गुरुवार, 30 अगस्त 2012

कहीं देर न हो जाये


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...............

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर 

प्रभुकृपा से हमें भोग भोगने व कर्म करने का अवसर मिला है। दुर्लभ मानव शरीर में आकर हम विविध भोगों को बार-बार भोग सकते हैं, भोगते रहते हैं। इसी मानव शरीर में हम विविध अच्छे-बुरे कर्मों को बार-बार कर सकते हैं, करते रहते हैं। हमारे सामने भोग भी बहुत हैं व करने योग्य कर्म भी बहुत हैं। जब तक धन-सम्पत्ति, भोग्य पदार्थ व शरीर में भोगने की सामर्थ्य है, तब तक हम भोगों को भोगते रहते हैं, भोगते जाते हैं। जब तक शक्ति-सामर्थ्य है, अवसर है, तब तक हम कर्मों को करते चले जाते हैं।
प्रभुकृपा से प्राप्त भोग व कर्म का अवसर न्यूनाधिक हम सबके पास है। हम अपनी- अपनी परिस्थिति इच्छा आदि के अनुसार न्यूनाधिक भोग व कर्म करते ही रहते हैं। भोग व कर्म का अवसर, सुविधा व सामर्थ्य जिन मनुष्यों में लगभग समान होता है, उनमें भी भोग व कर्म की पर्याप्त भिन्नता देखी जाती है। बहुत से भोग व कर्म हमारे असमान होते हैं। कोई भोगों की ओर बहुत अधिक झुका रहता है, कर्म में प्रवृत्ति कम रखता है। कोई कर्म की ओर अधिक झुका रहता है, भोग में प्रवृत्ति कम रखता है।
अपनी-अपनी समझ से, अपने-अपने ज्ञान के अनुसार और अपने आस-पास के लोगों की देखा-देखी व प्रेरणा से हम अपने भोगों व कर्मों का निर्धारण करते रहते हैं। भोगों व कर्मों को चुनने में हम अपनी सामर्थ्य आदि के अनुसार कुछ स्वतन्त्र व कुछ परतन्त्र रहते हैं। अपनी शक्ति-सामर्थ्य-परिस्थिति में सीमित-परतन्त्र रहते हुए भी हम भोग व कर्मों को चुनने में पर्याप्त स्वतन्त्र रहते हैं, रह सकते हैं। हम चाहें तो भोगें व न चाहें तो न भोगें, कम चाहें तो कम भोगें व अधिक चाहें तो अधिक भोगें। हम चाहें तो कर्म करें व न चाहें तो न करें, कम चाहें तो कम करें व अधिक चाहें तो अधिक करें।
प्रभुकृपा से हम सभी में यह सामर्थ्य है कि हम अपने भोगों व कर्मों की मात्रा-स्वरूप- प्रयोजन को इच्छानुसार पर्याप्त मात्रा में बदल सकते हैं। आध्यात्मिक व्यक्ति अपने इस मानव जीवन के प्रयोजन को समझ चुका होता है, वह अपने लक्ष्य का निर्धारण कर चुका होता है। उसके सामान्य व्यक्ति वाले प्रयोजन व लक्ष्य नहीं होते। उसकी दृष्टि बदल चुकी होती है। परिणाम स्वरूप वह भोगों  को भोगने व कर्मों को करने में अन्यों से भिन्न दिखाई देता है। ऐसे उच्च आध्यात्मिक मनुष्य निर्बाध रूप से व तीव्रता से आध्यात्मिक प्रगति करते चले जाते हैं।
प्रभुकृपा से जिन्होंने अभी-अभी अध्यात्म को समझना आरम्भ किया है, अभी-अभी समझा है, कुछ माह व कुछ वर्षों से ही इस ओर प्रवृत्त हुए हैं, उनको अपनी इस प्रवृत्ति पर सन्तोष होता है, यह सन्तोष की बात है भी, एक सीमा तक इसमें सन्तोष होना भी चाहिए। किन्तु अभी पहले के भोग व कर्मों के संस्कार भी हमारे साथ हैं, उनके अनुसार हमारा स्वभाव बना हुआ है, अतः हम थोड़ा-बहुत अध्यात्म का चिंतन व आचरण करते हुए भी बहुत सा चिंतन व आचरण सामान्य मनुष्यवत् करते रहते हैं। हमें अपना वह थोड़ा सा आध्यात्मिक प्रयत्न भी पर्याप्त दिखाई देता है, अन्य तो इतना भी नहीं कर रहे हैं, मैं तो उनसे बहुत ठीक हूँ, अभी पर्याप्त जीवन बचा है, धीरे-धीरे और अधिक आध्यात्मिक प्रयत्न करुंगा, अभी तो ये-ये उत्तरदायित्व पूरे करने हैं, ये-ये इच्छाएं पूरी करनी है..........।
अध्यात्म को समझने वाले, अध्यात्म में प्रविष्ट व्यक्ति का जीवन भी बहुत बार इसी शैली से चलता-चला जाता है। भविष्य में उसे विशेष आध्यात्मिक प्रयत्न का अवसर मिल पाता है या नहीं, यह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है। हो सकता है आगे मेरा स्वास्थ्य या अन्य परिस्थितियां आध्यात्मि प्रयत्न के अनुकूल न रहें, तब क्या होगा ? प्रभुकृपा से यदि आज स्वास्थ्य है, सामर्थ्य है, अनुकूल परिस्थिति है, तो आध्यात्मिक पुरुषार्थ को भविष्य के लिए छोड़ना, एक बड़ी दुःखद भूल बन सकता है। जितना अधिक पुरुषार्थ योगाभ्यास के लिए, धर्म के लिए कर सकते हैं, करते ही जाना है। आगे देखेंगे, आगे कर लेंगे, अभी तो ये भोग व कर्म कर लूं फिर निश्चिंत होकर पूरी तरह आध्यात्मिक मार्ग पर चलूंगा, ये सब इच्छाएं-कामनाएं मात्र इच्छाएं-कामनाएं ही न रह जायें। प्रभुकृपा से अभी मिल रहे अवसर का पूरा उपयोग करना है, कहीं देर न हो जाये।

बुधवार, 29 अगस्त 2012

गहराई में शान्त-मन


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...............

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर 

प्रभु-कृपा से हम इतना समझते हैं, स्वीकारते हैं, मानते हैं कि हमें शान्ति चाहिए, अशान्ति नहीं। हमें संसार में भी शान्ति चाहिए, राष्ट्र-राज्य-नगर-मोहल्ले-घर में भी शान्ति चाहिए, अशान्ति नहीं। हमें मन में भी शान्ति चाहिए, अशान्ति नहीं। शान्ति में हम अनुकूलता अनुभव करते हैं, अशान्ति में प्रतिकूलता। अनुकूलता होने पर हमें सुख होता है व प्रतिकूलता होने पर दुःख होता है। बाहर की अशान्ति हमारे मन में भी अशान्ति पैदा करती रहती है, फलतः हम दुःखी हो जाते हैं।
बाहर की अशान्ति के कारण मन में अशान्ति उत्पन्न होती है, अतः हम बाहर की अशान्ति को ठीक करने का यथासंभव प्रयास करते हैं, करना भी चाहिए। बाहर की अशान्ति को हम कुछ कम भी कर पाते हैं, फलतः अन्दर की मन की अशान्ति भी कुछ कम हो जाती है। इस प्रकार के प्रयत्न व अनुभव से हमें निश्चित हो जाता है कि बाहर की अशान्ति उत्पन्न होती है और बाहर की अशान्ति न्यून या समाप्त होने के कारण अन्दर की अशान्ति न्यून या समाप्त हो जाती है। इस प्रकार हम बाहर की अशान्ति-शान्ति और अन्दर की अशान्ति-शान्ति में कारण-कार्य सम्बन्ध समझ लेते हैं, फलतः इसी पर केन्द्रित होकर अशान्ति हटाने व शान्ति पाने के प्रयास में लगे रहते हैं। ऐसा प्रयास करना भी चाहिए।
इस निश्चय व यत्न से हमें सफलता मिलती रहती है, किन्तु यह सफलता सीमित मात्रा में मिलती है। हमारी अशान्ति का कारण मात्र बाह्य-अशान्ति ही नहीं होती। हम अपनी असमर्थता, अकुशलता, अल्पज्ञता, आलस्य, उपेक्षा आदि के कारण भी अशान्त-दुःखी होते रहते हैं। इनसे होने वाली अशान्ति कम नहीं होती, बहुत अधिक होती है। हम इनके कारण न केवल बाह्य-अशान्ति के बिना भी अशान्त होते रहते हैं बल्कि बाह्य-अशान्ति से होने वाली अशान्ति को कई गुणा बढ़ा लेते हैं। हम बार-बार उन्हीं बाह्य-विषयों को विचारते रहते हैं और बार-बार अशान्त होते रहते हैं।
बाह्य-अशान्ति को हम अपने प्रयास से कुछ दूर कर पाते हैं, पर पूरी तरह नहीं। बाह्य-अशान्ति को हम पूरी तरह समाप्त कर भी नहीं सकते। बाह्य-अशान्ति का कारण अन्य अनेक व्यक्ति भी होते हैं, जिन पर हम पूर्ण नियन्त्रण-नियमन नहीं कर सकते। लोग पुनः-पुनः अशान्ति का कारण बनते ही रहेंगे। किन्तु आन्तरिक-अशान्ति को हम पूरी तरह समाप्त कर सकते हैं क्योंकि इसका मुख्य कारण हम स्वयं हैं। यदि हम चाहें तो आन्तरिक-अशान्ति को पूर्णतः हटा सकते हैं, इसमें कोई हस्तक्षेप भी नहीं कर सकता।
हम अपने मन के ऊपरी तल पर जीते रहते हैं। मन का ऊपरी तल विभिन्न-बाह्य घटनाओं व आन्तरिक वृत्तियों से चलायमान-दोलायमान बना रहता है। इसी चंचलता में जीते हुए हम इनसे सतत प्रभावित होते रहते हैं, अशान्त व दुःखी होते रहते हैं। मन के इस ऊपरी तल पर सामान्यतः हम अल्प नियन्त्रण ही कर पाते हैं। प्रभु-कृपा से यदि हमम न के अन्दर गहराई में प्रविष्ट हो जायें तो गहन शान्ति को तत्क्षण उपलब्ध हो सकते हैं।
समुद्र ऊपरी तल पर सदा चंचल-दोलायमान बना रहता है, अतः अशान्त भी बना रहता है। उसमें बडे़-बडे़ तूफान भी आते हैं, तब अत्यन्त अशान्त हो जाता है। इसी प्रकार मन का ऊपरी भाग भी थोड़ा या अधिक चलायमान बना रहता है। यदि हम उसमें तैरने-ठहरने में समर्थ नहीं होते हैं, तो अशान्त भी होते रहते हैं। जैसे समुद्र की गहराई में उतर जाने पर चंचलता- अशान्ति नहीं रहती, इसी प्रकार यदि हम मन की गहराई में उतर जायें तो चंचलता-अशान्ति से उबर कर स्थिरता-शान्ति-सुख को उपलब्ध हो सकते हैं।
एकान्त में बैठकर जैसे ही हम मन में गहरे से गहरे उतरते जाते हैं, वैसे ही चंचलता- अशान्ति-दुःख से दूर हट जाते हैं और स्थिरता-शान्ति-सुख से युक्त होते जाते हैं। प्रभु ने हमें ऐसा मन दिया है जो लोक-व्यवहार हेतु चलायमान भी हो सकता है व आन्तरिक-व्यवहार हेतु पूर्ण स्थिर-एकाग्र भी हो सकता है। यह हमारी अकुशलता है कि हम लोक-व्यवहार में उपयोगी मन की चलायमानता (सक्रियता) को उच्छृंखल (अव्यवस्थित-अनियमित) करके लोक-व्यवहार में बाधाएं उत्पन्न कर लेते हैं व दुःखी होते रहते हैं। यह हमारी अज्ञानता है कि हम मन के स्थिर -एकाग्र हो सकने के सामर्थ्य का उचित व पर्याप्त उपयोग नहीं कर पाते हैं। प्रभु ने हम पर कृपा कर रखी है, हमें उस कृपा का लाभ उठाना है।

बुधवार, 8 अगस्त 2012

कर्म-विराम


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...............

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर 

आचार्य सत्यजित् जी 
प्रभु-कृपा से यह संसार गतिशील है। सब प्राणी भी गतिशील हैं, उनके लिये कर्म करते रहना आवश्यक है। कर्म से ही यह संसार-जीवन चल पाता है। कर्म से जीवन में सुख व सुख-साधनों की प्राप्ति होती है, दुःख व दुःख के कारणों को हटाया जाता है। सुख-शांति से जीने के लिये शारीरिक व मानसिक दोनों प्रकार के कर्म आवश्यक हैं। यदि कोई प्राणी कर्म न करना चाहे तो भी बिना कर्म के रह नहीं सकता। भूख-प्यास आदि दुःख व सुख का आवेग इतना कष्टदायक होता है कि व्यक्ति को कर्म करने ही होते हैं। कर्म करने में भी चूंकि कष्ट होता है अतः हम कर्म से बचते हुए दुःख की निवृत्ति व सुख की प्राप्ति चाहने लगते हैं। तब हम अल्प श्रम वाले अधर्म का मार्ग पकड़ लेते हैं। इस से हम अधिक दुःखी हो जाते हैं, अस्वस्थ हो जाते हैं।
प्रभु-कृपा से हममें से जो धर्म के मार्ग में आस्था रुचि रखते हैं वे कर्म के कष्ट से बचना नहीं चाहते। उन्हें कर्म के कष्ट से बड़ा कष्ट कर्म के न करने में दिखता है। कर्म से ही दुःख से ही दुःख की निवृत्ति व सुख की प्राप्ति होती है, यह स्वयं के व अन्यों के अनुभव को देखकर इम शारीरिक व मानसिक कर्म करने की ओर बढ़ जाते हैं। प्रत्यक्ष दुःख की निवृत्ति व प्रत्यक्ष सुख की प्राप्ति का आकर्षण बहुत बड़ा है, हमारी दृष्टि इसी पर टिकी रहती है, उससे हट कर देख पाना, दूर की सोच पाना प्रायः नहीं हो पाता है।
प्रभु-कृपा से निद्रा का वरदान हमें मिला है। कर्म करना आवश्यक है, पर उचित मात्रा में। कर्म करना आवश्यक है तो कर्म से विराम भी आवश्यक है। प्रभु के वरदान निद्रा का उचित उपयोग करते रहें तो हम पर्याप्त कर्म भी कर पाते हैं। यदि कर्म के आवेग में निद्रा का सेवन (कर्म विराम) न करें या कम करें तो प्रभु बलात् निद्रा दिला देता है। फिर भी हम उसका विरोध करें तो रोग के कारण विराम लेना ही पड़ता है। प्रश्न उठता है कि दुःख की निवृत्ति व सुख की प्राप्ति की आशा से किये गये कर्म की परिणति दुःख की प्राप्ति व सुख की निवृत्ति में कैसे हो गई ? कर्म से विराम न लेने के कारण।
प्रभु-कृपा से इस शारीरिक व कुछ मानसिक कर्म-विराम की प्राप्ति निद्रा से होने को हम स्वीकारते हैं व प्रायः पालते भी हैं या कहें यह स्वभावतः होता भी रहता है। किन्तु ऐसा जानते-मानते हुए भी हम जगते समय मन को विराम देने की कला न जानने से मानसिक रूप से अत्यधिक कर्म करते चले जाते हैं। जिस प्रकार थका शरीर अपना संतुलन व कार्यक्षमता खोता जाता है, उसी प्रकार विचारों के प्रवाह में थका मन भी अपना संतुलन व कार्यक्षमता खोता जाता है। परिणाम यह होता है कि हम छोटे-छोटे कारणों से उद्वेलित-आवेशित-अनियंत्रित हो जाते हैं। इससे स्वयं भी दुःखी होते हैं व अन्यों को भी दुःखी करके अपने लिये पाप कमा कर भविष्य में अपने घोर दुःख पाने की व्यवस्था कर लेते हैं।
मन के कर्म अर्थात् विचारों का करना जीवन के लिये आवश्यक है। यह दुःख की निवृत्ति व सुख की प्राप्ति के लिये आवश्यक है। विचारों का कर्म-विराम प्रभु-कृपा से निद्रा में हो भी जाता है, किन्तु जिस प्रकार अधिक शारीरिक कर्म करने पर निद्रा पूरी थकान को हटा नहीं पाती है उसी प्रकार अत्यधिक व अनियन्त्रित विचार से उत्पन्न मानसिक थकान को निद्रा पूरी तरह हटा नहीं पाती है।
प्रभु-कृपा से इसके लिये उपाय हैं। योग के द्वारा चित्तवृत्तियों को रोक देना। योग-समाधि-ध्यान के द्वारा विचारों को नियंत्रित करना हमारे सुखी-शांत जीवन के लिये आवश्यक है। एक ओर जहां इससे निद्रा के समान विश्राम-बल मिलता है वहीं दूसरी ओर मन के नियन्त्रित होने से विचारों पर नियन्त्रण बना रहता है, फलतः मानसिक थकान अधिक नहीं होती। मन उद्वेलित नहीं होता। मन उद्वेलित-आवेशित-अनियन्त्रित नहीं होता। यम-नियम के पालन से हमारा मन विचारों के अनियन्त्रित प्रवाह में फंसने से बचा रहता है।
शारीरिक-कर्मविराम के महत्त्व को हम प्रायः समझते हैं, उसे कर भी पाते हैं। प्रभुकृपा से मानसिक-कर्मविराम के लाभ को भी अधिकांश जागरूक व्यक्ति समझते है, किन्तु उसे प्रायः कर नहीं पाते हैं। विचार करते रहने में पड़े रहकर हम अपने को बहुत दुःख देते रहते हैं। प्रभु-कृपा से हमारे में यह सामर्थ्य है कि हम वैचारिक कर्म-विराम का अभ्यास करते हुए अपने को इस दुःख से बचा सकते हैं, इच्छित सुख-शांति पा सकते हैं।
परोपकारी अगस्त (प्रथम)२०११ 

सोमवार, 6 अगस्त 2012

थोड़ा सा बच के


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...............

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर 

आचार्य सत्यजित् जी
प्रभुकृपा से जीवन अच्छा चल रहा है। भौतिक सुख-सुविधायें ठीक-ठीक हैं, परिश्रम कर रहे हैं, आवश्यकताओं की पूर्ति हो रही है, यह एक सन्तोष की बात है। जीवन केवल भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए नहीं चल रहा है, उसमें परोपकार-सेवा भी है, दया-प्रेम भी है, सत्संग-स्वाध्याय भी है यह और भी बड़े सन्तोष की बात है। भौतिक सुख-सुविधाओं के साथ यदि परोपकारादि गुण न हों, तो जीवन एकांगी व नीरस रहता है। इसमें बाह्यसुख तो संतोष जनक मिल जाते हैं, किन्तु आंतरिक सुख नहीं मिल पाता है। भौतिक सुख-सुविधाओं के रहते जब परोपकारादि भी किए जाते हैं तब आन्तरिक सुख भी मिलता रहता है।
प्रभुकृपा से बाह्य व आन्तरिक सुख युक्त जीवन चलाते हुए हम प्रायः सन्तुष्ट भी रहते हैं। जिनमें कुछ और अधिक सात्विकता उभरती है वे ईश्वर विश्वास भी साथ में रखते हैं। उनके जीवन में ईश्वर-समर्पण का भाव उभर आता है वे भौतिक सुख-सुविधाओं से थोड़ा बच कर चलते हैं। अपने लिए भौतिक सुख-सुविधाओं को पाना उनके लिए मुख्य नहीं रहता। वे जीवन को परोपकार, सेवा आदि में अधिक लगा देते हैं। यह बड़ी ही सन्तोष जनक स्थिति होती है। व्यक्ति स्वयं भी अपने आप से पर्याप्त सन्तुष्ट रहता है, अन्य भी उसे प्रेरणादायी मानते हैं, उसकी प्रशंसा करते हैं। वर्षों तक ऐसा त्यागयुक्त अच्छा जीवन जीते जाने वाले बहुत व्यक्ति हैं।
प्रभुकृपा से ऐसा अच्छा जीवन जीते हुए भी जिन व्यक्तियों के बीच हम कार्यरत होते हैं, जिनके साथ रहते हैं, जिन के साथ खाते-पीते हैं, उठते-बैठते हैं, उनसे धीरे-धीरे थोड़े राग-द्वेष बनने लग जाते हैं। जिस संस्था या साधनों में रहते हुए ऐसा अच्छा जीवन जी रहे होते हैं, उस संस्था व साधनों से धीरे-धीरे थोड़ा राग-लगाव बनने लगता है। यह थोड़ा सा राग या थोड़ा सा द्वेष आरम्भ में पता तक नहीं चलता। परोपकार से व दया-प्रेम, सत्संग-स्वाध्याय आदि के कारण अपना जीवन इतना अच्छा लगता है कि जीवन में किसी दोष-कमी की संभावना तक नहीं दीखती।
परोपकारादि के आन्तरिक सुख से सन्तुष्ट-तृप्त हुए हम उस में बढ़-चढ़ कर लगे रहते हैं। तन-मन-धन से उसमें लगे रहते हैं, खूब परिश्रम करते हैं। हमें यह आभास ही नहीं होता कि इसके साथ कुछ छोटे-मोटे राग-द्वेष जुड़ते चले जा रहे हैं। जैसे भौतिक सुख-साधनों को प्राप्त करने में लगे व जुटे व्यक्ति को परोपकार, सेवा, सत्संग-स्वाध्याय आदि नहीं सूझते, उसके पास इन सब को सोचने के लिए समय ही नहीं होता। बस भौतिक सुख-सुविधाओं में मस्त रहते हुए जैसा जीवन चल रहा है, वह चलता चला जाता है। इसी प्रकार भौतिक सुख-सुविधाओं से थोड़ा बच कर परोपकार-ईश्वरविश्वास से युक्त जीवन जीते हुए भी हम उस में ऐसे लगे-जुटे रहते हैं कि अपने में पनप रहे राग-द्वेष को देख-जान-समझे ही नहीं पाते। जीवन में जुड़ते-बढ़ते जा रहे राग-द्वेष के बारे में सोचने का समय तक हमारे पास नहीं होता। बस, परोपकार-सेवा आदि से प्राप्त आन्तरिक सुख व यश-प्रशंसा में मस्त रहते हुए जैसा जीवन चल रहा है वैसा ही चलता चला जाता है।
प्रभु की अत्यधिक कृपा है उन पर, बड़े सौभाग्यशाली हैं वे, जो इन परोपकारादि उत्तम कार्यों को करते हुए यह विचारने का समय भी निकाल लेते हैं कि मैं थोड़ा-थोड़ा कहीं राग-द्वेष से युक्त तो नहीं हो रहा हूँ। अपने राग-द्वेष को जानकर, उनसे बच जाते हैं व उच्च आध्यात्मिक जीवन जीते हुए परोपकारादि शुभ कर्मों में लगे रहते हैं। शुभ कर्मों को करते-करते  भी सावधानी से थोड़ा बच के चलते रहना होता है, नहीं तो ये थोड़े-थोडे़ राग-द्वेष आगे चल कर इतने अच्छे जीवन को पतित कर डालते हैं।
प्रभुकृपा से हम थोड़ी सी सावधानी-सजगता बनाये रखें, थोड़ा से बचते-बचते चलें तो दीर्घ परोपकारी जीवन के अन्त में अपने जीवन को सार्थक देख पायेंगे। जीवन की सन्ध्या में हमें अपने से कोई शिकायत नहीं रहेगी, अपने से कोई ग्लानि-असन्तुष्टि नहीं रहेगी। हमारा जीवन भर रहा धर्म व ईश्वर पर विश्वास डगमगायेगा नहीं, उसमें अविश्वास-शिथिलता नहीं आयेगी। पूर्ण सन्तोष, पूर्ण आत्मविश्वास, पूर्ण निभर्यता, पूर्ण उत्साह, पूर्ण तृप्ति के साथ रहते हुए अन्यों को भी इसी मार्ग चलने की अधिकाधिक प्रेरणा करते हुए, अपने पर प्रभु की पूर्ण कृपा होने की सन्तुष्टि रख पायेंगे। अतः थोड़ा सा बचके।

रविवार, 5 अगस्त 2012

प्राणायाम का लाभ

स्वामी दयानन्द जी सरस्वती
सत्यार्थ प्रकाश तृतीय समुल्लास
प्रथम संस्करण

स्वामी दयानन्द जी का
वास्तविक चित्र
१८ अगस्त १८७७ को
 गुरुदासपुर (पंजाब ) में लिया गया 

योगशास्त्र की रीति से प्राणों के और इन्द्रियों के जीतने के लिये उपाय का उपदेश करैं सो यह योगशास्त्र 1.34 का सूत्र है-
प्रच्छर्द्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य।
इसका यह अर्थ है कि छर्द्दन नाम वमन का है जैसे कि मक्खी वा और कुछ पदार्थ खाने में उदर से मुख द्वारा अन्न बाहर निकल जाता है और प्रकृष्टंच तच्छर्द्दनंच प्रच्छर्द्दनम् अत्यन्त जो बल से वमन का होना उसका नाम प्रच्छर्द्दन है।। विधारणं नाम विरुद्धंच तद्धारणंच विधारणम्। जैसे कि उस अन्न का धारण पृथिवी में होता है उसको देख के घृणा होती है तो ग्रहण की इच्छा कैसे होगी, कभी न होगी। यह दृष्टान्त हुआ। परन्तु दार्ष्टान्त इसका यह है कि नाभि के नीचे अर्थात् मूलेन्द्रिय से लेके धैर्य से अपानवायु को नाभि में ले आना, नाभि से अपान को और समान को हृदय में ले आना, हृदय में दोनों वे और तीसरा प्राण इन तीनों को बल से नासिका द्वार से बाहर आकाश में फेंक देना अर्थात् जो वायु कुछ नासिका द्वार से निकलता है और भीतर जाता है उन सबका नाम प्राण है। उसको मूलेन्द्रिय, नाभि और उदर को ऊपर उठाले तब तक वायु न निकले, पीछे हृदय में इकट्ठा करके जैसे कि वमन में अन्न बाहर फेंका जाता है, वैसे सब भीतर के वायु को बाहर फेंक दे। फिर उसको ग्रहण न करै, जितना सामर्थ्य होय, तब तक बाहर की वायु को रोक रक्खै। जब चित्त में कुछ क्लेश होय, तब बाहर से वायु को धीरे-धीरे भीतर ले जाय, फिर उसको वैसा ही वारम्वार 20 वार भी करेगा तो उसका प्राण वायु स्थिर हो जायगा और उसके साथ चित्त भी स्थिर होगा। बुद्धि और ज्ञान बढे़गा। बुद्धि इस प्रकार तीव्र होगी कि बहुत कठिन विषय को भी शीघ्र जान लेगी। शरीर में भी बल पराक्रम होगा और वीर्य भी स्थिर होगा तथा जितेन्द्रियता होगी। सब शास्त्रों को बहुत थोड़े काल में पढ़ लेगा। इससे यह दोनों उपदेशों को यथावत् अपने सन्तानों को कर दे।