शनिवार, 16 मार्च 2013

दयानन्द दिव्य दर्शन भूमिका


लेखक: श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय



हमसे हमारे बन्धुवर्ग बार-बार यह प्रश्न करते हैं कि तुम यह क्या कर रहे हो ? मनुष्य पृथ्वी पर जन्म लेकर जो काम करते हैं; जिस मार्ग का अनुसरण करते हैं, तुम उनमें से कोई काम भी नहीं करते ? तुमने अपने जीवन का इतना समय केवल ‘दयानन्द-दयानन्द’ की रट लगाकर गंवाया है। जीवन के जिस अंश को सबसे श्रेष्ठ माना जाता है तुमने उसे ‘दयानन्द- दयानन्द’ कहके ही बिताया है।

बन्धुवर्ग का यह आक्षेप सर्वथा निर्मूल भी नहीं है, क्योंकि गत १५ वर्ष के अधिक भाग को हमने दयानन्द-सम्बन्धी कार्य में ही लगाया है। दयानन्द सरस्वती की जीवन-कथा के कीर्तन करने, दयानन्द के एक सर्वांग-सुन्दर जीवन-चरित के प्रकाशित करने के अभिप्राय से सामग्री और विवरण-माला के संग्रह करने में पूरे १५ वर्ष न भी लगे हों पर इसमें तो सन्देह ही नहीं है कि १॰ वर्ष तो अवश्य ही लगे हैं।

सहस्रों रुपयों की प्राप्ति के लिए मनुष्य जितना उत्साह और परिश्रम करता है, हमने उतना उत्साह और परिश्रम दयानन्द के जीवन की एक-एक घटना का पता लगाने में व्यय कर दिया है। एक ही घटना की सत्यता का निश्चय करने के लिए हम अनेक बार एक ही स्थान में गए हैं। जिस समय भी यह सुना कि अमुक स्थान पर अमुक व्यक्ति के पास जाने से दयानन्दचरित की अमुक घटना का ठीक-ठीक पता लग सकता है, हम उसी समय टिकट लेकर सैकड़ों मील की यात्रा करके उस स्थान पर पहुंचे हैं। हमारी यह दशा रही है कि यदि आज हम अजमेर हैं तो कुछ दिन पीछे अमृतसर हैं, और दो मास पीछे मध्यभारत के इन्दौर नगर में हैं, कभी महाराष्ट्र देश में कोल्हापुर में हैं तो कभी संयुक्तप्रान्त में गंगा के तटवर्ती ग्राम कर्णवास में। इसी प्रकार इस विशाल भारतवर्ष के सभी प्रान्तों में (केवल मद्रास प्रान्त को छोड़कर) बरसों पर्यटन किया है। न हमने जाडे़ की परवाह की है न गर्मी की, न शरीर के स्वास्थ्य की ओर ध्यान दिया, न अस्वास्थ्य की ओर। कभी-कभी हम धनाभाव के कारण अस्थिर तो हो गये, परन्तु हमने अपने व्रत को नहीं तोड़ा। प्रवास के कष्ट-क्लेश को भी हर प्रकार सहन किया। जो व्रत हमने धारण किया था, उससे हमें किसी वस्तु ने एक दिन के लिए भी विचलित नहीं किया, न प्रबल धनाभाव ने, न अनेक प्रकार की बाधाओं ने और न ही प्रवास की असुविधाओं से उत्पन्न हुए सामयिक नैराश्य ने। परन्तु प्रश्न यह है कि इस कठिनाइयों ने हमें विचलित क्यों नहीं किया ? दयानन्द कौन है ? उसकी शिक्षा में ऐसी कौन-सी अलौकिक शक्ति है, इसके उपदेशों में ऐसा कौन-सा संजीवन मन्त्र छिपा हुआ है, जिसके कारण हम उसके जीवन-इतिहास के लिए क्लेश पर क्लेश सहते आये हैं ? दयानन्द के चरित के प्रकाशन के साथ भारत-भूमि का ऐसा कौन-सा हिताहित सम्बद्ध है जिसके कारण हमने सैकड़ों प्रतिकूलताओं के बीच में अपने आपको अटल रखा है ? दयानन्द की शिक्षा व उदाहरण के साथ बंगवासियों का, बल्कि भारतवासियों का और इससे भी अधिक पृथ्वीभर के रहनेवालों का ऐसा कौनसा कल्याण अनुस्यूत है जिसके कारण हमने अपने आपको इस भीष्म प्रतिज्ञा में बांधा है ? इन प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर देना आवश्यक है। इसलिए हम अपने लेख को कुछ खोलकर लिखने का यत्न करेंगे।



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