मंगलवार, 23 अगस्त 2011

ऐश्वर्य - जिसे पाने के लिए यह जन्म मिला



ऋषितुल्य आचार्य सत्यजित जी का लेख  

आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...........
ऐश्वर्य-जिसे पाने के लिए यह जन्म मिला

 प्रभु कृपा से मिले इस जन्म को पाकर हम अनेक सुख व सुख के साधनों को उपलब्ध हो सकते हैं। हमारे पुरुषार्थ की न्यूनाधिकता इसमें न्यूनाधिकता का कारण बनती है, अन्यों का सहयोग व विरोध भी कारण बनता है। पुरुषार्थ की न्यूनाधिकता का मुख्य कारण हमारी इच्छा की न्यूनाधिकता का होना है। किसी विषय में इच्छा की न्यूनाधिकता का होना उस विषय से होने वाले हानि-लाभ सम्बन्धी हमारे ज्ञान पर निर्भर करता है। जिस साधन अर्थात~ ऐश्वर्य के बारे में हमारा ज्ञान यह हो कि यह अधिक लाभकर है, हम उसे पाने की इच्छा कर ही लेते हैं व पुरुषार्थ भी उसे पाने का करने लग जाते हैं। पुरुषार्थ के अनुरूप उस ऐश्वर्य को न्यूनाधिक पा भी लेते हैं।
 कुछ ऐश्वर्य ऐसे हैं जिन्हें हम अल्प मात्रा में ही उपलब्ध कर पाते हैं। उन ऐश्वर्यों को अधिक मात्रा में पाना हमारे सामथ्र्य से बाहर होता है, यथा धन, सम्पत्ति, ज्ञान, बल आदि। कुछ ऐश्वर्य सर्वोच्चता पर निर्भर करते हैं - सबसे बड़ा ज्ञानी, धनी, बली आदि। इसे तो सब प्राप्त ही नहीं कर सकते। ऐसी सर्वोच्चता को तो एक समय में एक ही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। कितना भी यत्न करें सब ऐसे सर्वाच्च शिखर पर नहीं पहुँच सकते। ये सब बाह्य ऐश्वर्य हैं।
 इन अनेक ऐश्वर्यों से भिन्न भी अनेक ऐश्वर्य हैं जो हम सब पा सकते हैं। प्रभु-कृपा से हम सब मनुष्यों में यह सामथ्र्य है कि उन आन्तरिक ऐश्वर्यों को न केवल पा सकते हैं बल्कि उन आन्तरिक ऐश्वर्यों के चरम तक भी पहुँच सकते हैं। वह ऐश्वर्य है आध्यात्मिक शान्ति-सन्तोष का, वह ऐश्वर्य है ईश्वर की निकटता का, वह ऐश्वर्य है निर्भयता का, वह ऐश्वर्य है शोकरहितता का, वह ऐश्वर्य है ईश्वर के आनन्द का।
 बाह्य ऐश्वर्य कम हों या अधिक, दोनों ही स्थितियों में प्रभु ने हमारे में यह सामर्थ्य दी है कि हम आन्तरिक ऐश्वर्यों को पा सकते हैं। आन्तरिक ऐश्वर्यों की प्राप्ति सब कर सकते हैं। आन्तरिक ऐश्वर्य की न्यूनता का यहां प्रश्न नहीं रहता। बाह्य ऐश्वर्य तो सीमित होने से सब को इच्छानुसार पूरे-पूरे नहीं मिल सकते। हम सब एक साथ चक्रवर्ती सम्राट नहीं बन सकते, वह तो एक समय में एक ही व्यक्ति बन सकता है। आन्तरिक ऐश्वर्य के सम्राट हम सब बन सकते हैं। एक का आन्तरिक ऐश्वर्य दूसरे के आन्तरिक ऐश्वर्य में बाधक नहीं बनता, नहीं बन सकता। एक का बाह्य ऐश्वर्य दूसरे के बाह्य ऐश्वर्य में बाधक बन सकता है, बनता है।
  इन अनुपम अद्वितीय आन्तरिक ऐश्वर्यों की प्राप्ति के लिये आन्तरिक साधना ही मुख्य उपाय है। प्रभु-कृपा से हम आन्तरिक-साधना, मन की शुद्धि, मन की एकाग्रता, विवेक, वैराग्य आदि को प्राप्त करने का पुरुषार्थ आरंभ कर दें या जितना पुरुषार्थ कर रहे हैं उसे बढ़ा दें तो हमारे पुरुषार्थ के साथ ईश्वर की कृपा भी जुड़ जायेगी व दोनों के मिलने से तदनुरूप हमारे में आन्तरिक ऐश्वर्य की वृद्धि होने लग जायेगी। प्रभु हम पर कृपा करने को उद्यत हैं, हमें पुरुषार्थ हेतु उद्यत होना है, पुरुषार्थ करना है।

आचार्य सत्यजित~
ऋषि उद्यान, अजमेर