सोमवार, 20 जनवरी 2014

थोड़ी सी जागरूकता

आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण..............
आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर (राजस्थान)

          प्रभुकृपा से बहुत से मनुष्यों को जीवन का अंतिम लक्ष्य जानने-समझने का अवसर प्राप्त हो जाता है। यह संसार भले ही बहुत अधिक भौतिकवादी, बहुत अधिक विषयभोगी, बहुत अधिक बहिर्मुखी, बहुत अधिक अधार्मिक हो गया हो तथा और अधिक होता जा रहा हो। इस संसार में भले ही कितना अधिक आकर्षण हो, कितने अधिक फिसलन के अवसर हों, कितनी अधिक विपरीत स्थितियां  हों, फिर भी यहीं और इसी संसार में बहुत से मनुष्यों में साधना करने की भावना उभरती है, वे इसे जानने-समझने का प्रयास करते हैं और फिर साधना के लिए प्रयत्न भी आरम्भ कर देते हैं, तदनुरूप सफलता भी प्राप्त करते रहते हैं।
          संसार की इतनी विपरीत दिखाई देने वाली स्थिती में भी प्रभुकृपा से बहुत से व्यक्ति साधना का निश्चय कर पाते हैं, यह संभव है, यह प्रत्यक्ष है। संसार के आकर्षण, विषय-भोग के कारण मनुष्य को क्षण-क्षण में फिसलते देखा जाता है, अन्याय-अत्याचार-अधर्म करते देखा जाता है। इसे अन्यों में व अपने में बार-बार होता देख कर बहुत स्वयं को व अन्यों को साधना के अयोग्य समझने लगते हैं, किन्तु बहुत से मनुष्य इससे सीख लेकर साधना की ओर और अधिक प्रवृत्त हो जाते हैं, अपने को साधना-मार्ग में और अधिक दृढ़ कर लेते हैं।
          प्रभुकृपा से प्रत्येक मनुष्य को ऐसे अन्तःकरण मिले हैं, जिनका सदुपयोग करके वह जीवन के सही मार्ग पर चल सकता है, साधना में प्रवृत्त होकर अपने जीवन को साधनामय बना सकता है। संसार के विषय-भोग व ऐश्वर्य अन्यन्त आकर्षक हैं, प्रथम दृष्ट्या यही अनुभव में आता है, यही अनुभव में आयेगा। इस आकर्षण व विषय-भोग के काल में जो मनुष्य थोड़ी सी जागरूकता रख पाता है, वह इनके दल-दल से ऊपर उठ जाता है। प्रभुकृपा से जागरूकता सभी व्यक्ति रख सकते हैं, प्रत्येक के पास इतना सामर्थ्य व साधन (अन्तःकरण) उपलब्ध हैं। विषयाकर्षण के समय यदि मनुष्य बह भी जावे, किन्तु थोड़ी से जागरूकता साथ में रख ले, तो बार-बार विषय-प्रवाह में बहने-फिसलने पर भी वह एक समय आने पर इनसे विरत होने लगता है।
प्रभुकृपा से संसार के विषय-भोग, आकर्षण, ऐश्वर्य ऐसे कभी नहीं थे, न हैं व न होंगे कि मनुष्य इनमें सदा फंसा-धंसा रह जाये। थोड़ी सी जागरूकता रख लेने से मनुष्य अपने को विषय-प्रवाह में देर तक सहन नहीं कर सकता। आत्मा को जिस सुख-शान्ति की पिपासा है, वह वहां होता ही नहीं है, तो आत्मा उसे कैसे सहन कर सकता है ? यदि जागरूकता नहीं है, तब तो उसे संसार के सुख ही अन्तिम सुख लगेंगे, तब तो संसार के दुःखों को भोगता हुआ, उनसे पीड़ित होता हुआ, उनसे पिसता हुआ भी वह संसार के सुखों को पाने की तृष्णा में ही डूबा रहेगा।
          प्रभुकृपा से इस थोड़ी से जागरूकता के लिए जितान ज्ञान, जितनी समझ प्रारम्भ में चाहिए, वह हर मनुष्य को मिलती रहती है। यदि उस थोड़ी सी समझ, थोडे़ से ज्ञान, थोडे़ से अनुभव की रक्षा की जाये, उसे रक्षित करने व बढ़ाने का प्रयत्न किया जाये, तो यही अनुभव-ज्ञान-समझ मनुष्य को साधना-पथ पर प्रवृत्त व स्थिर करने का सर्वप्रमुख व निश्चित कारण बन जाता है। ऐसा व्यक्ति साधना न कर पाने का दोष संसार, समाज, परिस्थिति आदि को नहीं देता। संसार, समाज, परिस्थिति आदि के विपरीत होने पर भी इस अनुभव-ज्ञान-समझ के आधार पर अपनी आंतरिक अवस्था ऐसी बना लेता है कि बाह्य बाधायें उसे साधना से हटा नहीं पातीं। यदि थोड़ा विचलन आता भी है तो वह एक नया अनुभव देकर जाता है, नई समझ देकर जाता है। यही समझ-जागरूकता उसे और अधिक सबल बना देती है, वह पुनः साधना-पथ पर आरूढ़ व स्थिर होकर अपने चरम लक्ष्य को पाने में संलग्न हो जाता है।

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