सोमवार, 3 सितंबर 2012

मनमानी कब तक ?


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण..............

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर

प्रभुकृपा से हमें जानने के लिए ज्ञानेन्द्रियां व बुद्धि मिले हैं। इच्छा करने के लिए मन मिला है। बुद्धि व मन में सम्बन्ध रहता है। बुद्धि स्थित ज्ञान के अनुसार ही आत्मा इच्छा करता है व तदनुसार मन विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्दियों को प्रेरित करता है। कोई भी इच्छा या कर्म हम अपनी समझ से अपने हित के लिए ही करते हैं। अपने ज्ञान व अपनी समझ के अनुसार हम अपना हितचिंतन करते रहते हैं व तदनुसार कर्म भी। यही हमारी स्वतन्त्रता है, यह स्वतन्त्रता प्रभु का वरदान है। इस स्वतन्त्रता व वरदान का सदुपयोग भी हो सकता है व दुरुपयोग भी।

प्रभुकृपा से मिली ज्ञानेन्द्रियां प्राथमिक ज्ञान कराती रहती हैं। इनसे सुख-दुःख का भी ज्ञान होता रहता है। अनुकूल संवेदना को हम सुख के रूप में देखते हैं व प्रतिकूल संवेदना को दुःख के रूप में देखते हैं। हम सुख को पाना चाहते हैं, पुनः-पुनः पाना चाहते हैं, दुःख को पूर्णतः हटा देना चाहते हैं, दुःख को कभी नहीं पाना चाहते हैं। हम सुख के साधनों में दुःख के समान अप्रीति रखते हैं। यह हमारी इच्छाओं का प्राथमिक आधार है।

प्रभुकृपा इससे अधिक भी है। प्राथमिक ज्ञान तात्कालिक रूप से उत्पन्न सुख-दुःख पर आधारित रहता है। वह तात्कालिक सुख-दुःख में ही हित-अहित का निश्चय करता है। पर तात्कालिक सुख बाद में दुःख का कारण भी बन सकता है और तात्कालिक दुःख बाद में सुख का कारण भी बन सकता है। यहां दूर के परिणाम को सोचकर हित-अहित का निर्णय किया जाना आवश्यक है, वही वास्तविक ज्ञान है, वही उचित निर्णय है, उसी में सच्चा हित है। प्रभु कृपा से इसके लिए हमें बुद्धि मिली है, स्मृति मिली है। पूर्व अनुभूत सुख-दुःख व उसके परिणामों का परस्पर सम्बन्ध व विश्लेषण हम कर सकते हैं।

प्रभुकृपा से यह सब विश्लेषण करने की सामर्थ्य हमारे में है, किन्तु हम पूरी तरह इसका प्रयोग नहीं करते, सदा इसका प्रयोग नहीं करते। इसके अभाव में हम तात्कालिक सुख-दुःख/ हित-अहित तक सीमित रहते हुए अपने निर्णय करते जाते हैं, जीवन को उसी प्रकार बिताते जाते हैं। इसी में हम अपनी संतुष्टि मान लेते हैं। यह मनमानी है। दूरगामी परिणाम देखकर तदनुसार कर्म करना प्रारम्भ में कठिन लगता है, अतः उसे करने में हमारी अरुचि/अप्रीति रहती है। प्राथमिक ज्ञान के आधार पर जीवन चलाते जाना तो पशु-पक्षीवत् ही जीवन जी रहे होते हैं। मानवोचित जीवन तो दूरगामी परिणाम देखकर कर्म करने में ही सम्भव है।

प्रभुकृपा से जो मानव दूरगामी परिणाम देखकर निर्णय लेते हैं, वे जीवन में अधिक कुशल-सफल-सुखी-संतुष्ट रहते हैं। पर यहां भी इतने मात्र से संतुष्ट हो जाना अपने को परिपूर्णता से वंचित कर देना है। दूरगामी परिणाम को देखकर कर्म करने वालों के निर्णयों में भी विभिन्नताएं देखी जाती हैं, ऊंच-नीच देखी जाती है। कारण है, दूरगामी दृष्टि व विश्लेषण की सामर्थ्य में न्यूनाधिकता होना।

जीवन को हम भी देख-समझ रहे हैं। जीवन को अन्य भी देख-समझ रहे हैं। जीवन को पूर्वजों ने भी देखा-समझा था। जीवन को ईश्वर भी समझता है। ऋषियों ने जीवन को देख-समझकर जो निर्णय दिए, उनसे हमारे निर्णय भिन्न भी होते हैं। ऋषि लोग उच्च सात्विक प्रतिभा युक्त होते हैं, निश्चय ही उनके निर्णयों से भिन्न निर्णय आने की स्थिति में रुककर पुनर्विचार करना आवश्यक है। हम क्यों न अन्यों के अनुभवों-निर्णयों का भी लाभ उठायें ? कम से कम विचारें तो सही। आखिर उनके व हमारे निर्णयों में भेद का कारण क्या है ? बिना ऋषि मुनियों से तुलना के चलने वाला जीवन मनमाना जीवन बन जाता है।

प्रभु ने कृपा करके वेदों में जीवन जीने की दृष्टि प्रदान कर दी है। ऋषियों के निर्णयों में आंशिक त्रुटि की संभावना भले ही रहे, पर सर्वज्ञ प्रभु के निर्णय तो असंदिग्ध हैं, त्रुटि की संभावना से परे है। क्या हमारे निर्णय वेद के निर्णयों से मेल खाते हैं ? मेल न बैठने पर क्या हम उस पर गंभीरता से विचार करते हैं ? यदि हम ऐसा नहीं करते, तो भले ही कितना भी दूर तक विचार करें, विश्लेषण करें, तो भी निर्णयों में पर्याप्त त्रुटि संभव है। ऐसे में अपने ही निर्णयों पर चलते चले जाना मनमानी करना है।

मनमानी का परिणाम हमारी इच्छानुसार हो, यह आवश्यक नहीं। परिणाम तो व्यवस्थानुसार ही आना है। हमें जो परिणाम चाहिए, प्रत्येक आत्मा को जो परिणाम चाहिए उसके लिए ही तो ऋषियों ने व ईश्वर ने अपने निर्णय हमारे सामने रख दिये हैं। मनमाना चलने में इच्छानुसार परिणाम आना संदिग्ध है। वेदों-ऋषियों के अनुसार चलने में इच्छानुसार परिणाम आना निश्चित है। हम मनमानी करना चाहते हैं या मनमाना परिणाम चाहते हैं ? मनमानी करने से मनमाना परिणाम नहीं आता, उचित रीति से करने से मनमाना परिणाम आता है। निर्णय हमें करना है, हमें मनमानी करना प्रिय हो या मनमाने परिणाम प्राप्त करना प्रिय हो? मनमाने परिणाम प्राप्त करने हैं तो मनमानी करना छोड़ना होगा। मनमानी करते हुए हम मनमाने परिणाम से कब तक दूर रहना चाहते हैं ? कब तक मनमानी करेंगे ? कब तक मनमाने परिणाम से दूर रहेंगे ? मनमानी कब तक ?

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

कहीं देर न हो जाये


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...............

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर 

प्रभुकृपा से हमें भोग भोगने व कर्म करने का अवसर मिला है। दुर्लभ मानव शरीर में आकर हम विविध भोगों को बार-बार भोग सकते हैं, भोगते रहते हैं। इसी मानव शरीर में हम विविध अच्छे-बुरे कर्मों को बार-बार कर सकते हैं, करते रहते हैं। हमारे सामने भोग भी बहुत हैं व करने योग्य कर्म भी बहुत हैं। जब तक धन-सम्पत्ति, भोग्य पदार्थ व शरीर में भोगने की सामर्थ्य है, तब तक हम भोगों को भोगते रहते हैं, भोगते जाते हैं। जब तक शक्ति-सामर्थ्य है, अवसर है, तब तक हम कर्मों को करते चले जाते हैं।
प्रभुकृपा से प्राप्त भोग व कर्म का अवसर न्यूनाधिक हम सबके पास है। हम अपनी- अपनी परिस्थिति इच्छा आदि के अनुसार न्यूनाधिक भोग व कर्म करते ही रहते हैं। भोग व कर्म का अवसर, सुविधा व सामर्थ्य जिन मनुष्यों में लगभग समान होता है, उनमें भी भोग व कर्म की पर्याप्त भिन्नता देखी जाती है। बहुत से भोग व कर्म हमारे असमान होते हैं। कोई भोगों की ओर बहुत अधिक झुका रहता है, कर्म में प्रवृत्ति कम रखता है। कोई कर्म की ओर अधिक झुका रहता है, भोग में प्रवृत्ति कम रखता है।
अपनी-अपनी समझ से, अपने-अपने ज्ञान के अनुसार और अपने आस-पास के लोगों की देखा-देखी व प्रेरणा से हम अपने भोगों व कर्मों का निर्धारण करते रहते हैं। भोगों व कर्मों को चुनने में हम अपनी सामर्थ्य आदि के अनुसार कुछ स्वतन्त्र व कुछ परतन्त्र रहते हैं। अपनी शक्ति-सामर्थ्य-परिस्थिति में सीमित-परतन्त्र रहते हुए भी हम भोग व कर्मों को चुनने में पर्याप्त स्वतन्त्र रहते हैं, रह सकते हैं। हम चाहें तो भोगें व न चाहें तो न भोगें, कम चाहें तो कम भोगें व अधिक चाहें तो अधिक भोगें। हम चाहें तो कर्म करें व न चाहें तो न करें, कम चाहें तो कम करें व अधिक चाहें तो अधिक करें।
प्रभुकृपा से हम सभी में यह सामर्थ्य है कि हम अपने भोगों व कर्मों की मात्रा-स्वरूप- प्रयोजन को इच्छानुसार पर्याप्त मात्रा में बदल सकते हैं। आध्यात्मिक व्यक्ति अपने इस मानव जीवन के प्रयोजन को समझ चुका होता है, वह अपने लक्ष्य का निर्धारण कर चुका होता है। उसके सामान्य व्यक्ति वाले प्रयोजन व लक्ष्य नहीं होते। उसकी दृष्टि बदल चुकी होती है। परिणाम स्वरूप वह भोगों  को भोगने व कर्मों को करने में अन्यों से भिन्न दिखाई देता है। ऐसे उच्च आध्यात्मिक मनुष्य निर्बाध रूप से व तीव्रता से आध्यात्मिक प्रगति करते चले जाते हैं।
प्रभुकृपा से जिन्होंने अभी-अभी अध्यात्म को समझना आरम्भ किया है, अभी-अभी समझा है, कुछ माह व कुछ वर्षों से ही इस ओर प्रवृत्त हुए हैं, उनको अपनी इस प्रवृत्ति पर सन्तोष होता है, यह सन्तोष की बात है भी, एक सीमा तक इसमें सन्तोष होना भी चाहिए। किन्तु अभी पहले के भोग व कर्मों के संस्कार भी हमारे साथ हैं, उनके अनुसार हमारा स्वभाव बना हुआ है, अतः हम थोड़ा-बहुत अध्यात्म का चिंतन व आचरण करते हुए भी बहुत सा चिंतन व आचरण सामान्य मनुष्यवत् करते रहते हैं। हमें अपना वह थोड़ा सा आध्यात्मिक प्रयत्न भी पर्याप्त दिखाई देता है, अन्य तो इतना भी नहीं कर रहे हैं, मैं तो उनसे बहुत ठीक हूँ, अभी पर्याप्त जीवन बचा है, धीरे-धीरे और अधिक आध्यात्मिक प्रयत्न करुंगा, अभी तो ये-ये उत्तरदायित्व पूरे करने हैं, ये-ये इच्छाएं पूरी करनी है..........।
अध्यात्म को समझने वाले, अध्यात्म में प्रविष्ट व्यक्ति का जीवन भी बहुत बार इसी शैली से चलता-चला जाता है। भविष्य में उसे विशेष आध्यात्मिक प्रयत्न का अवसर मिल पाता है या नहीं, यह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है। हो सकता है आगे मेरा स्वास्थ्य या अन्य परिस्थितियां आध्यात्मि प्रयत्न के अनुकूल न रहें, तब क्या होगा ? प्रभुकृपा से यदि आज स्वास्थ्य है, सामर्थ्य है, अनुकूल परिस्थिति है, तो आध्यात्मिक पुरुषार्थ को भविष्य के लिए छोड़ना, एक बड़ी दुःखद भूल बन सकता है। जितना अधिक पुरुषार्थ योगाभ्यास के लिए, धर्म के लिए कर सकते हैं, करते ही जाना है। आगे देखेंगे, आगे कर लेंगे, अभी तो ये भोग व कर्म कर लूं फिर निश्चिंत होकर पूरी तरह आध्यात्मिक मार्ग पर चलूंगा, ये सब इच्छाएं-कामनाएं मात्र इच्छाएं-कामनाएं ही न रह जायें। प्रभुकृपा से अभी मिल रहे अवसर का पूरा उपयोग करना है, कहीं देर न हो जाये।

बुधवार, 29 अगस्त 2012

गहराई में शान्त-मन


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...............

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर 

प्रभु-कृपा से हम इतना समझते हैं, स्वीकारते हैं, मानते हैं कि हमें शान्ति चाहिए, अशान्ति नहीं। हमें संसार में भी शान्ति चाहिए, राष्ट्र-राज्य-नगर-मोहल्ले-घर में भी शान्ति चाहिए, अशान्ति नहीं। हमें मन में भी शान्ति चाहिए, अशान्ति नहीं। शान्ति में हम अनुकूलता अनुभव करते हैं, अशान्ति में प्रतिकूलता। अनुकूलता होने पर हमें सुख होता है व प्रतिकूलता होने पर दुःख होता है। बाहर की अशान्ति हमारे मन में भी अशान्ति पैदा करती रहती है, फलतः हम दुःखी हो जाते हैं।
बाहर की अशान्ति के कारण मन में अशान्ति उत्पन्न होती है, अतः हम बाहर की अशान्ति को ठीक करने का यथासंभव प्रयास करते हैं, करना भी चाहिए। बाहर की अशान्ति को हम कुछ कम भी कर पाते हैं, फलतः अन्दर की मन की अशान्ति भी कुछ कम हो जाती है। इस प्रकार के प्रयत्न व अनुभव से हमें निश्चित हो जाता है कि बाहर की अशान्ति उत्पन्न होती है और बाहर की अशान्ति न्यून या समाप्त होने के कारण अन्दर की अशान्ति न्यून या समाप्त हो जाती है। इस प्रकार हम बाहर की अशान्ति-शान्ति और अन्दर की अशान्ति-शान्ति में कारण-कार्य सम्बन्ध समझ लेते हैं, फलतः इसी पर केन्द्रित होकर अशान्ति हटाने व शान्ति पाने के प्रयास में लगे रहते हैं। ऐसा प्रयास करना भी चाहिए।
इस निश्चय व यत्न से हमें सफलता मिलती रहती है, किन्तु यह सफलता सीमित मात्रा में मिलती है। हमारी अशान्ति का कारण मात्र बाह्य-अशान्ति ही नहीं होती। हम अपनी असमर्थता, अकुशलता, अल्पज्ञता, आलस्य, उपेक्षा आदि के कारण भी अशान्त-दुःखी होते रहते हैं। इनसे होने वाली अशान्ति कम नहीं होती, बहुत अधिक होती है। हम इनके कारण न केवल बाह्य-अशान्ति के बिना भी अशान्त होते रहते हैं बल्कि बाह्य-अशान्ति से होने वाली अशान्ति को कई गुणा बढ़ा लेते हैं। हम बार-बार उन्हीं बाह्य-विषयों को विचारते रहते हैं और बार-बार अशान्त होते रहते हैं।
बाह्य-अशान्ति को हम अपने प्रयास से कुछ दूर कर पाते हैं, पर पूरी तरह नहीं। बाह्य-अशान्ति को हम पूरी तरह समाप्त कर भी नहीं सकते। बाह्य-अशान्ति का कारण अन्य अनेक व्यक्ति भी होते हैं, जिन पर हम पूर्ण नियन्त्रण-नियमन नहीं कर सकते। लोग पुनः-पुनः अशान्ति का कारण बनते ही रहेंगे। किन्तु आन्तरिक-अशान्ति को हम पूरी तरह समाप्त कर सकते हैं क्योंकि इसका मुख्य कारण हम स्वयं हैं। यदि हम चाहें तो आन्तरिक-अशान्ति को पूर्णतः हटा सकते हैं, इसमें कोई हस्तक्षेप भी नहीं कर सकता।
हम अपने मन के ऊपरी तल पर जीते रहते हैं। मन का ऊपरी तल विभिन्न-बाह्य घटनाओं व आन्तरिक वृत्तियों से चलायमान-दोलायमान बना रहता है। इसी चंचलता में जीते हुए हम इनसे सतत प्रभावित होते रहते हैं, अशान्त व दुःखी होते रहते हैं। मन के इस ऊपरी तल पर सामान्यतः हम अल्प नियन्त्रण ही कर पाते हैं। प्रभु-कृपा से यदि हमम न के अन्दर गहराई में प्रविष्ट हो जायें तो गहन शान्ति को तत्क्षण उपलब्ध हो सकते हैं।
समुद्र ऊपरी तल पर सदा चंचल-दोलायमान बना रहता है, अतः अशान्त भी बना रहता है। उसमें बडे़-बडे़ तूफान भी आते हैं, तब अत्यन्त अशान्त हो जाता है। इसी प्रकार मन का ऊपरी भाग भी थोड़ा या अधिक चलायमान बना रहता है। यदि हम उसमें तैरने-ठहरने में समर्थ नहीं होते हैं, तो अशान्त भी होते रहते हैं। जैसे समुद्र की गहराई में उतर जाने पर चंचलता- अशान्ति नहीं रहती, इसी प्रकार यदि हम मन की गहराई में उतर जायें तो चंचलता-अशान्ति से उबर कर स्थिरता-शान्ति-सुख को उपलब्ध हो सकते हैं।
एकान्त में बैठकर जैसे ही हम मन में गहरे से गहरे उतरते जाते हैं, वैसे ही चंचलता- अशान्ति-दुःख से दूर हट जाते हैं और स्थिरता-शान्ति-सुख से युक्त होते जाते हैं। प्रभु ने हमें ऐसा मन दिया है जो लोक-व्यवहार हेतु चलायमान भी हो सकता है व आन्तरिक-व्यवहार हेतु पूर्ण स्थिर-एकाग्र भी हो सकता है। यह हमारी अकुशलता है कि हम लोक-व्यवहार में उपयोगी मन की चलायमानता (सक्रियता) को उच्छृंखल (अव्यवस्थित-अनियमित) करके लोक-व्यवहार में बाधाएं उत्पन्न कर लेते हैं व दुःखी होते रहते हैं। यह हमारी अज्ञानता है कि हम मन के स्थिर -एकाग्र हो सकने के सामर्थ्य का उचित व पर्याप्त उपयोग नहीं कर पाते हैं। प्रभु ने हम पर कृपा कर रखी है, हमें उस कृपा का लाभ उठाना है।

बुधवार, 8 अगस्त 2012

कर्म-विराम


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...............

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर 

आचार्य सत्यजित् जी 
प्रभु-कृपा से यह संसार गतिशील है। सब प्राणी भी गतिशील हैं, उनके लिये कर्म करते रहना आवश्यक है। कर्म से ही यह संसार-जीवन चल पाता है। कर्म से जीवन में सुख व सुख-साधनों की प्राप्ति होती है, दुःख व दुःख के कारणों को हटाया जाता है। सुख-शांति से जीने के लिये शारीरिक व मानसिक दोनों प्रकार के कर्म आवश्यक हैं। यदि कोई प्राणी कर्म न करना चाहे तो भी बिना कर्म के रह नहीं सकता। भूख-प्यास आदि दुःख व सुख का आवेग इतना कष्टदायक होता है कि व्यक्ति को कर्म करने ही होते हैं। कर्म करने में भी चूंकि कष्ट होता है अतः हम कर्म से बचते हुए दुःख की निवृत्ति व सुख की प्राप्ति चाहने लगते हैं। तब हम अल्प श्रम वाले अधर्म का मार्ग पकड़ लेते हैं। इस से हम अधिक दुःखी हो जाते हैं, अस्वस्थ हो जाते हैं।
प्रभु-कृपा से हममें से जो धर्म के मार्ग में आस्था रुचि रखते हैं वे कर्म के कष्ट से बचना नहीं चाहते। उन्हें कर्म के कष्ट से बड़ा कष्ट कर्म के न करने में दिखता है। कर्म से ही दुःख से ही दुःख की निवृत्ति व सुख की प्राप्ति होती है, यह स्वयं के व अन्यों के अनुभव को देखकर इम शारीरिक व मानसिक कर्म करने की ओर बढ़ जाते हैं। प्रत्यक्ष दुःख की निवृत्ति व प्रत्यक्ष सुख की प्राप्ति का आकर्षण बहुत बड़ा है, हमारी दृष्टि इसी पर टिकी रहती है, उससे हट कर देख पाना, दूर की सोच पाना प्रायः नहीं हो पाता है।
प्रभु-कृपा से निद्रा का वरदान हमें मिला है। कर्म करना आवश्यक है, पर उचित मात्रा में। कर्म करना आवश्यक है तो कर्म से विराम भी आवश्यक है। प्रभु के वरदान निद्रा का उचित उपयोग करते रहें तो हम पर्याप्त कर्म भी कर पाते हैं। यदि कर्म के आवेग में निद्रा का सेवन (कर्म विराम) न करें या कम करें तो प्रभु बलात् निद्रा दिला देता है। फिर भी हम उसका विरोध करें तो रोग के कारण विराम लेना ही पड़ता है। प्रश्न उठता है कि दुःख की निवृत्ति व सुख की प्राप्ति की आशा से किये गये कर्म की परिणति दुःख की प्राप्ति व सुख की निवृत्ति में कैसे हो गई ? कर्म से विराम न लेने के कारण।
प्रभु-कृपा से इस शारीरिक व कुछ मानसिक कर्म-विराम की प्राप्ति निद्रा से होने को हम स्वीकारते हैं व प्रायः पालते भी हैं या कहें यह स्वभावतः होता भी रहता है। किन्तु ऐसा जानते-मानते हुए भी हम जगते समय मन को विराम देने की कला न जानने से मानसिक रूप से अत्यधिक कर्म करते चले जाते हैं। जिस प्रकार थका शरीर अपना संतुलन व कार्यक्षमता खोता जाता है, उसी प्रकार विचारों के प्रवाह में थका मन भी अपना संतुलन व कार्यक्षमता खोता जाता है। परिणाम यह होता है कि हम छोटे-छोटे कारणों से उद्वेलित-आवेशित-अनियंत्रित हो जाते हैं। इससे स्वयं भी दुःखी होते हैं व अन्यों को भी दुःखी करके अपने लिये पाप कमा कर भविष्य में अपने घोर दुःख पाने की व्यवस्था कर लेते हैं।
मन के कर्म अर्थात् विचारों का करना जीवन के लिये आवश्यक है। यह दुःख की निवृत्ति व सुख की प्राप्ति के लिये आवश्यक है। विचारों का कर्म-विराम प्रभु-कृपा से निद्रा में हो भी जाता है, किन्तु जिस प्रकार अधिक शारीरिक कर्म करने पर निद्रा पूरी थकान को हटा नहीं पाती है उसी प्रकार अत्यधिक व अनियन्त्रित विचार से उत्पन्न मानसिक थकान को निद्रा पूरी तरह हटा नहीं पाती है।
प्रभु-कृपा से इसके लिये उपाय हैं। योग के द्वारा चित्तवृत्तियों को रोक देना। योग-समाधि-ध्यान के द्वारा विचारों को नियंत्रित करना हमारे सुखी-शांत जीवन के लिये आवश्यक है। एक ओर जहां इससे निद्रा के समान विश्राम-बल मिलता है वहीं दूसरी ओर मन के नियन्त्रित होने से विचारों पर नियन्त्रण बना रहता है, फलतः मानसिक थकान अधिक नहीं होती। मन उद्वेलित नहीं होता। मन उद्वेलित-आवेशित-अनियन्त्रित नहीं होता। यम-नियम के पालन से हमारा मन विचारों के अनियन्त्रित प्रवाह में फंसने से बचा रहता है।
शारीरिक-कर्मविराम के महत्त्व को हम प्रायः समझते हैं, उसे कर भी पाते हैं। प्रभुकृपा से मानसिक-कर्मविराम के लाभ को भी अधिकांश जागरूक व्यक्ति समझते है, किन्तु उसे प्रायः कर नहीं पाते हैं। विचार करते रहने में पड़े रहकर हम अपने को बहुत दुःख देते रहते हैं। प्रभु-कृपा से हमारे में यह सामर्थ्य है कि हम वैचारिक कर्म-विराम का अभ्यास करते हुए अपने को इस दुःख से बचा सकते हैं, इच्छित सुख-शांति पा सकते हैं।
परोपकारी अगस्त (प्रथम)२०११ 

सोमवार, 6 अगस्त 2012

थोड़ा सा बच के


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...............

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर 

आचार्य सत्यजित् जी
प्रभुकृपा से जीवन अच्छा चल रहा है। भौतिक सुख-सुविधायें ठीक-ठीक हैं, परिश्रम कर रहे हैं, आवश्यकताओं की पूर्ति हो रही है, यह एक सन्तोष की बात है। जीवन केवल भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए नहीं चल रहा है, उसमें परोपकार-सेवा भी है, दया-प्रेम भी है, सत्संग-स्वाध्याय भी है यह और भी बड़े सन्तोष की बात है। भौतिक सुख-सुविधाओं के साथ यदि परोपकारादि गुण न हों, तो जीवन एकांगी व नीरस रहता है। इसमें बाह्यसुख तो संतोष जनक मिल जाते हैं, किन्तु आंतरिक सुख नहीं मिल पाता है। भौतिक सुख-सुविधाओं के रहते जब परोपकारादि भी किए जाते हैं तब आन्तरिक सुख भी मिलता रहता है।
प्रभुकृपा से बाह्य व आन्तरिक सुख युक्त जीवन चलाते हुए हम प्रायः सन्तुष्ट भी रहते हैं। जिनमें कुछ और अधिक सात्विकता उभरती है वे ईश्वर विश्वास भी साथ में रखते हैं। उनके जीवन में ईश्वर-समर्पण का भाव उभर आता है वे भौतिक सुख-सुविधाओं से थोड़ा बच कर चलते हैं। अपने लिए भौतिक सुख-सुविधाओं को पाना उनके लिए मुख्य नहीं रहता। वे जीवन को परोपकार, सेवा आदि में अधिक लगा देते हैं। यह बड़ी ही सन्तोष जनक स्थिति होती है। व्यक्ति स्वयं भी अपने आप से पर्याप्त सन्तुष्ट रहता है, अन्य भी उसे प्रेरणादायी मानते हैं, उसकी प्रशंसा करते हैं। वर्षों तक ऐसा त्यागयुक्त अच्छा जीवन जीते जाने वाले बहुत व्यक्ति हैं।
प्रभुकृपा से ऐसा अच्छा जीवन जीते हुए भी जिन व्यक्तियों के बीच हम कार्यरत होते हैं, जिनके साथ रहते हैं, जिन के साथ खाते-पीते हैं, उठते-बैठते हैं, उनसे धीरे-धीरे थोड़े राग-द्वेष बनने लग जाते हैं। जिस संस्था या साधनों में रहते हुए ऐसा अच्छा जीवन जी रहे होते हैं, उस संस्था व साधनों से धीरे-धीरे थोड़ा राग-लगाव बनने लगता है। यह थोड़ा सा राग या थोड़ा सा द्वेष आरम्भ में पता तक नहीं चलता। परोपकार से व दया-प्रेम, सत्संग-स्वाध्याय आदि के कारण अपना जीवन इतना अच्छा लगता है कि जीवन में किसी दोष-कमी की संभावना तक नहीं दीखती।
परोपकारादि के आन्तरिक सुख से सन्तुष्ट-तृप्त हुए हम उस में बढ़-चढ़ कर लगे रहते हैं। तन-मन-धन से उसमें लगे रहते हैं, खूब परिश्रम करते हैं। हमें यह आभास ही नहीं होता कि इसके साथ कुछ छोटे-मोटे राग-द्वेष जुड़ते चले जा रहे हैं। जैसे भौतिक सुख-साधनों को प्राप्त करने में लगे व जुटे व्यक्ति को परोपकार, सेवा, सत्संग-स्वाध्याय आदि नहीं सूझते, उसके पास इन सब को सोचने के लिए समय ही नहीं होता। बस भौतिक सुख-सुविधाओं में मस्त रहते हुए जैसा जीवन चल रहा है, वह चलता चला जाता है। इसी प्रकार भौतिक सुख-सुविधाओं से थोड़ा बच कर परोपकार-ईश्वरविश्वास से युक्त जीवन जीते हुए भी हम उस में ऐसे लगे-जुटे रहते हैं कि अपने में पनप रहे राग-द्वेष को देख-जान-समझे ही नहीं पाते। जीवन में जुड़ते-बढ़ते जा रहे राग-द्वेष के बारे में सोचने का समय तक हमारे पास नहीं होता। बस, परोपकार-सेवा आदि से प्राप्त आन्तरिक सुख व यश-प्रशंसा में मस्त रहते हुए जैसा जीवन चल रहा है वैसा ही चलता चला जाता है।
प्रभु की अत्यधिक कृपा है उन पर, बड़े सौभाग्यशाली हैं वे, जो इन परोपकारादि उत्तम कार्यों को करते हुए यह विचारने का समय भी निकाल लेते हैं कि मैं थोड़ा-थोड़ा कहीं राग-द्वेष से युक्त तो नहीं हो रहा हूँ। अपने राग-द्वेष को जानकर, उनसे बच जाते हैं व उच्च आध्यात्मिक जीवन जीते हुए परोपकारादि शुभ कर्मों में लगे रहते हैं। शुभ कर्मों को करते-करते  भी सावधानी से थोड़ा बच के चलते रहना होता है, नहीं तो ये थोड़े-थोडे़ राग-द्वेष आगे चल कर इतने अच्छे जीवन को पतित कर डालते हैं।
प्रभुकृपा से हम थोड़ी सी सावधानी-सजगता बनाये रखें, थोड़ा से बचते-बचते चलें तो दीर्घ परोपकारी जीवन के अन्त में अपने जीवन को सार्थक देख पायेंगे। जीवन की सन्ध्या में हमें अपने से कोई शिकायत नहीं रहेगी, अपने से कोई ग्लानि-असन्तुष्टि नहीं रहेगी। हमारा जीवन भर रहा धर्म व ईश्वर पर विश्वास डगमगायेगा नहीं, उसमें अविश्वास-शिथिलता नहीं आयेगी। पूर्ण सन्तोष, पूर्ण आत्मविश्वास, पूर्ण निभर्यता, पूर्ण उत्साह, पूर्ण तृप्ति के साथ रहते हुए अन्यों को भी इसी मार्ग चलने की अधिकाधिक प्रेरणा करते हुए, अपने पर प्रभु की पूर्ण कृपा होने की सन्तुष्टि रख पायेंगे। अतः थोड़ा सा बचके।

रविवार, 5 अगस्त 2012

प्राणायाम का लाभ

स्वामी दयानन्द जी सरस्वती
सत्यार्थ प्रकाश तृतीय समुल्लास
प्रथम संस्करण

स्वामी दयानन्द जी का
वास्तविक चित्र
१८ अगस्त १८७७ को
 गुरुदासपुर (पंजाब ) में लिया गया 

योगशास्त्र की रीति से प्राणों के और इन्द्रियों के जीतने के लिये उपाय का उपदेश करैं सो यह योगशास्त्र 1.34 का सूत्र है-
प्रच्छर्द्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य।
इसका यह अर्थ है कि छर्द्दन नाम वमन का है जैसे कि मक्खी वा और कुछ पदार्थ खाने में उदर से मुख द्वारा अन्न बाहर निकल जाता है और प्रकृष्टंच तच्छर्द्दनंच प्रच्छर्द्दनम् अत्यन्त जो बल से वमन का होना उसका नाम प्रच्छर्द्दन है।। विधारणं नाम विरुद्धंच तद्धारणंच विधारणम्। जैसे कि उस अन्न का धारण पृथिवी में होता है उसको देख के घृणा होती है तो ग्रहण की इच्छा कैसे होगी, कभी न होगी। यह दृष्टान्त हुआ। परन्तु दार्ष्टान्त इसका यह है कि नाभि के नीचे अर्थात् मूलेन्द्रिय से लेके धैर्य से अपानवायु को नाभि में ले आना, नाभि से अपान को और समान को हृदय में ले आना, हृदय में दोनों वे और तीसरा प्राण इन तीनों को बल से नासिका द्वार से बाहर आकाश में फेंक देना अर्थात् जो वायु कुछ नासिका द्वार से निकलता है और भीतर जाता है उन सबका नाम प्राण है। उसको मूलेन्द्रिय, नाभि और उदर को ऊपर उठाले तब तक वायु न निकले, पीछे हृदय में इकट्ठा करके जैसे कि वमन में अन्न बाहर फेंका जाता है, वैसे सब भीतर के वायु को बाहर फेंक दे। फिर उसको ग्रहण न करै, जितना सामर्थ्य होय, तब तक बाहर की वायु को रोक रक्खै। जब चित्त में कुछ क्लेश होय, तब बाहर से वायु को धीरे-धीरे भीतर ले जाय, फिर उसको वैसा ही वारम्वार 20 वार भी करेगा तो उसका प्राण वायु स्थिर हो जायगा और उसके साथ चित्त भी स्थिर होगा। बुद्धि और ज्ञान बढे़गा। बुद्धि इस प्रकार तीव्र होगी कि बहुत कठिन विषय को भी शीघ्र जान लेगी। शरीर में भी बल पराक्रम होगा और वीर्य भी स्थिर होगा तथा जितेन्द्रियता होगी। सब शास्त्रों को बहुत थोड़े काल में पढ़ लेगा। इससे यह दोनों उपदेशों को यथावत् अपने सन्तानों को कर दे।

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

आखिर कितनी बार और गिरना है ?


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण............

आखिर कितनी बार और गिरना है ?

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर
आचार्य सत्यजित् जी

प्रभुकृपा से धर्मनिष्ठ साधनारत व्यक्ति अपने को शुद्ध-पवित्र बनाते जाते हैं। वर्षों तक सतत् धर्मानुष्ठान व साधना में लगे रहने वाले व्यक्ति भी मोक्ष मार्ग के पथिक ही होते हैं, अभी उन्होंने अन्तिम लक्ष्य नहीं पा लिया होता है, अभी वे जीवन-मुक्त नहीं हो गये होते हैं। अभी वे अपने अविद्या-संस्कारों को दग्धबीज नहीं कर पाये होते हैं, अतः समय-समय पर किसी-किसी विषय में उनका निचले स्तर पर आ-जाना होता रहता है। पर साथ ही उनका ऊँचे उठने का क्रम भी चलता रहता है। जन सामान्य की दृष्टि में वे उच्च आधात्मिक स्तर के होते हैं, जन सामान्य उनसे प्रेरणा भी लेता रहता है।
प्रभुकृपा से अध्यात्म-मार्ग को समझकर उस पर चल पड़ा साधक भी इस मार्ग में बालक या किशोरवत् हीे होता है। जैसे बालक या किशोर अधिक आशावादी होते हैं, ऊँची सोचते हैं, शीघ्र सफलता पाना चाहते हैं, अधिक उत्सुकता व कम धैर्य वाले होते हैं, ऐसा ही नया साधक भी होता है। उसे अपनी सामर्थ्य की न्यूनता तो प्रतीत होती है। पर वह थोडे़ प्रयत्न के बाद ही सफलता की अपेक्षा करने लगता है, वह शीघ्र व बड़ी सफलता पाना चाहता है। उसे अपना प्रयत्न व साधना में लगाया गया काल पर्याप्त लगने लगता है, पर तदनुरूप पर्याप्त सफलता जीवन में दिखला नहीं देती। वह अब भी अपने को दोषों में घिरा पाता है। दोषों से बचने का संकल्प व प्रयत्न बार-बार करते हुए भी, बार-बार संकल्प टूटने व गिरने की अनिष्ट स्थिति में अपने आप को पाता है।
प्रभुकृपा को स्वीकारने वाला साधक इसे तो प्रभुकृपा मान लेता है कि मैं अपने दोषों को जान पाता हूँ, दोषों को मैं जानकर दुःखी होता हूँ, उन्हें पुनः न करने का संकल्प लेता हूँ व इस ओर प्रयत्न भी करता हूँ। यह वास्तव में प्रभु कृपा है भी, यह सब भावी प्रगति का लक्षण भी है। किन्तु साधक को अपना बार-बार गिरना बहुत बुरा लगता है, स्वीकार्य नहीं होता, पुनरपि गिरना होता ही रहता है, होता ही रहता है। साधक के मन में तब प्रश्न उठता है- आखिर कितनी बार और गिरना है ?
यह साधक के लिए अच्छी बात है कि वह इस प्रश्न पर विचार करने लगा है। ऐसी स्थिति के लिए साधक स्वयं भी अपने अनुभव के आधार पर उचित निर्णय निकाल सकता है। कितने भी निचले स्तर का साधक हो, उसने भी अनेक दुर्गुणों पर विजय पाई होती है, अनेक शुभ गुणों का अच्छी प्रकार पालन किया होता है। प्रश्न उठते हैं कि साधक अब तक यह सब कैसे कर पाया था ? यदि पहले सफलता मिली है तो आगे उसी विधि से सफलता क्यों नही मिल सकती ? यदि कुछ दुगुर्णों से पूरी तरह या पर्याप्त मात्रा में बच चुका है, तो अन्य शेष दुर्गुणों से कैसे नहीं बच सकता ? बच सकता है, किन्तु साधक को अपने पर विश्वास नहीं होता है कि मैं इन शेष दुर्गुणों से बच जाऊँगा। उसके मन में तो यही प्रश्न उठता रहता है कि आखिर कितनी बार और गिरना है ?
दोषों को जानना, न हटा पा सकने पर दुःखी होना आदि आध्यात्मिक दृष्टि सहायक अच्छे लक्षण हैं, किन्तु इतना पर्याप्त नहीं हो पाता है। क्योंकि उस दोष से सम्बन्धित जन्म-जन्मान्तर के संस्कार बहुत प्रबल हैं और दोष की गहराई से पूरी विवेचना नहीं हो पाई है। दोष यदि पूर्णतः हानिकर समझ में आ जाये उसमें कोई लाभ-सुख न दिखे, तो उसका दूर हटना सरल हो जाता है। जिस जिस भी दुर्गुण से हम अब तक हटे हैं, उनसे तभी हट पाये हैं, जब हमें उनकी हानि पूर्णतः समझ में आ गई। इसी प्रकार आगे भी अन्य दुर्गुण हटाये जा सकते हैं।
यदि हानि को पूर्णतः समझ लेने पर भी दुर्गुण नहीं हट पा रहा है, पुनः-पुनः पतन हो जाता है, व्रत संकल्प टूट जाते हैं, तो यह जन्म-जन्मान्तर के प्रबल संस्कारों के कारण हो रहा होगा, ऐसा माना जा सकता है। ऐसे में साधक के लिए उस दुर्गुण के दोष-दर्शन, उसके हटाने का संकल्प व आलम्बन से दूर रहना, ये प्रमुख उपाय करणीय होते हैं। इन्हें करते-करते भी यदि संकल्प टूटता है-पतन होता है, तो भी बिना निराश हुए ये प्रयत्न करते रहने होते हैं। इन प्रयत्नों से जब संस्कार क्षीण हो जायेंगे, तब अचानक उस दोष से छुटकारा मिल जायेगा।
अध्यात्म में प्रगति के लिए किया गया छोटा सा भी प्रयत्न निष्फल नहीं होता। अपने को नए दोषों-संस्कारों से बचाये रखते हुए पिछले दोष-संस्कार काटते रहने होते हैं। इसी रीति से धीरे-धीरे सफलता मिलती है, समय की पर्याप्त अपेक्षा है, पर्याप्त धैर्य चाहिए। प्रभु के विधान पर चलने में असफलता का क्या प्रश्न ? आशंका की क्या बात ? हर पतन के बाद पूरे घटनाक्रम पर सावधानी से विचार करने का समय निकाला जाए तो कारण पकड़ने में आने लगते हैं। कारण पता लगने पर समाधान ढूंढना कठिन नहीं होता, वह स्वतः भी ज्ञात हो जाता है। तब पतन रुक जायेगा। आखिर कितनी बार और गिरना है ? जब तक गिरने से सीख नहीं लेंगे, गिरने से समझ नहीं बनायेंगे, गिरने से विवेक प्राप्त नहीं करेंगे, तब तक गिरते रहना है।

रविवार, 22 जुलाई 2012

ब्रह्मचर्य व्रत का पालन


अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल जी की आत्मकथा से 

रामप्रसाद बिस्मिल जी 

वर्तमान समय में इस देश की कुछ ऐसी दुर्दशा हो रही है कि जितने धनी तथा गणमान्य व्यक्ति हैं उनमें 99 प्रतिशत ऐसे हैं जो अपनी सन्तान-रूपी अमूल्य धन-राशि को अपने नौकर तथा नौकरानियों के हाथ में सौंप देते हैं । उनकी जैसी इच्छा हो, वे उन्हें बनावें ! मध्यम श्रेणी के व्यक्‍ति भी अपने व्यवसाय तथा नौकरी इत्यादि में फँसे होने के कारण सन्तान की ओर अधिक ध्यान नहीं दे सकते । सस्ता कामचलाऊ नौकर या नौकरानी रखते हैं और उन्हीं पर बाल-बच्चों का भार सौंप देते हैं, ये नौकर बच्चों को नष्‍ट करते हैं । यदि कुछ भगवान की दया हो गई, और बच्चे नौकर-नौकरानियों के हाथ से बच गए तो मुहल्ले की गन्दगी से बचना बड़ा कठिन है । रहे-सहे स्कूल में पहुँचकर पारंगत हो जाते हैं । कालिज पहुँचते-पहुँचते आजकल के नवयुवकों के सोलहों संस्कार हो जाते हैं । कालिज में पहुँचकर ये लोग समाचार-पत्रों में दिए औषधियों के विज्ञापन देख-देखकर दवाइयों को मँगा-मँगाकर धन नष्‍ट करना आरम्भ करते हैं । 95 प्रतिशत की आँखें खराब हो जाती हैं । कुछ को शारीरिक दुर्बलता तथा कुछ को फैशन के विचार से ऐनक लगाने की बुरी आदत पड़ जाती है शायद ही कोई विद्यार्थी ऐसा हो जिसकी प्रेम-कथा कथायें प्रचलित न हों । ऐसी अजीब-अजीब बातें सुनने में आती हैं कि जिनका उल्लेख करने से भी ग्लानि होती है । यदि कोई विद्यार्थी सच्चरित्र बनने का प्रयास भी करता है और स्कूल या कालिज में उसे कुछ अच्छी शिक्षा भी मिल जाती है, तो परिस्थितियाँ जिनमें उसे निर्वाह करना पड़ता है, उसे सुधरने नहीं देतीं । वे विचारते हैं कि थोड़ा सा जीवन का आनन्द ले लें, यदि कुछ खराबी पैदा हो गई तो दवाई खाकर या पौष्‍टिक पदार्थों का सेवन करके दूर कर लेंगे । यह उनकी बड़ी भारी भूल है । अंग्रेजी की कहावत है "Only for one and for ever." तात्पर्य यह है कि कि यदि एक समय कोई बात पैदा हुई, मानो सदा के लिए रास्ता खुल गया । दवाईयाँ कोई लाभ नहीं पहुँचाती । अण्डों का जूस, मछली के तेल, मांस आदि पदार्थ भी व्यर्थ सिद्ध होते हैं । सबसे आवश्यक बात चरित्र सुधारना ही होती है । विद्यार्थियों तथा उनके अध्यापकों को उचित है कि वे देश की दुर्दशा पर दया करके अपने चरित्र को सुधारने का प्रयत्‍न करें । सार में ब्रह्मचर्य ही संसारी शक्तियों का मूल है । बिन ब्रह्मचर्य-व्रत पालन किए मनुष्य-जीवन नितान्त शुष्क तथा नीरस प्रतीत होता है । संसार में जितने बड़े आदमी हैं, उनमें से अधिकतर ब्रह्मचर्य-व्रत के प्रताप से बड़े बने और सैंकड़ों-हजारों वर्ष बाद भी उनका यशगान करके मनुष्य अपने आपको कृतार्थ करते हैं । ब्रह्मचर्य की महिमा यदि जानना हो तो परशुराम, राम, लक्ष्मण, कृष्ण, भीष्म, ईसा, मेजिनी बंदा, रामकृष्ण, दयानन्द तथा राममूर्ति की जीवनियों का अध्ययन करो ।


जिन विद्यार्थियों को बाल्यावस्था में कुटेव की बान पड़ जाती है, या जो बुरी संगत में पड़कर अपना आचरण बिगाड़ लेते हैं और फिर अच्छी शिक्षा पाने पर आचरण सुधारने का प्रयत्‍न करते हैं, परन्तु सफल मनोरथा नहीं होते, उन्हें भी निराश न होना चाहिए । मनुष्य-जीवन अभ्यासों का एक समूह है । मनुष्य के मन में भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक विचार तथा भाव उत्पन्न होते रहते हैं । क्रिया के बार-बार होने से उसमें ऐच्छिक भाव निकल जाता है और उसमें तात्कालिक प्रेरणा उत्पन्न हो जाती है । इन तात्कालिक प्रेरक क्रियाओं की, जो पुनरावृत्ति का फल है, 'अभ्यास' कहते हैं । मानवी चरित्र इन्हीं अभ्यासों द्वारा बनता है । अभ्यास से तात्पर्य आदत, स्वभाव, बान है । अभ्यास अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के होते हैं । यदि हमारे मन में निरन्तर अच्छे विचार उत्पन्न हों, तो उनका फल अच्छे अभ्यास होंगे और यदि बुरे विचारों में लिप्‍त रहे, तो निश्‍चय रूपेण अभ्यास बुरे होंगे । मन इच्छाओं का केन्द्र है । उन्हीं की पूर्ति के लिए मनुष्य को प्रयत्‍न करना पड़ता है । अभ्यासों के बनने में पैतृक संस्कार, अर्थात् माता-पिता के अभ्यासों के अनुकरण ही बच्चों के अभ्यास का सहायक होता है । दूसरे, जैसी परिस्थियों में निवास होता है, वैसे ही अभ्यास भी पड़ते हैं । तीसरे, प्रयत्‍न से भी अभ्यासों का निर्माण होता है, यह शक्‍ति इतनी प्रबल हो सकती है कि इसके द्वारा मनुष्य पैतृक संसार तथा परिस्थितियों को भी जीत सकता है । हमारे जीवन का प्रत्येक कार्य अभ्यासों के अधीन है । यदि अभ्यासों द्वारा हमें कार्य में सुगमता न प्रतीत होती, तो हमारा जीवन बड़ा दुखमय प्रतीत होता । लिखने का अभ्यास, वस्‍त्र पहनना, पठन-पाठन इत्यादि इनके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । यदि हमें प्रारम्भिक समय की भाँति सदैव सावधानी से काम लेना हो, तो कितनी कठिनता प्रतीत हो । इसी प्रकार बालक का खड़ा होना और चलना भी है कि उस समय वह कितना कष्‍ट अनुभव करता है, किन्तु एक मनुष्‍य मीलों तक चला जाता है । बहुत लोग तो चलते-चलते नींद भी ले लेते हैं । जैसे जेल में बाहरी दीवार पर घड़ी में चाबी लगाने वाले, जिन्हें बराबर छः घंटे चलना होता है, वे बहुधा चलते-चलते सो लिया करते हैं ।



मानसिक भावों को शुद्ध रखते हुए अन्तःकरण को उच्च विचारों में बलपूर्वक संलग्न करने का अभ्यास करने से अवश्य सफलता मिलेगी । प्रत्येक विद्यार्थी या नवयुवक को, जो कि ब्रह्मचर्य के पालन की इच्छा रखता है, उचित है कि अपनी दिनचर्या निश्‍चित करे । खान-पानादि का विशेष ध्यान रखे । महात्माओं के जीवन-चरित्र तथा चरित्र-संगठन संबन्धी पुस्तकों का अवलोकन करे । प्रेमालाप तथा उपन्यासों से समय नष्‍ट न करे । खाली समय अकेला न बैठे । जिस समय कोई बुरे विचार उत्पन्न हों, तुरन्त शीतल जलपान कर घूमने लगे या किसी अपने से बड़े के पास जाकर बातचीत करने लगे । अश्‍लील (इश्कभरी) गजलों, शेरों तथा गानों को न पढ़ें और न सुने । स्‍त्रियों के दर्शन से बचता रहे । माता तथा बहन से भी एकान्त में न मिले । सुन्दर सहपाठियों या अन्य विद्यार्थियों से स्पर्श तथा आलिंगन की भी आदत न डाले।



विद्यार्थी प्रातःकाल सूर्य उदय होने से एक घण्टा पहले शैया त्यागकर शौचादि से निवृत हो व्यायाम करे या वायु-सेवनार्थ बाहर मैदान में जावे । सूर्य उदय होने के पाँच-दस मिनट पूर्व स्नान से निवृत होकर यथा-विश्‍वास परमात्मा का ध्यान करे । सदैव कुऐं के ताजे जल से स्नान करे । यदि कुऐं का जल प्राप्‍त हो तो जाड़ों में जल को थोड़ा-सा गुनगुना कर लें और गर्मियों में शीतल जल से स्नान करे । स्नान करने के पश्‍चात् एक खुरखुरे तौलिये या अंगोछे से शरीर खूब मले । उपासना के पश्‍चात् थोड़ा सा जलपान करे । कोई फल, शुष्क मेवा, दुग्ध अथवा सबसे उत्तम यह है कि गेहूँ का दलिया रंधवाकर यथारुचि मीठा या नमक डालकर खावे । फिर अध्ययन करे और दस बजे से ग्यारह बजे के मध्य में भोजन ले । भोज में मांस, मछली, चरपरे, खट्टे गरिष्‍ट, बासी तथा उत्तेजक पदार्थों का त्याग करे । प्याज, लहसुन, लाल मिर्च, आम की खटाई और अधिक मसालेदार भोजन कभी न खावे । सात्विक भोजन करे । शुष्‍क भोजन का भी त्याग करे । जहाँ तक हो सके सब्जी अर्थात् साग अधिक खावे । भोजन खूब चबा-चबा कर किया करे । अधिक गरम या अधिक ठंडा भोजन भी वर्जित है । स्कूल अथवा कालिज से आकर थोड़ा-सा आराम करके एक घण्टा लिखने का काम करके खेलने के लिए जावे । मैदान में थोड़ा घूमे भी । घूमने के लिए चौक बाजार की गन्दी हवा में जाना ठीक नहीं । स्वच्छ वायु का सेवन करें । संध्या समय भी शौच अवश्य जावे । थोड़ा सा ध्यान करके हल्का सा भोजन कर लें । यदि हो सके तो रात्रि के समय केवल दुग्ध पीने का अभ्यास डाल लें या फल खा लिया करें । स्वप्नदोषादि व्याधियां केवल पेट के भारी होने से ही होती हैं । जिस दिन भोजन भली भांति नहीं पचता, उसी दिन विकार हो जाता है या मानसिक भावनाओं की अशुद्धता से निद्रा ठीक न आकर स्वप्नावस्था में वीर्यपात हो जाता है । रात्रि के समय साढ़े दस बजे तक पठन-पाठन करे, पुनः सो जावे । सदैव खुली हवा में सोना चाहिये । बहुत मुलायम और चिकने बिस्तर पर न सोवे । जहाँ तक हो सके, लकड़ी के तख्त पर कम्बल या गाढ़े कपड़े की चद्दर बिछाकर सोवे । अधिक पाठ न करना हो तो 9 या 10 बजे सो जावे । प्रातःकाल 3 या 4 बजे उठकर कुल्ला करके शीतल जलपान करे और शौच से निवृत हो पठन-पाठन करें । सूर्योदय के निकट फिर नित्य की भांति व्यायाम या भ्रमण करें । सब व्यायामों में दण्ड-बैठक सर्वोत्तम है । जहाँ जी चाहा, व्यायाम कर लिया । यदि हो सके तो प्रोफेसर राममूर्ति की विधि से दण्ड-बैठक करें । प्रोफेसर साहब की विधि विद्यार्थियों के लिए लाभदायक है । थोड़े समय में ही पर्याप्‍त परिश्रम हो जाता है । दण्ड-बैठक के अलावा शीर्षासन और पद्‍मासन का भी अभ्यास करना चाहिए और अपने कमरे में वीरों और महात्माओं के चित्र रखने चाहियें ।

साभार-जाट लैंड (रामप्रसाद बिस्मिल जी) की आत्मकथा से 

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

मैं भी ऐसा हो सकता हूँ

आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण........
-आचार्य सत्यजित् जी

-आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर

प्रभुकृपा से मुझे यह मानव-तन मिला। समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ तन है यह। श्रेष्ठ बुद्धि-इन्द्रियों-शरीर का जितना श्रेष्ठ उपयोग करके अपने जीवन को मैं जितना श्रेष्ठ बना सकता था, वह नहीं बना पाया हूँ। जितने दुर्गुण मुझे दूर कर लेने चाहिए थे, वे हो नहीं पाये हैं। मैं प्रयास करता हूँ, पर सफलता नहीं मिलती। अनेक बार प्रयास करना चाहते हुए भी प्रयास नहीं कर पाता हूँ, कम प्रयास कर पाता हूँ। क्यों ?
मैं जैसा जीवन जी रहा हूँ, उससे अच्छा जीवन जीने वाले बहुत हैं। मेरे से अधिक विद्वान्-ज्ञानी, मेरे से अधिक शांत-एकाग्र, मेरे से अधिक तपस्वी, मेरे से अधिक संयमी, मेरे से अधिक वीतराग, मेरे से अधिक सात्त्विक, मेरे से अधिक प्रयत्नशील-पुरुषार्थी, मेरे से अधिक ईश्वर-भक्त, मेरे से अधिक मुमुक्षु.................। ये इतने अच्छे धार्मिक-आध्यात्मिक व्यक्ति बन गये, मैं नहीं बन पाया, क्यों ? मेरे में क्या कमी है ? क्या मेरे प्रति ईश्वर की कृपा कम है ? क्या मैं ईश्वर का उतना प्रिय नहीं हूँ ? क्या मेरी आत्मा दुर्बल-अयोग्य-अक्षम है ? क्या ये भिन्न प्रकार की आत्माएँ है ? जो अच्छा आध्यात्मिक जीवन जी रही हैं ?
मूलतः सभी आत्माएँ शक्ति-सामार्थ्य-स्वभाव में समान हैं। कर्मानुसार शरीर-बुद्धि आदि साधनों व संस्कारों में भिन्नता रहती है। यह भिन्नता किसी-किसी में अधिक रहती है। आत्मा की दृष्टि से मैं अन्यों के समान हूँ। पर शरीर-बुद्धि आदि साधनों व संस्कारों में भिन्नता रहती है। साधनों की भिन्नता देखकर प्रतीत होता है कि ईश्वर की इन पर अधिक कृपा है, मेरे पर कम कृपा है। किन्तु ईश्वर तो न्यायकारी है, उसके लिए सब आत्माएँ मूलतः समान हैं, किन्तु वह कर्मानुसार यथायोग्य न्यायानुसार फल देना ईश्वर का स्वभाव है, यह ईश्वर का अनुपम स्वभाव है। प्रभु की यह कृपा तो मेरे पर भी पूर्णतः विद्यमान है।
प्रभुकृपा से जो आत्माएँ धर्म-अध्यात्म के क्षेत्र में अच्छी प्रगति प्राप्त कर चुकी हैं, यह उनके परिश्रम-तपस्या के कारण हैं। मैं या कोई भी आत्मा वैसे ही परिश्रम-तपस्या करके धर्म-अध्यात्म के क्षेत्र में अच्छी प्रगति कर सकते हैं। जो आज उच्च आध्यात्मिक स्तर पर पहुँचे हैं, वे भी कभी अन्यों जैसे निम्न आध्यात्मिक स्तर के थे। उन्होंने प्रभुकृपा के महत्त्व को समझा, ज्ञान-तपस्या-संयम का मार्ग अपनाया, तो वे विशेष प्रभुकृपा के पात्र बन सके और उच्च आध्यात्मिक स्तर के शान्ति-सन्तोष-सुख में जी रहे हैं। मैं भी ऐसा हो सकता हूँ।
साधना करना मुझे कठिन लगता है। त्याग-तपस्या-संयम आदि को पालने में बड़ा कष्ट प्रतीत होता है, सांसारिक सुखों का आकर्षण प्रबल है, बार-बार संयम टूटता है, त्याग-तपस्या को छोड़ बैठता हूँ। क्या यह कठिनाई मात्र मेरे साथ है, क्या यह मात्र मेरे साथ हो रही है, क्या यह आज के युग में ही है ? इसी प्रकार की परिस्थिति में रहते हुए, इसी प्रकार की कठिनाई-कष्ट को उठाते हुए कुछ आत्माएँ उच्च आध्यात्मिक स्तर पर पहुँची हैं। मेरे साथ आने वाली कठिनाईयाँ व कष्ट अपूर्व-अद्भुत नहीं हैं, मात्र मुझे ही इससे नहीं गुजरना पड़ रहा है। हर आत्मा को इस प्रक्रिया से गुजरना होता है। पुराने कुसंस्कार बाधक बनते ही हैं।
प्रभुकृपा से धर्म-अध्यात्म का शुद्ध मार्ग मुझे मिला है, मैं इसके संपर्क में आ गया हूँ, यह मेरा एक बड़ा सौभाग्य है। मेरे में आध्यात्मिक जीवन जीने की इच्छा है, यह भी बड़ा सौभाग्य है। मैं अपने जीवन को शुद्ध सात्त्विक, संयमी, संतोषी, वीतरागयुक्त बनाना चाहता हूँ, यह इच्छा अनुपम है। इस इच्छा को बार-बार करके, इसे दृढ़ व व्यापक बनाकर, यथासामर्थ्य साधना करने में कष्ट-बाधा कम होते जायेंगे, आध्यात्मिक मार्ग पर चलना-बढ़ना-चढ़ना सरल होता जायेगा। इस प्रक्रिया से तो मुझे निकलना ही पडे़गा। पर इतना निश्चित है मैं भी अन्य उच्च आध्यात्मिक व्यक्तियों जैसा बन सकता हूँ, अवश्य बन जाऊँगा, प्रभुकृपा में कोई कमी नहीं है। आत्मा के आधार पर प्रभु की कृपा में कोई भेद नहीं है, योग्यतानुसार यथायोग्य कृपा वे सदा करते हैं। मुझे परिश्रम से अपनी योग्यता बढ़ानी है। मैं भी अन्यों जैसा श्रेष्ठ बन सकता हूँ। यदि मैंने सावधानी नहीं रखी तो मैं अन्यों जैसा निकृष्ट भी बन सकता हूँ।

बुधवार, 25 जनवरी 2012

शरीर जब तक दुःख तब तक।


                                 शरीर जब तक दुःख तब तक

भूमिकाः- शरीर हो, आत्मा के दुःख का कारण है, यह बताने के लिये आचार्यवर कहते हैं:-
आचार्य ज्ञानेश्वर जी 
आज एक बहुत-बड़ा अज्ञान सारे विश्व के मनुष्यों में यह घर कर गया है कि इस संसार में रहते हुये, शरीर को धारण करते हुये, संसार के पदार्थों को अधिकाधिक प्राप्त करते हुये और येन-केन प्रकारेण किसी भी कार्य को करके भी हम पूर्ण सुखी हो सकते हैं। यह केवल मिथ्या ज्ञान है। इस मिथ्या सिद्धान्त के कारण ही व्यक्ति न ईश्वर को ठीक प्रकार से जानने और उसको प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है और न ही और न उसको प्राप्त करने के मार्ग को जानता है और न ही उस मार्ग पर चलने के लिए विशेष तपस्या करता है, पुरूषार्थ करता है या योजना बनाता है। इस संबंध में लोगों के सिद्धान्त बदल गये हैं, परिभाषा बदल गई है। परिभाषा यह बन गई है कि मैं इस संसार में रहता हुआ, शरीर को धारण किया हुआ, अच्छे-अच्छे मकानों में रहता हुआ, पत्नी-बच्चों के साथ कमाता हुआ, खाता हुआ, पीता हुआ, घूमता हुआ और संसार का सुख लेता हुआ पूर्ण सुखी हो जाऊँगा। यह मिथ्या परिभाषा है। सैद्धान्तिक परिभाषा क्या है ? कोई भी व्यक्ति जिसने शरीर धारण किया हुआ है, वह पूर्ण रूप से दुःखों से रहित हो ही नहीं सकता। वह चाहे ऋषि भी क्यों न हो, मुनि भी क्यों न हो, चाहे उच्च कोटि का साधक क्यों न हो, संत क्यों न हो, जिसने शरीर को धारण किया हुआ है, जो प्रकृति के बंधन में आया हुआ है, वह व्यक्ति पूर्णरूपेण दुःखों से छूट ही नहीं सकता। शरीर के कारणउसे सोना ही पड़ता है। क्यों उसको सोना दुःखरूप लगता है, क्यों तमोगुण की, अज्ञान-अंधकार की अवस्था में जाये जीवात्मा ? शरीर के कारण उसे खाना पड़ता है, क्यों खाये जीवात्मा ? जीवात्मा तो नित्य (अमर) है, इसलिए उसे खाने की अपेक्षा नहीं है। किन्तु शरीर के कारण उसे खाना पड़ता है, शरीर के कारण कपड़े पहनने पड़ते हैं, शरीर के कारण बीमार पड़ता है, शरीर के कारण सारे क्रिया-कलाप करने पड़ते हैं। खिलाओ-पचाओ-निकालो, यह करो, वह करो।
इस बात को समझना जरूरी है कि- इस शरीर के अंदर प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ जीवात्मा बंधन को प्राप्त किया हुआ है। ईश्वर को ठीक प्रकार से जानकर के, समझकर के, उसकी उपासना करके, उसका साक्षात्कार करके और उससे विशेष ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करके व्यक्ति अपने अज्ञान को दूर कर सकता है और पूर्णरूपेण ईश्वर को समर्पित होकर के, उसके आदेश के अनुसार अपने जीवन को चला सकता है। वही व्यक्ति अज्ञान जनित जन्म-जन्मांतर के चित्त में बने हुए कुसंस्कारों को नष्ट करने में समर्थ हो सकता है। इसका अन्य कोई उपाय नहीं है। ईश्वर की उपासना एक बहुत-बड़ा साधन है, इस प्रकृति के बंधन से छूटने का। ईश्वर कैसा है, ईश्वर की उपासना कैसे की जाए, कब की जाए, किस प्रकार की जाए, इस विषय में बड़ी भ्रान्तियां हैं, मिथ्या ज्ञान हैं, संशय बने हैं।

सोमवार, 23 जनवरी 2012

विचारों की संलिप्तता


विचारों की संलिप्तता

आचार्य सत्यजित जी 
प्रभुकृपा से हमें वे सभी साधन मिले हैं, जो आध्यात्मिक प्रगति के लिए आवश्यक होते हैं। शरीर, इन्द्रियां, मन बुद्धि ये सब प्रभु के द्वारा इस तरह के बना कर दिये गये हैं कि इनका सदुपयोग करता हुआ व्यक्ति अवश्य ही आध्यात्मिक प्रगति कर लेता है। इन सब साधनों का उपयोग सभी करते हैं, किन्तु कोई न्यून करता है कोई अधिक, कोई दुरुपयोग करता है कोई सुदपायोग। यह प्रगति या अप्रगति का बड़ा कारण है।
शरीर को स्वस्थ-बलवान् बनाने के लिए बुद्धिपूर्वक आहार सामग्री व क्रियाकलापों का चयन या त्याग करना होता है। मन में ईश्वर की भावना मात्र से शरीर अध्यात्म के योग्य नहीं बना रह सकता। इन्द्रियों को स्वस्थ-बलवान-पवित्र बनाये रखने के लिए भी बहुत सोच-विचार कर बुद्धिपूर्वक निर्णय लेने होते हैं कि इन्द्रियों को किस विषय में लगाया जाए, कब लगाया जाए व कितना लगाया जाए। मन को शान्त-प्रसन्न-पवित्र-श्रद्धा युक्त बनाने के या बनाये रखने के लिए और अधिक सोच-विचार, ज्ञान व सावधानी की आवश्यकता होती है।
शरीर, इन्द्रियां, मन इन के सम्यक् उपयोग के लिए बुद्धि का सम्यक् होना आधारभूत- मूलभूत आवश्यकता है, अनिवार्यता है, अपरिहार्यता है। आध्यात्मिक प्रगति के लिए प्रभुकृपा से हमें बुद्धि नामक उपकरण प्राप्त है। इस बुद्धि को आध्यात्मि प्रगति के अनुरूप बनाना हमारा कर्त्तव्य है। प्रभुकृपा से हमें बुद्धि प्राप्त हो गई, किन्तु इस बुद्धि का सदुपयोग करना हमारे प्रयत्न-पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। प्रभुकृपा से हमें आज भी वह प्रक्रिया उपलब्ध है, जिससे हम अपनी बुद्धि को आध्यात्मिक प्रगति के योग्य बना सकते हैं।
बुद्धि का माहात्म्य उसके ज्ञान पर निर्भर करता है। ज्ञान है तो बुद्धि का बहुत लाभ मिलता है, विपरीत ज्ञान है तो इसी बुद्धि से बहुत हानि उठानी पड़ती है। बुद्धि में ज्ञान की प्राप्ति भी इसी बुद्धि के समुचित उपयोग पर निर्भर करती है। बुद्धि का समुचित उपयोग कैसे किया जाता है, यह भी सीखना होता है, जानना होता है। वैदिक-दर्शन हमें यह सिखाते हैं, जनाते हैं।
बुद्धि का अध्यात्म में सदुपयोग लेने के लिए ईश्वर प्रदत्त बुद्धि में हमारे द्वारा किये गये पूर्व संगृहीत हर उस ज्ञान व विचार को हमें निकालना या संशोधित करना होता है, जो अध्यात्म के लिए बाधक है। इसके लिए हमें स्वयं को सज्जित रखना होता है, उद्यत रखना होता है। पूर्व के प्राप्त ज्ञान व विचारों को भी बार-बार सत्यासत्य की कसौटी पर कस कर ही लिया था, किन्तु यह आवश्यक नहीं होता कि उस समय की कसौटी ठीक ही रही हो। आध्यात्मिक व्यक्ति को न केवल अपने पूर्व ज्ञान व विचारों को पुनः-पुनः कसौटी पर कसना होता है, अपितु उन कसौटियों को भी पुनः-पुनः कसना होता है।
प्रमाण ही वे कसौटी हैं, जो सत्यासत्य का बोध कराते हैं। हमें प्रमाणों का उचित उपयोग करना भी सीखना-समझना होता है। प्रमाणों का उचित उपयोग किये बिना निकाले गये निर्णय हानिकर हो जाते हैं। साधक मानता तो यह है कि मैंने यह निर्णय प्रमाणों के आधार पर लिया है। किन्तु यह निर्णय असम्यक् भी हो सकता है। अतः हमें सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना ही होता है, रहना ही चाहिए। ईश्वर हमारे से ऐसी ही अपेक्षा रखता है, वह हमें ऐसा ही देखना चाहता है। हमें ईश्वर की इच्छा के अनुसार ही चलना चाहिए।
प्रभुकृपा से अनेक साधक साधना करते-करते धन, सम्पत्ति, परिवार आदि से अपनी संलिप्तता (राग) धीरे-धीरे हटाते हुए पूर्णतः हटा लेते हैं, यह बड़ी उपलब्धि है। अपने शरीर, इन्द्रियों व मन से भी संलिप्तता रहती है, उसे भी विशेष साधना द्वारा हटा देते हैं। इससे भी बड़ी व गंभीर संलिप्तता एक और शेष रहती है, बुद्धि-विचारों-ज्ञान की संलिप्तता। अपने विचारों से, अपने ज्ञान से बहुत सूक्ष्म व गहरा राग होता है। जैसे सांसारिक वस्तु वा व्यक्ति की संलिप्तता से उनके नाश होने पर दुःख होता है, हम उन्हें छोड़ना नहीं चाहते, हानिकर होते हुए भी मिथ्या राग के कारण उन्हें पकड़े रहते हैं, उसी प्रकार अपने विचारों से हमारी संलिप्तता हमें महान् दुःख देती है व आध्यात्मिक प्रगति में बाधक बन जाती है। साधक को अपने असत्य विचारों को छोड़ने के लिए सर्वदा उद्यत रहना ही होता है। जैसे संसार की बाधक वस्तुओं-कर्मों को छोड़ना ही हितकर होता है, उसी प्रकार बाधक विचारों को भी छोड़ना हितकर होता है, यह जानते-समझते हुए भी हम अपने विचारों को छोड़ नहीं पाते, क्योंकि हम उन विचारों को उचित व हितकर मान बैठे होते हैं। हो सकता है हमारे वे विचार अनुचित-असत्य- हानिकर हों, यह संभावना बनाये रखना साधक के लिए आवश्यक है। इससे विचारों की संलिप्तता क्षीण हो जायेगी।
विचारों की संलिप्तता को क्षीण रखकर साधक को उन्हें प्रमाणों पर सदा कसते रहना होता है। इसके लिए वेद व ऋषिकृत ग्रन्थों का स्वाध्याय, चिन्तन-मनन करते रहना होगा, अन्य साधकों व विद्वानों से विचार-विमर्श और चर्चा करते रहना होगा। इस प्रक्रिया में दोनों पक्षों में से किसी में भी परिवर्तन संभव है। जो प्रमाणों की कसौटी पर ठीक उतरेगा, वह स्वीकार्य होगा। 
विचारों का राग सबसे बड़ा राग है, विचारों की संलिप्तता सबसे बड़ी संलिप्तता है। किन्तु प्रभु की कृपा है, हम अन्य धनादि के रागों, संलिप्तताओं से जैसे हट जाते हैं, वैसे ही इससे भी हट सकते हैं। विचारों की संलिप्तता से हमें हटना है। मेरे विचार भी असम्यक् हो सकते हैं, यह संभावना वास्तव में हृदय से स्वीकार कर रखनी ही होगी। मिथ्य-असम्यक् विचार भले ही कितने भी अधिक वर्षों से हमारे साथ रहा हो, वह मिथ्या सिद्ध होते ही हानिकर होने से तत्क्षण त्याग देने योग्य है। यह आध्यात्मिक प्रगति का मूल है। प्रभुकृपा हमारे साथ है, हमें सत्य के ग्रहण करने व असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत बने रहना है। एक दिन आयेगा जब हम पूर्ण सत्य में प्रतिष्ठित हों जायेंगे, प्रभुकृपा को पूर्णतः पा सकेंगे।