मंगलवार, 24 जुलाई 2012

आखिर कितनी बार और गिरना है ?


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण............

आखिर कितनी बार और गिरना है ?

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर
आचार्य सत्यजित् जी

प्रभुकृपा से धर्मनिष्ठ साधनारत व्यक्ति अपने को शुद्ध-पवित्र बनाते जाते हैं। वर्षों तक सतत् धर्मानुष्ठान व साधना में लगे रहने वाले व्यक्ति भी मोक्ष मार्ग के पथिक ही होते हैं, अभी उन्होंने अन्तिम लक्ष्य नहीं पा लिया होता है, अभी वे जीवन-मुक्त नहीं हो गये होते हैं। अभी वे अपने अविद्या-संस्कारों को दग्धबीज नहीं कर पाये होते हैं, अतः समय-समय पर किसी-किसी विषय में उनका निचले स्तर पर आ-जाना होता रहता है। पर साथ ही उनका ऊँचे उठने का क्रम भी चलता रहता है। जन सामान्य की दृष्टि में वे उच्च आधात्मिक स्तर के होते हैं, जन सामान्य उनसे प्रेरणा भी लेता रहता है।
प्रभुकृपा से अध्यात्म-मार्ग को समझकर उस पर चल पड़ा साधक भी इस मार्ग में बालक या किशोरवत् हीे होता है। जैसे बालक या किशोर अधिक आशावादी होते हैं, ऊँची सोचते हैं, शीघ्र सफलता पाना चाहते हैं, अधिक उत्सुकता व कम धैर्य वाले होते हैं, ऐसा ही नया साधक भी होता है। उसे अपनी सामर्थ्य की न्यूनता तो प्रतीत होती है। पर वह थोडे़ प्रयत्न के बाद ही सफलता की अपेक्षा करने लगता है, वह शीघ्र व बड़ी सफलता पाना चाहता है। उसे अपना प्रयत्न व साधना में लगाया गया काल पर्याप्त लगने लगता है, पर तदनुरूप पर्याप्त सफलता जीवन में दिखला नहीं देती। वह अब भी अपने को दोषों में घिरा पाता है। दोषों से बचने का संकल्प व प्रयत्न बार-बार करते हुए भी, बार-बार संकल्प टूटने व गिरने की अनिष्ट स्थिति में अपने आप को पाता है।
प्रभुकृपा को स्वीकारने वाला साधक इसे तो प्रभुकृपा मान लेता है कि मैं अपने दोषों को जान पाता हूँ, दोषों को मैं जानकर दुःखी होता हूँ, उन्हें पुनः न करने का संकल्प लेता हूँ व इस ओर प्रयत्न भी करता हूँ। यह वास्तव में प्रभु कृपा है भी, यह सब भावी प्रगति का लक्षण भी है। किन्तु साधक को अपना बार-बार गिरना बहुत बुरा लगता है, स्वीकार्य नहीं होता, पुनरपि गिरना होता ही रहता है, होता ही रहता है। साधक के मन में तब प्रश्न उठता है- आखिर कितनी बार और गिरना है ?
यह साधक के लिए अच्छी बात है कि वह इस प्रश्न पर विचार करने लगा है। ऐसी स्थिति के लिए साधक स्वयं भी अपने अनुभव के आधार पर उचित निर्णय निकाल सकता है। कितने भी निचले स्तर का साधक हो, उसने भी अनेक दुर्गुणों पर विजय पाई होती है, अनेक शुभ गुणों का अच्छी प्रकार पालन किया होता है। प्रश्न उठते हैं कि साधक अब तक यह सब कैसे कर पाया था ? यदि पहले सफलता मिली है तो आगे उसी विधि से सफलता क्यों नही मिल सकती ? यदि कुछ दुगुर्णों से पूरी तरह या पर्याप्त मात्रा में बच चुका है, तो अन्य शेष दुर्गुणों से कैसे नहीं बच सकता ? बच सकता है, किन्तु साधक को अपने पर विश्वास नहीं होता है कि मैं इन शेष दुर्गुणों से बच जाऊँगा। उसके मन में तो यही प्रश्न उठता रहता है कि आखिर कितनी बार और गिरना है ?
दोषों को जानना, न हटा पा सकने पर दुःखी होना आदि आध्यात्मिक दृष्टि सहायक अच्छे लक्षण हैं, किन्तु इतना पर्याप्त नहीं हो पाता है। क्योंकि उस दोष से सम्बन्धित जन्म-जन्मान्तर के संस्कार बहुत प्रबल हैं और दोष की गहराई से पूरी विवेचना नहीं हो पाई है। दोष यदि पूर्णतः हानिकर समझ में आ जाये उसमें कोई लाभ-सुख न दिखे, तो उसका दूर हटना सरल हो जाता है। जिस जिस भी दुर्गुण से हम अब तक हटे हैं, उनसे तभी हट पाये हैं, जब हमें उनकी हानि पूर्णतः समझ में आ गई। इसी प्रकार आगे भी अन्य दुर्गुण हटाये जा सकते हैं।
यदि हानि को पूर्णतः समझ लेने पर भी दुर्गुण नहीं हट पा रहा है, पुनः-पुनः पतन हो जाता है, व्रत संकल्प टूट जाते हैं, तो यह जन्म-जन्मान्तर के प्रबल संस्कारों के कारण हो रहा होगा, ऐसा माना जा सकता है। ऐसे में साधक के लिए उस दुर्गुण के दोष-दर्शन, उसके हटाने का संकल्प व आलम्बन से दूर रहना, ये प्रमुख उपाय करणीय होते हैं। इन्हें करते-करते भी यदि संकल्प टूटता है-पतन होता है, तो भी बिना निराश हुए ये प्रयत्न करते रहने होते हैं। इन प्रयत्नों से जब संस्कार क्षीण हो जायेंगे, तब अचानक उस दोष से छुटकारा मिल जायेगा।
अध्यात्म में प्रगति के लिए किया गया छोटा सा भी प्रयत्न निष्फल नहीं होता। अपने को नए दोषों-संस्कारों से बचाये रखते हुए पिछले दोष-संस्कार काटते रहने होते हैं। इसी रीति से धीरे-धीरे सफलता मिलती है, समय की पर्याप्त अपेक्षा है, पर्याप्त धैर्य चाहिए। प्रभु के विधान पर चलने में असफलता का क्या प्रश्न ? आशंका की क्या बात ? हर पतन के बाद पूरे घटनाक्रम पर सावधानी से विचार करने का समय निकाला जाए तो कारण पकड़ने में आने लगते हैं। कारण पता लगने पर समाधान ढूंढना कठिन नहीं होता, वह स्वतः भी ज्ञात हो जाता है। तब पतन रुक जायेगा। आखिर कितनी बार और गिरना है ? जब तक गिरने से सीख नहीं लेंगे, गिरने से समझ नहीं बनायेंगे, गिरने से विवेक प्राप्त नहीं करेंगे, तब तक गिरते रहना है।

रविवार, 22 जुलाई 2012

ब्रह्मचर्य व्रत का पालन


अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल जी की आत्मकथा से 

रामप्रसाद बिस्मिल जी 

वर्तमान समय में इस देश की कुछ ऐसी दुर्दशा हो रही है कि जितने धनी तथा गणमान्य व्यक्ति हैं उनमें 99 प्रतिशत ऐसे हैं जो अपनी सन्तान-रूपी अमूल्य धन-राशि को अपने नौकर तथा नौकरानियों के हाथ में सौंप देते हैं । उनकी जैसी इच्छा हो, वे उन्हें बनावें ! मध्यम श्रेणी के व्यक्‍ति भी अपने व्यवसाय तथा नौकरी इत्यादि में फँसे होने के कारण सन्तान की ओर अधिक ध्यान नहीं दे सकते । सस्ता कामचलाऊ नौकर या नौकरानी रखते हैं और उन्हीं पर बाल-बच्चों का भार सौंप देते हैं, ये नौकर बच्चों को नष्‍ट करते हैं । यदि कुछ भगवान की दया हो गई, और बच्चे नौकर-नौकरानियों के हाथ से बच गए तो मुहल्ले की गन्दगी से बचना बड़ा कठिन है । रहे-सहे स्कूल में पहुँचकर पारंगत हो जाते हैं । कालिज पहुँचते-पहुँचते आजकल के नवयुवकों के सोलहों संस्कार हो जाते हैं । कालिज में पहुँचकर ये लोग समाचार-पत्रों में दिए औषधियों के विज्ञापन देख-देखकर दवाइयों को मँगा-मँगाकर धन नष्‍ट करना आरम्भ करते हैं । 95 प्रतिशत की आँखें खराब हो जाती हैं । कुछ को शारीरिक दुर्बलता तथा कुछ को फैशन के विचार से ऐनक लगाने की बुरी आदत पड़ जाती है शायद ही कोई विद्यार्थी ऐसा हो जिसकी प्रेम-कथा कथायें प्रचलित न हों । ऐसी अजीब-अजीब बातें सुनने में आती हैं कि जिनका उल्लेख करने से भी ग्लानि होती है । यदि कोई विद्यार्थी सच्चरित्र बनने का प्रयास भी करता है और स्कूल या कालिज में उसे कुछ अच्छी शिक्षा भी मिल जाती है, तो परिस्थितियाँ जिनमें उसे निर्वाह करना पड़ता है, उसे सुधरने नहीं देतीं । वे विचारते हैं कि थोड़ा सा जीवन का आनन्द ले लें, यदि कुछ खराबी पैदा हो गई तो दवाई खाकर या पौष्‍टिक पदार्थों का सेवन करके दूर कर लेंगे । यह उनकी बड़ी भारी भूल है । अंग्रेजी की कहावत है "Only for one and for ever." तात्पर्य यह है कि कि यदि एक समय कोई बात पैदा हुई, मानो सदा के लिए रास्ता खुल गया । दवाईयाँ कोई लाभ नहीं पहुँचाती । अण्डों का जूस, मछली के तेल, मांस आदि पदार्थ भी व्यर्थ सिद्ध होते हैं । सबसे आवश्यक बात चरित्र सुधारना ही होती है । विद्यार्थियों तथा उनके अध्यापकों को उचित है कि वे देश की दुर्दशा पर दया करके अपने चरित्र को सुधारने का प्रयत्‍न करें । सार में ब्रह्मचर्य ही संसारी शक्तियों का मूल है । बिन ब्रह्मचर्य-व्रत पालन किए मनुष्य-जीवन नितान्त शुष्क तथा नीरस प्रतीत होता है । संसार में जितने बड़े आदमी हैं, उनमें से अधिकतर ब्रह्मचर्य-व्रत के प्रताप से बड़े बने और सैंकड़ों-हजारों वर्ष बाद भी उनका यशगान करके मनुष्य अपने आपको कृतार्थ करते हैं । ब्रह्मचर्य की महिमा यदि जानना हो तो परशुराम, राम, लक्ष्मण, कृष्ण, भीष्म, ईसा, मेजिनी बंदा, रामकृष्ण, दयानन्द तथा राममूर्ति की जीवनियों का अध्ययन करो ।


जिन विद्यार्थियों को बाल्यावस्था में कुटेव की बान पड़ जाती है, या जो बुरी संगत में पड़कर अपना आचरण बिगाड़ लेते हैं और फिर अच्छी शिक्षा पाने पर आचरण सुधारने का प्रयत्‍न करते हैं, परन्तु सफल मनोरथा नहीं होते, उन्हें भी निराश न होना चाहिए । मनुष्य-जीवन अभ्यासों का एक समूह है । मनुष्य के मन में भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक विचार तथा भाव उत्पन्न होते रहते हैं । क्रिया के बार-बार होने से उसमें ऐच्छिक भाव निकल जाता है और उसमें तात्कालिक प्रेरणा उत्पन्न हो जाती है । इन तात्कालिक प्रेरक क्रियाओं की, जो पुनरावृत्ति का फल है, 'अभ्यास' कहते हैं । मानवी चरित्र इन्हीं अभ्यासों द्वारा बनता है । अभ्यास से तात्पर्य आदत, स्वभाव, बान है । अभ्यास अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के होते हैं । यदि हमारे मन में निरन्तर अच्छे विचार उत्पन्न हों, तो उनका फल अच्छे अभ्यास होंगे और यदि बुरे विचारों में लिप्‍त रहे, तो निश्‍चय रूपेण अभ्यास बुरे होंगे । मन इच्छाओं का केन्द्र है । उन्हीं की पूर्ति के लिए मनुष्य को प्रयत्‍न करना पड़ता है । अभ्यासों के बनने में पैतृक संस्कार, अर्थात् माता-पिता के अभ्यासों के अनुकरण ही बच्चों के अभ्यास का सहायक होता है । दूसरे, जैसी परिस्थियों में निवास होता है, वैसे ही अभ्यास भी पड़ते हैं । तीसरे, प्रयत्‍न से भी अभ्यासों का निर्माण होता है, यह शक्‍ति इतनी प्रबल हो सकती है कि इसके द्वारा मनुष्य पैतृक संसार तथा परिस्थितियों को भी जीत सकता है । हमारे जीवन का प्रत्येक कार्य अभ्यासों के अधीन है । यदि अभ्यासों द्वारा हमें कार्य में सुगमता न प्रतीत होती, तो हमारा जीवन बड़ा दुखमय प्रतीत होता । लिखने का अभ्यास, वस्‍त्र पहनना, पठन-पाठन इत्यादि इनके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । यदि हमें प्रारम्भिक समय की भाँति सदैव सावधानी से काम लेना हो, तो कितनी कठिनता प्रतीत हो । इसी प्रकार बालक का खड़ा होना और चलना भी है कि उस समय वह कितना कष्‍ट अनुभव करता है, किन्तु एक मनुष्‍य मीलों तक चला जाता है । बहुत लोग तो चलते-चलते नींद भी ले लेते हैं । जैसे जेल में बाहरी दीवार पर घड़ी में चाबी लगाने वाले, जिन्हें बराबर छः घंटे चलना होता है, वे बहुधा चलते-चलते सो लिया करते हैं ।



मानसिक भावों को शुद्ध रखते हुए अन्तःकरण को उच्च विचारों में बलपूर्वक संलग्न करने का अभ्यास करने से अवश्य सफलता मिलेगी । प्रत्येक विद्यार्थी या नवयुवक को, जो कि ब्रह्मचर्य के पालन की इच्छा रखता है, उचित है कि अपनी दिनचर्या निश्‍चित करे । खान-पानादि का विशेष ध्यान रखे । महात्माओं के जीवन-चरित्र तथा चरित्र-संगठन संबन्धी पुस्तकों का अवलोकन करे । प्रेमालाप तथा उपन्यासों से समय नष्‍ट न करे । खाली समय अकेला न बैठे । जिस समय कोई बुरे विचार उत्पन्न हों, तुरन्त शीतल जलपान कर घूमने लगे या किसी अपने से बड़े के पास जाकर बातचीत करने लगे । अश्‍लील (इश्कभरी) गजलों, शेरों तथा गानों को न पढ़ें और न सुने । स्‍त्रियों के दर्शन से बचता रहे । माता तथा बहन से भी एकान्त में न मिले । सुन्दर सहपाठियों या अन्य विद्यार्थियों से स्पर्श तथा आलिंगन की भी आदत न डाले।



विद्यार्थी प्रातःकाल सूर्य उदय होने से एक घण्टा पहले शैया त्यागकर शौचादि से निवृत हो व्यायाम करे या वायु-सेवनार्थ बाहर मैदान में जावे । सूर्य उदय होने के पाँच-दस मिनट पूर्व स्नान से निवृत होकर यथा-विश्‍वास परमात्मा का ध्यान करे । सदैव कुऐं के ताजे जल से स्नान करे । यदि कुऐं का जल प्राप्‍त हो तो जाड़ों में जल को थोड़ा-सा गुनगुना कर लें और गर्मियों में शीतल जल से स्नान करे । स्नान करने के पश्‍चात् एक खुरखुरे तौलिये या अंगोछे से शरीर खूब मले । उपासना के पश्‍चात् थोड़ा सा जलपान करे । कोई फल, शुष्क मेवा, दुग्ध अथवा सबसे उत्तम यह है कि गेहूँ का दलिया रंधवाकर यथारुचि मीठा या नमक डालकर खावे । फिर अध्ययन करे और दस बजे से ग्यारह बजे के मध्य में भोजन ले । भोज में मांस, मछली, चरपरे, खट्टे गरिष्‍ट, बासी तथा उत्तेजक पदार्थों का त्याग करे । प्याज, लहसुन, लाल मिर्च, आम की खटाई और अधिक मसालेदार भोजन कभी न खावे । सात्विक भोजन करे । शुष्‍क भोजन का भी त्याग करे । जहाँ तक हो सके सब्जी अर्थात् साग अधिक खावे । भोजन खूब चबा-चबा कर किया करे । अधिक गरम या अधिक ठंडा भोजन भी वर्जित है । स्कूल अथवा कालिज से आकर थोड़ा-सा आराम करके एक घण्टा लिखने का काम करके खेलने के लिए जावे । मैदान में थोड़ा घूमे भी । घूमने के लिए चौक बाजार की गन्दी हवा में जाना ठीक नहीं । स्वच्छ वायु का सेवन करें । संध्या समय भी शौच अवश्य जावे । थोड़ा सा ध्यान करके हल्का सा भोजन कर लें । यदि हो सके तो रात्रि के समय केवल दुग्ध पीने का अभ्यास डाल लें या फल खा लिया करें । स्वप्नदोषादि व्याधियां केवल पेट के भारी होने से ही होती हैं । जिस दिन भोजन भली भांति नहीं पचता, उसी दिन विकार हो जाता है या मानसिक भावनाओं की अशुद्धता से निद्रा ठीक न आकर स्वप्नावस्था में वीर्यपात हो जाता है । रात्रि के समय साढ़े दस बजे तक पठन-पाठन करे, पुनः सो जावे । सदैव खुली हवा में सोना चाहिये । बहुत मुलायम और चिकने बिस्तर पर न सोवे । जहाँ तक हो सके, लकड़ी के तख्त पर कम्बल या गाढ़े कपड़े की चद्दर बिछाकर सोवे । अधिक पाठ न करना हो तो 9 या 10 बजे सो जावे । प्रातःकाल 3 या 4 बजे उठकर कुल्ला करके शीतल जलपान करे और शौच से निवृत हो पठन-पाठन करें । सूर्योदय के निकट फिर नित्य की भांति व्यायाम या भ्रमण करें । सब व्यायामों में दण्ड-बैठक सर्वोत्तम है । जहाँ जी चाहा, व्यायाम कर लिया । यदि हो सके तो प्रोफेसर राममूर्ति की विधि से दण्ड-बैठक करें । प्रोफेसर साहब की विधि विद्यार्थियों के लिए लाभदायक है । थोड़े समय में ही पर्याप्‍त परिश्रम हो जाता है । दण्ड-बैठक के अलावा शीर्षासन और पद्‍मासन का भी अभ्यास करना चाहिए और अपने कमरे में वीरों और महात्माओं के चित्र रखने चाहियें ।

साभार-जाट लैंड (रामप्रसाद बिस्मिल जी) की आत्मकथा से 

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

मैं भी ऐसा हो सकता हूँ

आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण........
-आचार्य सत्यजित् जी

-आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर

प्रभुकृपा से मुझे यह मानव-तन मिला। समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ तन है यह। श्रेष्ठ बुद्धि-इन्द्रियों-शरीर का जितना श्रेष्ठ उपयोग करके अपने जीवन को मैं जितना श्रेष्ठ बना सकता था, वह नहीं बना पाया हूँ। जितने दुर्गुण मुझे दूर कर लेने चाहिए थे, वे हो नहीं पाये हैं। मैं प्रयास करता हूँ, पर सफलता नहीं मिलती। अनेक बार प्रयास करना चाहते हुए भी प्रयास नहीं कर पाता हूँ, कम प्रयास कर पाता हूँ। क्यों ?
मैं जैसा जीवन जी रहा हूँ, उससे अच्छा जीवन जीने वाले बहुत हैं। मेरे से अधिक विद्वान्-ज्ञानी, मेरे से अधिक शांत-एकाग्र, मेरे से अधिक तपस्वी, मेरे से अधिक संयमी, मेरे से अधिक वीतराग, मेरे से अधिक सात्त्विक, मेरे से अधिक प्रयत्नशील-पुरुषार्थी, मेरे से अधिक ईश्वर-भक्त, मेरे से अधिक मुमुक्षु.................। ये इतने अच्छे धार्मिक-आध्यात्मिक व्यक्ति बन गये, मैं नहीं बन पाया, क्यों ? मेरे में क्या कमी है ? क्या मेरे प्रति ईश्वर की कृपा कम है ? क्या मैं ईश्वर का उतना प्रिय नहीं हूँ ? क्या मेरी आत्मा दुर्बल-अयोग्य-अक्षम है ? क्या ये भिन्न प्रकार की आत्माएँ है ? जो अच्छा आध्यात्मिक जीवन जी रही हैं ?
मूलतः सभी आत्माएँ शक्ति-सामार्थ्य-स्वभाव में समान हैं। कर्मानुसार शरीर-बुद्धि आदि साधनों व संस्कारों में भिन्नता रहती है। यह भिन्नता किसी-किसी में अधिक रहती है। आत्मा की दृष्टि से मैं अन्यों के समान हूँ। पर शरीर-बुद्धि आदि साधनों व संस्कारों में भिन्नता रहती है। साधनों की भिन्नता देखकर प्रतीत होता है कि ईश्वर की इन पर अधिक कृपा है, मेरे पर कम कृपा है। किन्तु ईश्वर तो न्यायकारी है, उसके लिए सब आत्माएँ मूलतः समान हैं, किन्तु वह कर्मानुसार यथायोग्य न्यायानुसार फल देना ईश्वर का स्वभाव है, यह ईश्वर का अनुपम स्वभाव है। प्रभु की यह कृपा तो मेरे पर भी पूर्णतः विद्यमान है।
प्रभुकृपा से जो आत्माएँ धर्म-अध्यात्म के क्षेत्र में अच्छी प्रगति प्राप्त कर चुकी हैं, यह उनके परिश्रम-तपस्या के कारण हैं। मैं या कोई भी आत्मा वैसे ही परिश्रम-तपस्या करके धर्म-अध्यात्म के क्षेत्र में अच्छी प्रगति कर सकते हैं। जो आज उच्च आध्यात्मिक स्तर पर पहुँचे हैं, वे भी कभी अन्यों जैसे निम्न आध्यात्मिक स्तर के थे। उन्होंने प्रभुकृपा के महत्त्व को समझा, ज्ञान-तपस्या-संयम का मार्ग अपनाया, तो वे विशेष प्रभुकृपा के पात्र बन सके और उच्च आध्यात्मिक स्तर के शान्ति-सन्तोष-सुख में जी रहे हैं। मैं भी ऐसा हो सकता हूँ।
साधना करना मुझे कठिन लगता है। त्याग-तपस्या-संयम आदि को पालने में बड़ा कष्ट प्रतीत होता है, सांसारिक सुखों का आकर्षण प्रबल है, बार-बार संयम टूटता है, त्याग-तपस्या को छोड़ बैठता हूँ। क्या यह कठिनाई मात्र मेरे साथ है, क्या यह मात्र मेरे साथ हो रही है, क्या यह आज के युग में ही है ? इसी प्रकार की परिस्थिति में रहते हुए, इसी प्रकार की कठिनाई-कष्ट को उठाते हुए कुछ आत्माएँ उच्च आध्यात्मिक स्तर पर पहुँची हैं। मेरे साथ आने वाली कठिनाईयाँ व कष्ट अपूर्व-अद्भुत नहीं हैं, मात्र मुझे ही इससे नहीं गुजरना पड़ रहा है। हर आत्मा को इस प्रक्रिया से गुजरना होता है। पुराने कुसंस्कार बाधक बनते ही हैं।
प्रभुकृपा से धर्म-अध्यात्म का शुद्ध मार्ग मुझे मिला है, मैं इसके संपर्क में आ गया हूँ, यह मेरा एक बड़ा सौभाग्य है। मेरे में आध्यात्मिक जीवन जीने की इच्छा है, यह भी बड़ा सौभाग्य है। मैं अपने जीवन को शुद्ध सात्त्विक, संयमी, संतोषी, वीतरागयुक्त बनाना चाहता हूँ, यह इच्छा अनुपम है। इस इच्छा को बार-बार करके, इसे दृढ़ व व्यापक बनाकर, यथासामर्थ्य साधना करने में कष्ट-बाधा कम होते जायेंगे, आध्यात्मिक मार्ग पर चलना-बढ़ना-चढ़ना सरल होता जायेगा। इस प्रक्रिया से तो मुझे निकलना ही पडे़गा। पर इतना निश्चित है मैं भी अन्य उच्च आध्यात्मिक व्यक्तियों जैसा बन सकता हूँ, अवश्य बन जाऊँगा, प्रभुकृपा में कोई कमी नहीं है। आत्मा के आधार पर प्रभु की कृपा में कोई भेद नहीं है, योग्यतानुसार यथायोग्य कृपा वे सदा करते हैं। मुझे परिश्रम से अपनी योग्यता बढ़ानी है। मैं भी अन्यों जैसा श्रेष्ठ बन सकता हूँ। यदि मैंने सावधानी नहीं रखी तो मैं अन्यों जैसा निकृष्ट भी बन सकता हूँ।