बुधवार, 1 जनवरी 2014

आन्तरिक शुद्धि - प्रतिदिन का कार्य


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण..............

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर (राजस्थान)

      प्रभुकृपा से हमें अत्युत्तम उपकरण मन-बुद्धि की प्राप्ति हुई है। मानव शरीर में ये दोनों सबसे प्रमुख हैं। इनके समुचित प्रयोग से हम मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं और दुरुपयोग से बंधन में रहते हुए दुःख को भोगने के लिए बाध्य होते रहते हैं। मन-बुद्धि की मलिनता के रहते जब इनका प्रयोग किया जाता है, तो ये हानिकारक-बंधनकारक-दुःखदायक बन जाते हैं। मन-बुद्धि की मलिनता कम हो या मलिनता न हो तो ये लाभदायक-मुक्तिदायक-सुखदायक बन जाते हैं।
      मन-बुद्धि की अशुद्धि-मलिनता जन्मजन्मान्तरों की है। पूर्व के न जाने कितने जन्मों से हम विषय-भोग, राग-द्वेष, काम-क्रोध-लोभ-मोह-ईष्र्या-अहंकार आदि करते चले आ रहे हैं, उन सबकी मलिनता के ढेर को साथ लेकर हम जन्मे थे। इस जन्म में भी बाल्यावस्था से ही पूर्व कुसंस्कार व अज्ञानता के कारण पुनः पुनः विषय-भोग, राग-द्वेष आदि की ओर प्रवृत्त होते रहते हैं। इस प्रकार हमने अपनी मलिनता को और बढ़ा लिया होता है। जब तक हमें इस मलिनता व इसकी हानियों का बोध नहीं होता, हम इसी तरह जीवन जीते हुए अपने अन्तःकरण को और अधिक मलिन करते चले जाते हैं।
प्रभुकृपा से हमें इस बार मानव शरीर मिला है। यही एक मात्र जीवन है जिसमें हम अपनी मलिनता को हटा सकते हैं। प्रभुकृपा से जिन्हें कुछ बोध हो गया है और जो अपने को शुद्ध करने में लग गये हैं, वे भी पूर्व कुसंस्कारों व अज्ञान के कारण बार-बार अपने को मलिन भी करते रहते हैं। ऐसे मानव जिन्हें इस मलिनता की कुछ समझ बन गई है, जो नई मलिनता से कुछ बचते भी हैं और पुरानी मलिनता को हटाने का प्रयास भी कर रहे होते हैं, वे भी प्रायः अपने इन कुछ प्रयासों को पर्याप्त समझने लगते हैं। इसका कारण यह है कि कुछ प्रयास भी श्रमसाध्य होते हैं, हम अपने इस श्रम को पर्याप्त समझकर संतुष्टि का भाव बना लेते हैं तथा अधिकांश अन्यों को इस दिशा में कुछ न करता देख या बहुत कम करता देख, अपने प्रयास को अधिक/पर्याप्त मान बैठते हैं।
      प्रभुकृपा से हमें अपनी मलिनता की अधिकता व भयंकरता का सम्यक् बोध हो जाये तो हमें आन्तरिक-शुद्धि के लिये किये जा रहे अपने प्रयास बहुत कम लगेंगे। धार्मिक कहे-समझे जाने वाले अधिकांश व्यक्ति दिन-भर में कुल मिलाकर अपनी मलिनता को कुछ बढ़ा रहे होते हैं। हमें वर्तमान में प्रतिदिन होने वाली मलिनता को भी पूरा हटाते रहना है व पिछली मलिनता को भी कुछ न कुछ कम करते रहना है। यदि हम प्रतिदिन होने वाली मलिनता को ही हटाते रहें, तो भी मुक्ति नहीं पा सकते, क्योंकि पिछली मलिनता तो अभी बनी हुई है। इससे इतना बड़ा लाभ होगा कि हम पतन को प्राप्त नहीं होंगे, पर इतने मात्र से उन्नति तो नहीं होगी, मात्र यथास्थिति बनी रहेगी।
      प्रभुकृपा हम पर है। प्रभुकृपा को सदुपयोग में लाकर हमें प्रतिदिन आन्तरिक-शुद्धि को करना है। हमें प्रतिदिन पिछली मलिनता को भी कुछ न कुछ कम करना है। नई मलिनतायें जो पूर्व संस्कारवशात्, परिस्थितिवशात्, असावधानी से या जागरूकता की कमी से बन जाती हैं उन्हें भी हटाना है। नई मलिनता न आने पाये, इसकी भी पूरी सावधानी रखनी है। प्रभु की कृपा से, ऋषियों की कृपा से इस विषय का ज्ञान वेदों में, उपनिषदों में, दर्शनों में व अन्य ऋषिकृत ग्रन्थों में आज भी उपलब्ध है। जागरूक व्यक्ति स्वयं भी मार्ग खोजकर आगे बढ़ सकता है। हमारे लिये यह परम सौभाग्य की बात है कि हम प्रतिदिन अपनी आन्तरिक-शुद्धि कर पायें, इतनी कि वह शुद्धि की मात्रा नई मलिनता की मात्रा से कुछ न कुछ अधिक हो।
आन्तरिक-शुद्धि का यह कार्य दीर्घकालसाध्य है। यह बडे़ धैर्य की अपेक्षा रखता है। इसका परिणाम बहुत अच्छा व बड़ा है। यह आनन्द, सन्तोष व आत्मविश्वास को देने वाला है। आन्तरिक-शुद्धि में लगा व्यक्ति योग-मार्ग में स्थिर हो जाता है, उसका सारा विचलन व भटकाव समाप्त हो जाता है। वह प्रभु की विशेष कृपा का पात्र बन जाता है।

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