्माण किया, उसके लिए यह क्रीड़ावत् था। वह संसार को सहजता से चला भी रहा है, यह भी उसके लिए क्रीड़ावत् है। कठिन दिखने वाला आध्यात्मिक जीवन भी विवेक के बढ़ने के साथ सहज होता जाता है, क्रीड़ावत् होता जाता है। सांसारिक व्यक्ति जब बिना विवेक के इस जीवन में क्रीड़ा करने लगता है, तो वह अपने को क्रीड़ा का आनन्द लेता हुआ अनुभव करते हुए भी आध्यात्मिक दृष्टि से विनाश की ओर ले जा रहा होता है। आध्यात्मिक दृष्टि से रहित यह क्रीड़ा उसके जीवन को खिलवाड़ बना देती है। वह अपने बहुमूल्य जीवन से खेल रहा होता है। वह अपना बहुमूल्य जीवन/समय खेल में बिता रहा होता है। अपनी जिन्दगी से खेलकर मानव जीवन बिता देना आध्यात्मिक व्यक्ति को भंयकर बर्बादी के समान लगता है। आध्यात्कि मार्ग पर चलना है, तो जिन्दगी से खेलना रोकना होता है। आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करना हो, तो अपने द्वारा किये जा रहे खिलवाड़ पर गंभीर विचार आरम्भ करना होता है। आध्यात्मिक जीवन जीना हो, तो जिन्दगी से खेलना बन्द करना होता है। प्रारम्भ में यह कठिन प्रतीत होता है, धीरे-धीरे सहज-सरल-क्रीड़ावत् हो जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि होने से यह क्रीड़ा जीवन के साथ खिलवाड़ नहीं बनती। प्रभु की कृपा से वह प्रभु के समान निर्लिप्त सहज क्रिया-क्रीड़ा बन जाती है।



गुरुवार, 7 मार्च 2013

३. कैसा धन प्राप्त करें ?


एन्द्र सानसिं रयिं सजित्वानं सदासहम्।
वर्षिष्ठमूतये भर।।
ऋग्वेद १.८.१.

अर्थ- हे (इन्द्र) परमेश्वर ! आप कृपा करके (सानसिम्) जिसका मिलकर उपभोग कर सकें ऐसे (सजित्वानम्) अपने समान लोगों में विजय दिलवाने वाले (सदा अहम्) दुष्ट शत्रु एवं हानि या दुःखों को सहन करने में समर्थ (वर्षिष्ठम्) वृद्धि करनेवाले (रयिम्) धन को (ऊतये) रक्षा के लिये (आ भर) अच्छी प्रकार दीजिए। 

कौटिल्य अर्थशास्त्र में कहा है-सुखस्य मूलं धर्मः सुख का मूल धर्म है और धर्मस्य मूलमर्थः धर्म का मूल धन है। जैसे ऊँचे पर्वतों से चारों दिशाओं में नदियाँ प्रवाहित होकर लोगों की प्यास बुझाती है वैसे ही ढेर सारे धन से सभी कार्य सिद्ध होते हैं।

यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ति।।

जिसके पास धन है उसे ही कुलीन पण्डित, विद्वान् और गुणी मानते हैं। सभाओं में उसी के प्रवचन, भाषण होते हैं। लोग उसके दर्शन को लालायित रहते हैं। सभी गुण धन के आश्रित हैं।

गत मन्त्र (ऋ॰ १.१.६) में कहा है कि देनेवाले को परमात्मा और देता है। यहाँ पर कैसे धन की कामना करें समझाया है।

१. सानसिम्- हे परमेश्वर ! हमें ऐस धन दीजिए जिसका हम उपभोग कर सकें। हम उपभुक्त धनवाले होवें। केवल धन के ऊपर सांप की भाँति चौकड़ी मारकर न बैठ जायें। जिस धन से हमारा शरीर स्वस्थ और बलिष्ठ बना रहे ऐसा धन दीजिए। धन के लोभ में हम अपने स्वास्थ्य को ही दाव पर न लगा दें। हमने यह भी सुना है-धन गया तो कुछ भी नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया, इसका भाव यही है कि स्वास्थ्य का मूल्य धन से अधिक है। अमेरिका का प्रसिद्ध उद्योगपति रॉकफेलर कहता था कि कोई मेरी आधी सम्पत्ति लेकर यदि मुझे स्वास्थ्य प्रदान करने को तैयार हो तो मैं समझूँगा कि यह घाटे का सौदा नहीं है। सानसिम् का यह भी अर्थ है कि हम धन का मिल-बाँट कर उपभोग करें। ‘केवलाघो भवति केवलादी’ अकेला खाने वाला पाप का ही भक्षण करता है।

२. धन की दूसरी कामना यह हानी चाहिये कि वह सजित्वानम् अर्थात् हमें विजय दिलवाने वाला हो। जिस धन को प्राप्त करने के लिये स्वास्थ्य की ओर ध्यान न दिया हो, उस धन का अपने लिये क्या उपयोग हो सकता है। रोगी व्यक्ति न अच्छा खा-पी सकता है और न ही अन्य आमोद-प्रमोद करता है। उसे ये सारे ताम-झाम नीरस लगते हैं। इसका दूसरा अर्थ यह है कि यह धन हमें अपने सजातीय अर्थात् समान क्षमता वालों में विजय दिलाने वाला हो। जिसको प्राप्त करने के पश्चात् उसके छीन लेने, चोरी हो जाने अथवा प्राणों का संकट उपस्थित हो जाये, वह धन किसी काम का नहीं। लोक में कहावत है-ऐसा सोना किस काम का जिसके आभूषण बना कानों में पहिनने पर चोर-उचक्के कानों को ही फाड़ कर आभूषणों को छीन लें। प्राप्त धन की सुरक्षार्थ सुदृढ़ भवन, पहरेदार या उसे शुभ कार्यों में लगा दिया जाये। नीतिकार कहते हैं-

दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति।।

दान, भोग, नाश ये धन की तीन गतियाँ होती हैं। जो न दान देता और न ही उसका उपभोग करता उसकी तीसरी गति अर्थात् विनाश होना निश्चित है।

३. सदासहम्- जिस धन को प्राप्त कर हमस ब आपत्ति एवं विघ्नों का निवारण कर सकें ऐसा धन दीजिए। जिससे अपने शत्रुओं का मान मर्दन किया जा सके, जो किसी भी परिस्थिति को सहन करने का सामर्थ्य प्रदान करे, उसी की कामना करनी चाहिये।

४. वर्षिष्ठम्-जहाँ केवल व्यय ही होता रहे, आय का स्रोत नहीं हो, वह धनराशि कितनी ही बड़ी क्यों न हो, देर-सवेर उसका स्रोत सूख जाता है। इसीलिये प्राप्त धन को ऐसे उद्योग-धन्धों में लगायें जिससे उसकी निरन्तर वृद्धि होती रहे।

५. इससे अगले मन्त्र में कहा है-

नि येन मुष्टिहत्यया नि वृत्रा रुणधामहै। त्वोतासो न्यर्वता।। ऋग्वेद १.८.२।।

हे प्रभो! धन प्राप्त कर हम शरीर का बल इतना बढ़ायें कि मुष्टि-प्रहार से ही दुष्ट जनों का मान-मर्दन कर सकें और (अर्वता) अश्वारोही सैनिकों की सेना सजाकर शत्रु बल को रोकने में सफल हों, ऐसे धन को हमें दीजिए।

इस मन्त्र के भावार्थ में महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं-ईश्वर के सेवक मनुष्यों को उचित है कि अपने शरीर और बुद्धिबल को बहुत बढ़ावें जिससे श्रेष्ठों का पालन और दुष्टों का अपमान सदा होता रहे। जिससे शत्रु जन उनके मुष्टि-प्रहारों को न सह सकें, इधन-उधर छिपते भागते फिरें।



बुधवार, 6 मार्च 2013

जिन्होंने सजाये यहां मेले


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...........

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर

प्रभु कृपा से हमें यह अति सुन्दर संसार मिला है, अति सुन्दर मानव शरीर मिला है। पशु-पक्षी भी बहुत सुन्दर हैं, हर प्राणी विशेष रंग-रूप  का मिला है। पेड़-पौधे-लताएं भी अपना-अपना रंग-रूप  लिए शोभायमान हैं। इन सब सजी-सजाई वस्तुओं के बीच मानव जिन वस्तुओं का निर्माण करता है, वे भी व्यवस्थित व सुन्दर होनी चाहिएं। सुन्दरता, सजावट, व्यवस्था अच्छी लगती है, सुन्दरता होनी भी चाहिए। प्रभु निर्मित सुन्दर प्रकृति के बीच मानव निर्मित वस्तुएं भी सुन्दर होनी चाहिएं।

प्रभु निर्मित सुन्दर प्रकृति को देखकर साधक के मन में इसके निर्माता व स्वामी प्रभु के प्रति श्रद्धा-प्रेम-सत्कार उभरते हैं। मानव निर्मित सुन्दर वस्तु को देखकर उसके निर्माता व स्वामी का बड़प्पन मन में आता है, प्रशंसा का भाव उभरता है, प्रशंसा के बोल निकलते हैं। इससे निर्माता व स्वामी को सुख मिलता है, वह आत्मगौरव अनुभव करता है। इस सुखद अनुभव के मिलने पर हम उसे पुनः पुनः पाना चाहते हैं। यह सुखद अनुभव जिस सौन्दर्य के कारण मिला था, उसे अधिकाधिक बढ़ाना चाहते हैं, बार-बार करना चाहते हैं। अब यह सजावट-सौन्दर्य का सुख व्यसन-लत का रूप ले लेता है। सजावट-सौन्दर्य करने में विशेष प्रयत्न करना होता है, समय-श्रम-धन को अधिक लगाना पड़ता है। समय-श्रम-धन हमारे पास सीमित है, जब वह सजावट-सौन्दर्य में लगता है तो अन्य आवश्यक उपयोगी वस्तुओं-कार्यों में कम होता चला जाता है।

प्रभु ने सृष्टि सुन्दर बनाई, सजाई, उसकी अनन्त सामर्थ्य है, वह कितना भी कैसा भी सौन्दर्य रच सकता है, इससे उसे कोई हानि भी नहीं होती। पुनरपि प्रभु का दिया समस्त सौन्दर्य, समस्त सजावट उपयोगिता को साथ में लिए हुए हैं, सार्थकता को साथ में लिए हुए हैं। प्रभु-निर्मित सौन्दर्य व सजावट में कुछ व्यर्थ नहीं है। सौन्दर्य-सजावट से मन में प्रसन्नता-उत्साह का आना, मन का रसमय होना भी एक प्रयोजन है, किन्तु जब हम मात्र सुख के लिए इस सौन्दर्य-सजावट को बढ़ाने लगते हैं, तो बाधाएं-दुःख उत्पन्न होने लगते हैं, समय-श्रम-धन का दुरुपयोग होने लगता है। बहुमूल्य जीवन सजावट-सौन्दर्य की क्रीड़ा में खेल में गंवाना अच्छा लगता रहता है। अन्यों की प्रशंसा के बीच हमें यह सदा हितकर ही लगता है, इससे हो रही हानि पर विचार करने का अवसर कोई-कोई ही निकाल पाता है।

प्रभुकृपा से प्राप्त इस सजे-सजाये सुन्दर संसार को उपयोगिता की उपेक्षा कर के और अधिक सजाते जाना, मेले सजाना हमें दूसरे मार्ग पर ले जाकर उस मार्ग से भटका देता है, जिस पर हमें जाना था। सजावट-प्रशंसा की कोई सीमा नहीं है, कितना भी समय-श्रम-धन इसके लिए लगाया जाए वह कम प्रतीत होने लगता है। आखिर क्यों हम ऐसे मेले सजाते चले जाना चाहते हैं ? इससे हमारा कितना हित-अहित होता है, यह साधक के लिए चिंतनीय विषय है। विचारशील मानव, अध्यात्म की ओर झुका साधक अधिकाधिक सादगी अपनाता जाता है। प्रभु ने पहले से ही सब कुछ बहुत सुन्दर बनाया है, वह उसी से तृप्त होता है, उसे ही पर्याप्त समझता है। प्रभु द्वारा दिये सौन्दर्य को बचाये रखने का तो प्रयास होना चाहिए। स्नान, व्यायाम-सफाई आदि आवश्यक हैं, किन्तु बाल काले करना आदि अनावश्यक सजावट मार्ग से भटका ही देती है। प्राकृतिक परिवर्तन का भी अपना सौन्दर्य है, उसका अनुभव सहज-सरल है, उसके लिए समय-श्रम-धन का व्यय नहीं होता।

प्रभु ने बाह्य सौन्दर्य के अतिरिक्त आन्तरिक सौन्दर्य भी दिया है। मन-बुद्धि अद्भुत हैं। इनका सौन्दर्य अद्भुत सुख-सन्तोष को देता है। बाह्य सौन्दर्य से प्राप्त सुख अल्प मात्रा व अल्प समय तक रहता है, आन्तरिक सौन्दर्य अधिक मात्रा व अधिक समय तक रहता है, वह अनुपमेय है। आन्तरिक सौन्दर्य के आते जाने के साथ ही बाह्य वस्तुओं का सौन्दर्य भी बढ़ता जाता है, वे ही बाह्य वस्तुएं बहुत अधिक सुन्दर दिखने लगती हैं। इससे प्रभु के प्रति और अधिक श्रद्धा-प्रेम-सत्कार का भाव आता जाता है। बाह्य वस्तुओं को सजाने का यह आध्यात्मिक उपाय है, आन्तरिक उपाय है।

प्रभु ने मन को सुन्दर-शुद्ध ही दिया था, उसे हम और अधिक नहीं सजा सकते। हमें अपने मलिन मन को मात्र साफ करना है। यह सफाई ही उसकी सुन्दरता को प्रकट कर देती है। सफाई करके हम नई सुन्दरता नहीं लाते हैं, नई सुन्दरता लाने का प्रयास व्यर्थ व अनावश्यक है। प्रभु प्रदत्त सजे-सजाये मेले को अपने बड़प्पन के लिए और सजाना, नये-नये मेले सजाना सुख के साथ दुःख की शृंखला को भी ले आता है। जिन्होंने सजाये यहां मेले, सुख-दुःख संग-संग झेले। जिन्दगी, कैसी है पहेली हाय! कभी ये हंसाये, कभी ये रुलाये। आध्यात्मिक व्यक्ति जिन्दगी को पहेली नहीं रहने देता, वह इसे सुलझा लेता है, वह आध्यात्मिक चिंतन द्वारा इसे समझ लेता है, वह मेले नहीं सजाता, वह तो मात्र मैल हटाने में लगा रहता है।