शनिवार, 16 मार्च 2013

दयानन्द दिव्य दर्शन भूमिका


लेखक: श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय



हमसे हमारे बन्धुवर्ग बार-बार यह प्रश्न करते हैं कि तुम यह क्या कर रहे हो ? मनुष्य पृथ्वी पर जन्म लेकर जो काम करते हैं; जिस मार्ग का अनुसरण करते हैं, तुम उनमें से कोई काम भी नहीं करते ? तुमने अपने जीवन का इतना समय केवल ‘दयानन्द-दयानन्द’ की रट लगाकर गंवाया है। जीवन के जिस अंश को सबसे श्रेष्ठ माना जाता है तुमने उसे ‘दयानन्द- दयानन्द’ कहके ही बिताया है।

बन्धुवर्ग का यह आक्षेप सर्वथा निर्मूल भी नहीं है, क्योंकि गत १५ वर्ष के अधिक भाग को हमने दयानन्द-सम्बन्धी कार्य में ही लगाया है। दयानन्द सरस्वती की जीवन-कथा के कीर्तन करने, दयानन्द के एक सर्वांग-सुन्दर जीवन-चरित के प्रकाशित करने के अभिप्राय से सामग्री और विवरण-माला के संग्रह करने में पूरे १५ वर्ष न भी लगे हों पर इसमें तो सन्देह ही नहीं है कि १॰ वर्ष तो अवश्य ही लगे हैं।

सहस्रों रुपयों की प्राप्ति के लिए मनुष्य जितना उत्साह और परिश्रम करता है, हमने उतना उत्साह और परिश्रम दयानन्द के जीवन की एक-एक घटना का पता लगाने में व्यय कर दिया है। एक ही घटना की सत्यता का निश्चय करने के लिए हम अनेक बार एक ही स्थान में गए हैं। जिस समय भी यह सुना कि अमुक स्थान पर अमुक व्यक्ति के पास जाने से दयानन्दचरित की अमुक घटना का ठीक-ठीक पता लग सकता है, हम उसी समय टिकट लेकर सैकड़ों मील की यात्रा करके उस स्थान पर पहुंचे हैं। हमारी यह दशा रही है कि यदि आज हम अजमेर हैं तो कुछ दिन पीछे अमृतसर हैं, और दो मास पीछे मध्यभारत के इन्दौर नगर में हैं, कभी महाराष्ट्र देश में कोल्हापुर में हैं तो कभी संयुक्तप्रान्त में गंगा के तटवर्ती ग्राम कर्णवास में। इसी प्रकार इस विशाल भारतवर्ष के सभी प्रान्तों में (केवल मद्रास प्रान्त को छोड़कर) बरसों पर्यटन किया है। न हमने जाडे़ की परवाह की है न गर्मी की, न शरीर के स्वास्थ्य की ओर ध्यान दिया, न अस्वास्थ्य की ओर। कभी-कभी हम धनाभाव के कारण अस्थिर तो हो गये, परन्तु हमने अपने व्रत को नहीं तोड़ा। प्रवास के कष्ट-क्लेश को भी हर प्रकार सहन किया। जो व्रत हमने धारण किया था, उससे हमें किसी वस्तु ने एक दिन के लिए भी विचलित नहीं किया, न प्रबल धनाभाव ने, न अनेक प्रकार की बाधाओं ने और न ही प्रवास की असुविधाओं से उत्पन्न हुए सामयिक नैराश्य ने। परन्तु प्रश्न यह है कि इस कठिनाइयों ने हमें विचलित क्यों नहीं किया ? दयानन्द कौन है ? उसकी शिक्षा में ऐसी कौन-सी अलौकिक शक्ति है, इसके उपदेशों में ऐसा कौन-सा संजीवन मन्त्र छिपा हुआ है, जिसके कारण हम उसके जीवन-इतिहास के लिए क्लेश पर क्लेश सहते आये हैं ? दयानन्द के चरित के प्रकाशन के साथ भारत-भूमि का ऐसा कौन-सा हिताहित सम्बद्ध है जिसके कारण हमने सैकड़ों प्रतिकूलताओं के बीच में अपने आपको अटल रखा है ? दयानन्द की शिक्षा व उदाहरण के साथ बंगवासियों का, बल्कि भारतवासियों का और इससे भी अधिक पृथ्वीभर के रहनेवालों का ऐसा कौनसा कल्याण अनुस्यूत है जिसके कारण हमने अपने आपको इस भीष्म प्रतिज्ञा में बांधा है ? इन प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर देना आवश्यक है। इसलिए हम अपने लेख को कुछ खोलकर लिखने का यत्न करेंगे।



महर्षि दयानन्द सरस्वती


दयानन्द दिव्य दर्शन


जन्म १८२४ मोक्षप्राप्ति १८८३

बाल्यावस्था का नाम                        मूलशंकर
पितृनाम                        श्री करसन जी तिवारी
मातृनाम                        श्रीमती यशोदा देवी
जन्मस्थान                        टंकारा (गुजरात)
यज्ञोपवीत संस्कार                        १८३४
बोध का प्रथम आलोकन
एवं प्रभुप्राप्ति का संकल्प                 शिवरात्रि १८३८
यजुर्वेद सम्पूर्ण कण्ठस्थ                 १८३८
गृहत्याग                         १८४५
ब्रह्मचर्यदीक्षा (शुद्धचैतन्य)         १८४६
सन्यासदीक्षा-स्वामी पूर्णानन्द जी
से दयानन्द नाम धारण                 १८४८
मथुरा में स्वामी विरजानन्द जी दण्डी
के पास शास्त्राध्ययन                         १४-११-१८६॰ से ७-४-१८६३ तक
हरिद्वार कुम्भ पर पाखण्ड-खण्डिनी पताका १२-३-१८६७
वैचारिक क्रान्ति और वैदिक संस्कृति की
पुनः स्थापना के अमर ग्रन्थ
‘सत्यार्थ प्रकाश’ का लेखन                         ७-४-१८७४
आर्यसमाज की स्थापना                 ७-४-१८७५
संस्कारविधि का लेखन                 १८७६
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का लेखन         १८७७
जीवन चरित्र का प्रकाशन                         १५-१२-१८७७
देहत्याग एवं मोक्षप्राप्ति                दीपावली ३॰-१॰-१८८३

जीवनकाल वर्ष - ५९


लेखक: श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय

बुधवार, 13 मार्च 2013

दयानन्द दिव्य दर्शन प्राक्कथन



लेखक: श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय

जैसे एक नदी की सृष्टि नाना दिग्देशागत जल-धाराओं के समवाय से होती है, वैसे ही मनुष्य जीवन की सृष्टि भी नाना व्यक्ति और प्रवाह-समूह के समवाय से होती है। जिन्होंने ऊंचे पर्वत पर खडे़ होकर किसी नदी विशेष के उत्पत्ति स्थान को देखा है, वे जानते हैं कि कितने छोटे-बडे़ स्रोत भिन्न-भिन्न दिशाओं से आकर आपस में मिलकर नदी की उत्पत्ति करते हैं। मनुष्य-जीवन भी ठीक इसी प्रकार से उत्पन्न होता है। किसी एक मनुष्य के जीवन की पर्यालोचना करने से मालूम होगा कि उसमें अनेक विभिन्न प्रभावों का सम्मिलन हुआ है। यदि विचार करके देखा जाये कि मैं कौन हूं, यदि अहंभाव का विश्लेषण किया जाये और देखा जाये कि मेरा संगठन किस उपादान से हुआ है। मैं किस-किस शक्ति के समवाय से सृष्ट हुआ हूं, मेरे ‘मैं’ में मेरा कितना निजू भाग और कितना दूसरों का है, तो ज्ञात होगा कि उसमें अनेक छोटे-बडे़ प्रभावों का समवाय है। प्रथम पूर्वजन्मार्जित संस्कार, दूसरे पितृ-शक्ति, तीसरे मातृ-शक्ति, चौथे परिवेष्टनीय शक्ति, पांचवे शिक्षा शक्ति। इन्हीं प्रधान-प्रधान पांचों शक्तियों के स्रोतों के समवाय से मनुष्य की जीवननदी बनती है। इनके अतिरिक्त सूक्ष्मभाव से देखने से उसमें  और भी छोटी-बड़ी शक्तियों का समवाय देखने में आता है। प्रागुक्त परिवेष्टनीय शक्ति के साथ जन्म-गृह, जन्म-स्थान और जन्म-पल्ली का घनिष्ठ सम्बन्ध है।

परिवेष्टनीय शक्ति उसे कहते हैं, जिससे मनुष्य अहरहः घिरा रहता है। उसके भीतर मनुष्य के चतुर्दिग्वर्ती चेतन, अचेतन और उद्भिज्जादि समस्त पदार्थभूत की शक्ति परिगणित होती है। हमने जिस घर में जन्म लिया, उसके चतुर्दिक्स्थ जो कुछ भी है, वह सब हमारे मन पर अपने प्रभाव का विस्तार करता है। जिस ग्राम में हमने जन्म लिया है, उसमें जो कुछ भी है, वह हमारे मन कों संगठित करने में सहायता करता है। जिस स्थान वा जिस ग्राम में हम भूमिष्ठ हुए हैं उसके वृक्ष, लता, नदी, सरोवर, क्षेत्र, जंगल, वनभूमि, शिलास्तूप सब पदार्थ ही हमारे मनोराज्य को विकसित करते हैं। यह एक विवादरहित सत्य है कि मनुष्य का अध्यात्मजगत् जिस प्रकार बाह्यजगत् के ऊपर कार्य करता है, बाह्यजगत् भी उसी प्रकार अध्यात्मजगत् के ऊपर अहरहः अपना प्रभाव करता है। नदी की कल्लोल, सागर-वृक्ष का प्रकम्प, अत्युच्च शैल की गम्भीरता, विस्तीर्ण मरु प्रान्तर की भीषणता, मेघमाला की घन-गम्भीर नीलिमा, निबिड वनभूमि की अपरिच्छिन्न निस्तब्धता, सब ही मनुष्य की चित्तवृत्ति का संगठन करती हैं। यही मनस्तत्त्व पण्डितों ने स्थिर किया है। इसलिये हम कहते हैं कि जो लोग संसार में महाजन के नाम से विख्यात हैं, जो महान् मन और विशाल बुद्धि पाकर धरित्री के पृष्ठ पर आविर्भूत हुये हैं, प्रायः वे सब ही प्रकृति की सुन्दरतर महिमा या रुद्रतर भाव के क्रोड में लालित, पालित और परिवर्धित हुए हैं।

अस्तु ! अगण्य-सुगण्य, पण्डित-मूर्ख, प्रातःस्मरणीय-परिवर्जनीय, भिखारी-प्रासादवासी, किसी भी मनुष्य को समझने का यदि यत्न किया जाय, अथवा मनुष्य जीवन को यदि यथार्थ रूप से चित्रित करके देखा जाए तो यह जानना आवश्यक है कि उसके भीतर परिवेष्टनीय शक्ति ने कितना कार्य किया है। विशेषतः जो महापुरुष हैं जिनके आविर्भाव से धरित्री पवित्र हुई है, जिनके प्रभाव से जन-समाज की गति पलटी है, वस्तुतः जो मनुष्य समाज के प्राण और मेरुदण्ड स्वरूप हैं, उनके चरित्र के वर्णन में उनकी जन्मभूमि का वर्णन अपरिहार्य रूप से आवश्यक है।

जिन्होंने इस पापपरिपुष्ट युग में जन्म लेकर जीवनभर निष्कण्टक ब्रह्मचर्य का पालन किया, जो विद्या में, वाक्पटुता में, तार्किकता में, शास्त्रदर्शिता में, भारतीय आचार्य-मण्डली के बीच में शंकराचार्य के ठीक परवर्ती आसन पर आरूढ़ होने के सर्वथा योग्य थे, वेदनिष्ठा में, वेदव्याख्या में, वेदज्ञान की गम्भीरता में, जिनका नाम व्यासादि महर्षिगण के ठीक नीचे लिखे जाने योग्य था, जो अपने को हिन्दुओं के आदर्श-सुधारक पद पर प्रतिष्ठित कर गये हैं और इस मृतप्राय आर्यजाति को जागरित करके उठाने के उद्देश्य से मृतसंजीवनी औषध के भाण्ड को हाथ में लेकर जिन्होंने भरतखण्ड में चतुर्दिक् परिभ्रमण किया था, दुःख का विषय है कि उनका चरित्र और उनकी जन्मभूमि का प्रसंग आज तक भी अप्रकाशित है। वह भारत-दिवाकर दयानन्द कहां जन्मा था, यह आज तक भी कोई नहीं जानता। आज प्रायः ३३ वर्ष स्वामी दयानन्द सरस्वती को स्वर्गारोहण किए हो गये और जिस आर्यसमाज को इन्होंने इस उद्देश्य से स्थापित किया कि उनके उपदेशों का संसार में प्रचार करें, उसकी आयु भी प्रायः ४॰ वर्ष हो गई, परन्तु उसने स्वामी जी के जन्म स्थानादि जानने के विषय में कोई विशेष यत्न नहीं किया। यद्यपि दयानन्द के जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में कितने ही ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं, परन्तु उनमें किसी में भी उनकी जन्मभूमि की कथा निश्चित रूप से नहीं लिखी गई। इसलिए दयानन्द के जितने जीवन-चरित उपस्थित हैं, वे सब अपूर्ण और अंगहीन हैं। इसलिये आवश्यक है कि उनकी जन्मभूमि के विषय में पूरा अनुसंधान और अन्वेषण किया जाय। इस कार्य को करने का हमने बीड़ा उठाया और हर्ष का विषय है कि असीम प्रयत्न और अनथक परिश्रम के पश्चात् हम अपने संकल्प को पूरा करने में कृतकार्य हुए हैं।

सत्य की खोज के लिए अनुसंधान के अविश्रान्त स्रोत का प्रवाहित रहना, गवेषणा के आलोक का प्रदीप्त रहना और जहां तक हो सके, उसे ले जाये जाना सत्य के निर्णय के लिए गवेषणा का पुनः पुनः परिचालन करना आवश्यक है, इसी प्रकार की घटना-विशेष का लोगों के सामने उज्ज्वल रूप में रखने के लिए और उसे दृढ़तर भित्ति पर प्रतिष्ठित करने के लिए अनुसंधान कार्य में बार-बार व्यापृत होना भी अपरिहार्य है। तब तक वह स्फुटतर और उज्ज्वलतर नहीं हो सकती; जब तक अनेक प्रमाणों को प्रस्तुत नहीं किया जाता, तब तक वह दृढ़तर भूमि के ऊपर स्थापित नहीं हो सकती और यह निर्विवाद है कि नानादिक् से आलोक पात करना और अनेक प्रमाणों का संग्रह करना कष्टसाध्य है।

अतः जो कष्ट हमने सहे, जो धन और समय हमने व्यय किया, उस पर हमें तनिक भी पश्चात्ताप नहीं, क्योंकि दयानन्द के जीवन-चरित का महान् विषय बिना इसके लिखना असम्भव था और उसका लिखना देश के कल्याण के लिए आवश्यक था।

देवेन्द्रनाथ मुखोपध्याय
सन् 1916

सोमवार, 11 मार्च 2013

जिन्दगी से खेलो ना


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...........

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर

प्रभुकृपा से हमें मानव तन में कर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार मिल चुका है। नये कर्म करने का अवसर मिलना बहुत बड़ी बात है। साथ में कर्म की स्वतन्त्रता का होना, वरदान से कम नहीं है। हम इच्छानुसार जैसे व जितने कर्म करना चाहते हैं, वैसे व उतने कर्म यथासामर्थ्य स्वतन्त्रता से कर सकते हैं। अच्छे व बुरे का विवेक हमें करना होता है। विवेक प्राप्ति का साधन बुद्धि, ज्ञानेन्द्रियां आदि प्रभु द्वारा उपलब्ध करा दी गई हैं। अन्तःकरण में भी प्रभु की प्रेरणाएं अनुभव की जा सकती हैं। इन सबका सदुपयोग कर विवेक को जगाये रखते हुए, हित-अहित का विचार रखते हुए कर्म की स्वतन्त्रता के अधिकार का उपयोग करना होता है।

प्रभु द्वारा प्रदत्त कर्म की स्वतन्त्रता तभी वरदान सिद्ध होती है, जब विवेक के साथ इसका उपयोग किया जाता है। किसी कर्म के करने या न करने का निर्णय अन्ततः सुख-दुःख के आधार पर होता है। इसे ही हित-अहित के रूप में देखा जाता है, जो कि उचित भी है। स्वज्ञान के अनुसार प्रायः सभी सुख-दुःख/हित-अहित को ध्यान में रखकर कर्म के करने न करने का निर्णय करते हैं। ज्ञान-विवेक में अन्तर आते ही कर्म में अन्तर आ ही जाता है। आध्यात्मिक व्यक्ति को अपने कर्मों पर दृष्टि रखने के साथ अपने ज्ञान-विवेक पर भी दृष्टि रखनी होती है।

प्रभुकृपा से बहुत से मानव सच्चे हृदय से आध्यात्मिक मार्ग पर चल रहे हैं। अपने जीवन को सार्थक आध्यात्मिक-जीवन में बदल रहे हैं। इनका विवेक इन्हें एक निश्चित मार्ग पर चलाता है। कर्म के करने या न करने का निर्णय ये भी अन्ततः सुख-दुःख/हित-अहित के आधार पर लेते हैं, किन्तु दूर-दृष्टि से। मात्र इस जन्म को ध्यान में रखा जाए, तो कर्म के करने या न करने के निर्णय एक सीमा तक ही उचित हो पाते हैं। इतने मात्र से इस मानव जीवन की सार्थकता नहीं हो पाती है।

प्रभुकृपा से आध्यात्मिक व्यक्ति में यह समझ बनने लगती है। वह इस समझ-विवेक को धीरे-धीरे बढ़ाता जाता है, परिष्कृत करता जाता है। वह अपने विवेक का परीक्षण करता रहता है और अपनी समझ को संशोधित करता जाता है। परिणाम यह आता ही है कि वह मात्र इस जीवन को ध्यान में रखकर करने या ने करने का निर्णय नहीं करता, वह मात्र इहलौकिक सुख-दुःख को आधार बनाकर निर्णय नहीं करता। उसकी दृष्टि में पारलौकिक सुख-दुःख भी रहता है। वह दोनों को ध्यान में रखता है। दोनों को ध्यान में रखते हुए हित-अहित के अनुसार कर्म करने या न करने का निर्णय लेता है। ऐसे में कभी निर्णय में देर भी हो जाती है, जो कि अन्यों को अव्यावहारिक प्रतीत होती है, किन्तु आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए यह आवश्यक होता है।

प्रभुकृपा से जैसे-जैसे विवेक परिपक्व होता जाता है, स्वाभाविक होता जाता है, दिशा व दृष्टि निश्चित-स्थिर होती जाती है, वैसे-वैसे निर्णय शीघ्रता-सहजता-सरलता से होते जाते हैं। निर्णय करते समय मन में कोई संघर्ष-द्वन्द्व-खिंचाव नहीं रहता। निर्णय उचित ही होते हैं, निर्णय हितकर ही निकलते हैं। आध्यात्मिक व्यक्ति एक भिन्न स्तर पर जीता है, उसके निर्णय अनेकों को अनुचित लग सकते हैं, लगते हैं, पर प्रभुकृपा से उसमें इतना आत्मविश्वास होता है कि वह अपने निर्णयों पर स्थिर रह पाता है, सन्तुष्ट रह पाता है, वह संशय से ग्रस्त नहीं होता। उसे स्पष्ट दिखता है कि इन सांसारिक लोगों की तरह निर्णय करना आत्मा के लिए हितकर नहीं है।

प्रभु ने सहजता से सृष्टि का निर्माण किया, उसके लिए यह क्रीड़ावत् था। वह संसार को सहजता से चला भी रहा है, यह भी उसके लिए क्रीड़ावत् है। कठिन दिखने वाला आध्यात्मिक जीवन भी विवेक के बढ़ने के साथ सहज होता जाता है, क्रीड़ावत् होता जाता है। सांसारिक व्यक्ति जब बिना विवेक के इस जीवन में क्रीड़ा करने लगता है, तो वह अपने को क्रीड़ा का आनन्द लेता हुआ अनुभव करते हुए भी आध्यात्मिक दृष्टि से विनाश की ओर ले जा रहा होता है। आध्यात्मिक दृष्टि से रहित यह क्रीड़ा उसके जीवन को खिलवाड़ बना देती है। वह अपने बहुमूल्य जीवन से खेल रहा होता है। वह अपना बहुमूल्य जीवन/समय खेल में बिता रहा होता है। अपनी जिन्दगी से खेलकर मानव जीवन बिता देना आध्यात्मिक व्यक्ति को भंयकर बर्बादी के समान लगता है। आध्यात्कि मार्ग पर चलना है, तो जिन्दगी से खेलना रोकना होता है। आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करना हो, तो अपने द्वारा किये जा रहे खिलवाड़ पर गंभीर विचार आरम्भ करना होता है। आध्यात्मिक जीवन जीना हो, तो जिन्दगी से खेलना बन्द करना होता है। प्रारम्भ में यह कठिन प्रतीत होता है, धीरे-धीरे सहज-सरल-क्रीड़ावत् हो जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि होने से यह क्रीड़ा जीवन के साथ खिलवाड़ नहीं बनती। प्रभु की कृपा से वह प्रभु के समान निर्लिप्त सहज क्रिया-क्रीड़ा बन जाती है।



गुरुवार, 7 मार्च 2013

३. कैसा धन प्राप्त करें ?


एन्द्र सानसिं रयिं सजित्वानं सदासहम्।
वर्षिष्ठमूतये भर।।
ऋग्वेद १.८.१.

अर्थ- हे (इन्द्र) परमेश्वर ! आप कृपा करके (सानसिम्) जिसका मिलकर उपभोग कर सकें ऐसे (सजित्वानम्) अपने समान लोगों में विजय दिलवाने वाले (सदा अहम्) दुष्ट शत्रु एवं हानि या दुःखों को सहन करने में समर्थ (वर्षिष्ठम्) वृद्धि करनेवाले (रयिम्) धन को (ऊतये) रक्षा के लिये (आ भर) अच्छी प्रकार दीजिए। 

कौटिल्य अर्थशास्त्र में कहा है-सुखस्य मूलं धर्मः सुख का मूल धर्म है और धर्मस्य मूलमर्थः धर्म का मूल धन है। जैसे ऊँचे पर्वतों से चारों दिशाओं में नदियाँ प्रवाहित होकर लोगों की प्यास बुझाती है वैसे ही ढेर सारे धन से सभी कार्य सिद्ध होते हैं।

यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ति।।

जिसके पास धन है उसे ही कुलीन पण्डित, विद्वान् और गुणी मानते हैं। सभाओं में उसी के प्रवचन, भाषण होते हैं। लोग उसके दर्शन को लालायित रहते हैं। सभी गुण धन के आश्रित हैं।

गत मन्त्र (ऋ॰ १.१.६) में कहा है कि देनेवाले को परमात्मा और देता है। यहाँ पर कैसे धन की कामना करें समझाया है।

१. सानसिम्- हे परमेश्वर ! हमें ऐस धन दीजिए जिसका हम उपभोग कर सकें। हम उपभुक्त धनवाले होवें। केवल धन के ऊपर सांप की भाँति चौकड़ी मारकर न बैठ जायें। जिस धन से हमारा शरीर स्वस्थ और बलिष्ठ बना रहे ऐसा धन दीजिए। धन के लोभ में हम अपने स्वास्थ्य को ही दाव पर न लगा दें। हमने यह भी सुना है-धन गया तो कुछ भी नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया, इसका भाव यही है कि स्वास्थ्य का मूल्य धन से अधिक है। अमेरिका का प्रसिद्ध उद्योगपति रॉकफेलर कहता था कि कोई मेरी आधी सम्पत्ति लेकर यदि मुझे स्वास्थ्य प्रदान करने को तैयार हो तो मैं समझूँगा कि यह घाटे का सौदा नहीं है। सानसिम् का यह भी अर्थ है कि हम धन का मिल-बाँट कर उपभोग करें। ‘केवलाघो भवति केवलादी’ अकेला खाने वाला पाप का ही भक्षण करता है।

२. धन की दूसरी कामना यह हानी चाहिये कि वह सजित्वानम् अर्थात् हमें विजय दिलवाने वाला हो। जिस धन को प्राप्त करने के लिये स्वास्थ्य की ओर ध्यान न दिया हो, उस धन का अपने लिये क्या उपयोग हो सकता है। रोगी व्यक्ति न अच्छा खा-पी सकता है और न ही अन्य आमोद-प्रमोद करता है। उसे ये सारे ताम-झाम नीरस लगते हैं। इसका दूसरा अर्थ यह है कि यह धन हमें अपने सजातीय अर्थात् समान क्षमता वालों में विजय दिलाने वाला हो। जिसको प्राप्त करने के पश्चात् उसके छीन लेने, चोरी हो जाने अथवा प्राणों का संकट उपस्थित हो जाये, वह धन किसी काम का नहीं। लोक में कहावत है-ऐसा सोना किस काम का जिसके आभूषण बना कानों में पहिनने पर चोर-उचक्के कानों को ही फाड़ कर आभूषणों को छीन लें। प्राप्त धन की सुरक्षार्थ सुदृढ़ भवन, पहरेदार या उसे शुभ कार्यों में लगा दिया जाये। नीतिकार कहते हैं-

दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति।।

दान, भोग, नाश ये धन की तीन गतियाँ होती हैं। जो न दान देता और न ही उसका उपभोग करता उसकी तीसरी गति अर्थात् विनाश होना निश्चित है।

३. सदासहम्- जिस धन को प्राप्त कर हमस ब आपत्ति एवं विघ्नों का निवारण कर सकें ऐसा धन दीजिए। जिससे अपने शत्रुओं का मान मर्दन किया जा सके, जो किसी भी परिस्थिति को सहन करने का सामर्थ्य प्रदान करे, उसी की कामना करनी चाहिये।

४. वर्षिष्ठम्-जहाँ केवल व्यय ही होता रहे, आय का स्रोत नहीं हो, वह धनराशि कितनी ही बड़ी क्यों न हो, देर-सवेर उसका स्रोत सूख जाता है। इसीलिये प्राप्त धन को ऐसे उद्योग-धन्धों में लगायें जिससे उसकी निरन्तर वृद्धि होती रहे।

५. इससे अगले मन्त्र में कहा है-

नि येन मुष्टिहत्यया नि वृत्रा रुणधामहै। त्वोतासो न्यर्वता।। ऋग्वेद १.८.२।।

हे प्रभो! धन प्राप्त कर हम शरीर का बल इतना बढ़ायें कि मुष्टि-प्रहार से ही दुष्ट जनों का मान-मर्दन कर सकें और (अर्वता) अश्वारोही सैनिकों की सेना सजाकर शत्रु बल को रोकने में सफल हों, ऐसे धन को हमें दीजिए।

इस मन्त्र के भावार्थ में महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं-ईश्वर के सेवक मनुष्यों को उचित है कि अपने शरीर और बुद्धिबल को बहुत बढ़ावें जिससे श्रेष्ठों का पालन और दुष्टों का अपमान सदा होता रहे। जिससे शत्रु जन उनके मुष्टि-प्रहारों को न सह सकें, इधन-उधर छिपते भागते फिरें।



बुधवार, 6 मार्च 2013

जिन्होंने सजाये यहां मेले


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...........

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर

प्रभु कृपा से हमें यह अति सुन्दर संसार मिला है, अति सुन्दर मानव शरीर मिला है। पशु-पक्षी भी बहुत सुन्दर हैं, हर प्राणी विशेष रंग-रूप  का मिला है। पेड़-पौधे-लताएं भी अपना-अपना रंग-रूप  लिए शोभायमान हैं। इन सब सजी-सजाई वस्तुओं के बीच मानव जिन वस्तुओं का निर्माण करता है, वे भी व्यवस्थित व सुन्दर होनी चाहिएं। सुन्दरता, सजावट, व्यवस्था अच्छी लगती है, सुन्दरता होनी भी चाहिए। प्रभु निर्मित सुन्दर प्रकृति के बीच मानव निर्मित वस्तुएं भी सुन्दर होनी चाहिएं।

प्रभु निर्मित सुन्दर प्रकृति को देखकर साधक के मन में इसके निर्माता व स्वामी प्रभु के प्रति श्रद्धा-प्रेम-सत्कार उभरते हैं। मानव निर्मित सुन्दर वस्तु को देखकर उसके निर्माता व स्वामी का बड़प्पन मन में आता है, प्रशंसा का भाव उभरता है, प्रशंसा के बोल निकलते हैं। इससे निर्माता व स्वामी को सुख मिलता है, वह आत्मगौरव अनुभव करता है। इस सुखद अनुभव के मिलने पर हम उसे पुनः पुनः पाना चाहते हैं। यह सुखद अनुभव जिस सौन्दर्य के कारण मिला था, उसे अधिकाधिक बढ़ाना चाहते हैं, बार-बार करना चाहते हैं। अब यह सजावट-सौन्दर्य का सुख व्यसन-लत का रूप ले लेता है। सजावट-सौन्दर्य करने में विशेष प्रयत्न करना होता है, समय-श्रम-धन को अधिक लगाना पड़ता है। समय-श्रम-धन हमारे पास सीमित है, जब वह सजावट-सौन्दर्य में लगता है तो अन्य आवश्यक उपयोगी वस्तुओं-कार्यों में कम होता चला जाता है।

प्रभु ने सृष्टि सुन्दर बनाई, सजाई, उसकी अनन्त सामर्थ्य है, वह कितना भी कैसा भी सौन्दर्य रच सकता है, इससे उसे कोई हानि भी नहीं होती। पुनरपि प्रभु का दिया समस्त सौन्दर्य, समस्त सजावट उपयोगिता को साथ में लिए हुए हैं, सार्थकता को साथ में लिए हुए हैं। प्रभु-निर्मित सौन्दर्य व सजावट में कुछ व्यर्थ नहीं है। सौन्दर्य-सजावट से मन में प्रसन्नता-उत्साह का आना, मन का रसमय होना भी एक प्रयोजन है, किन्तु जब हम मात्र सुख के लिए इस सौन्दर्य-सजावट को बढ़ाने लगते हैं, तो बाधाएं-दुःख उत्पन्न होने लगते हैं, समय-श्रम-धन का दुरुपयोग होने लगता है। बहुमूल्य जीवन सजावट-सौन्दर्य की क्रीड़ा में खेल में गंवाना अच्छा लगता रहता है। अन्यों की प्रशंसा के बीच हमें यह सदा हितकर ही लगता है, इससे हो रही हानि पर विचार करने का अवसर कोई-कोई ही निकाल पाता है।

प्रभुकृपा से प्राप्त इस सजे-सजाये सुन्दर संसार को उपयोगिता की उपेक्षा कर के और अधिक सजाते जाना, मेले सजाना हमें दूसरे मार्ग पर ले जाकर उस मार्ग से भटका देता है, जिस पर हमें जाना था। सजावट-प्रशंसा की कोई सीमा नहीं है, कितना भी समय-श्रम-धन इसके लिए लगाया जाए वह कम प्रतीत होने लगता है। आखिर क्यों हम ऐसे मेले सजाते चले जाना चाहते हैं ? इससे हमारा कितना हित-अहित होता है, यह साधक के लिए चिंतनीय विषय है। विचारशील मानव, अध्यात्म की ओर झुका साधक अधिकाधिक सादगी अपनाता जाता है। प्रभु ने पहले से ही सब कुछ बहुत सुन्दर बनाया है, वह उसी से तृप्त होता है, उसे ही पर्याप्त समझता है। प्रभु द्वारा दिये सौन्दर्य को बचाये रखने का तो प्रयास होना चाहिए। स्नान, व्यायाम-सफाई आदि आवश्यक हैं, किन्तु बाल काले करना आदि अनावश्यक सजावट मार्ग से भटका ही देती है। प्राकृतिक परिवर्तन का भी अपना सौन्दर्य है, उसका अनुभव सहज-सरल है, उसके लिए समय-श्रम-धन का व्यय नहीं होता।

प्रभु ने बाह्य सौन्दर्य के अतिरिक्त आन्तरिक सौन्दर्य भी दिया है। मन-बुद्धि अद्भुत हैं। इनका सौन्दर्य अद्भुत सुख-सन्तोष को देता है। बाह्य सौन्दर्य से प्राप्त सुख अल्प मात्रा व अल्प समय तक रहता है, आन्तरिक सौन्दर्य अधिक मात्रा व अधिक समय तक रहता है, वह अनुपमेय है। आन्तरिक सौन्दर्य के आते जाने के साथ ही बाह्य वस्तुओं का सौन्दर्य भी बढ़ता जाता है, वे ही बाह्य वस्तुएं बहुत अधिक सुन्दर दिखने लगती हैं। इससे प्रभु के प्रति और अधिक श्रद्धा-प्रेम-सत्कार का भाव आता जाता है। बाह्य वस्तुओं को सजाने का यह आध्यात्मिक उपाय है, आन्तरिक उपाय है।

प्रभु ने मन को सुन्दर-शुद्ध ही दिया था, उसे हम और अधिक नहीं सजा सकते। हमें अपने मलिन मन को मात्र साफ करना है। यह सफाई ही उसकी सुन्दरता को प्रकट कर देती है। सफाई करके हम नई सुन्दरता नहीं लाते हैं, नई सुन्दरता लाने का प्रयास व्यर्थ व अनावश्यक है। प्रभु प्रदत्त सजे-सजाये मेले को अपने बड़प्पन के लिए और सजाना, नये-नये मेले सजाना सुख के साथ दुःख की शृंखला को भी ले आता है। जिन्होंने सजाये यहां मेले, सुख-दुःख संग-संग झेले। जिन्दगी, कैसी है पहेली हाय! कभी ये हंसाये, कभी ये रुलाये। आध्यात्मिक व्यक्ति जिन्दगी को पहेली नहीं रहने देता, वह इसे सुलझा लेता है, वह आध्यात्मिक चिंतन द्वारा इसे समझ लेता है, वह मेले नहीं सजाता, वह तो मात्र मैल हटाने में लगा रहता है।



बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

क्या याचना करूं मैं ?


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...........

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर

प्रभु की कृपा है कि हमें अपनी उन्नति के लिए हमारे अपने-अपने कर्मानुसार मानव शरीर मिला है। हर आत्मा की इच्छा है कि वह शुद्ध सुख को प्राप्त करे ओर दुःख से पूर्णतः निवृत्त हो जाये। इसी के लिए हर आत्मा सदा प्रयत्नशील रहता है। अपने-अपने ज्ञान के अनुसार, अपनी-अपनी समझ के अनुसार प्रत्येक आत्मा अपनी इच्छा-पूर्ति के लिए प्रयत्न करता ही रहता है। मूल इच्छा सबकी समान होते हुए भी, ज्ञान/समझ व परिस्थिति के भेद से भिन्न-भिन्न प्रयत्न होते रहते हैं। प्रयत्नों की इस भिन्नता को देख कर प्रतीत होने लगता है इनकी भिन्न- भिन्न इच्छायें हैं। भिन्न-भिन्न सुख-साधनों को चाहता देखकर, भिन्न-भिन्न सुख-साधनों के लिए प्रयत्न किया जाता देखकर, यही निष्कर्ष निकाला जाता है कि सबकी अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न इच्छायें हैं। किन्तु स्पष्ट है मूल इच्छा तो निरपवाद रूप से सब आत्माओं की समान है।

आध्यात्मिक व्यक्ति हो या भौतिकवादी व्यक्ति, सब में मूल इच्छा समान है। सुख-साधनों की इच्छा में भी पर्याप्त समानताएं देखी जाती हैं।  आध्यात्मिक व्यक्ति भी धन, मकान, वस्त्रा, भोजन आदि को चाहता है क्योंकि शरीर के व्यवहार के लिए ये सब आवश्यक हैं। साधना के लिए शारीरिक अनुकूलता बड़ी सहायक होती है, अतः शरीर के लिए आवश्यक भौतिक साधन व अनुकूलताएं, साधना के लिए भी आवश्यक और सहायक होते हैं। इस प्रकार साधना-प्रिय आध्यात्मिक व्यक्ति भी भौतिक साधनों को चाहता है, वह उचित भी है।

प्रभुकृपा से हमें अपनी आध्यात्मिक प्रगति के लिए, साधना के लिए अनेक/बहुविध साधन मिले हैं। बाह्य मुख्य साधन शरीर के लिए भौतिक वस्तुएं न्यूनाधिक मात्रा में उपलब्ध हैं ही, आन्तरिक-साधन मन व बुद्धि के लिए भौतिक वस्तुएं व ज्ञान भी प्रत्येक को न्यूनाधिक मात्रा में उपलब्ध हैं। हम अपनी आध्यात्मि प्रगति के लिए इन सब साधनों की महत्ता व आवश्यकता को समझते हैं, स्वीकार करते हैं। इन साधनों के न होने पर आध्यात्मिकता में न्यूनता देखते हैं व इनके पर्याप्त होने में आध्यात्मिकता में वृद्धि देखते हैं। यह बात कुछ क्षेत्रों में ही सही होते हुए भी सर्वत्रा लगाई जाने लगती है। साधक जब अपनी आध्यात्मिक प्रगति को न्यून या बाधित देखता है तो उसे प्रायः साधनों की न्यूवता दिखने लगती है और वह इन्हीं साधनों की याचना-प्रार्थना करने लगता है,  इन्हीं के लिए विशेष प्रयत्न करने लगता है।

प्रभु ने तो कृपा करके कर्मानुसार साधन दे दिये हैं व देता रहता है। किन्तु हमें प्रायः साधनों की न्यूनता प्रतीत होती रहती है। साधनों की न्यूनता को हम अपनी आध्यात्मिक प्रगति में मुख्य बाधक कारण मानते रहते हैं, फलतः इन्हीं  की याचना-प्रार्थना अधिक करने लगते हैं, इन्हीं के लिए अधिक प्रयत्न करने लगते हैं। इन सबको करते हुए हमारी आध्यात्मिक याचनाएं प्रार्थनाएं कम होती जाती हैं, आध्यात्मिक प्रयत्न कम होते जाते हैं। इससे आध्यात्मिक प्रगति और कम हो जाती है। एक दुष्चक्र चल जाता है। इमें इस और-अधिक न्यूनता का कारण भी भौतिक साधनों व ज्ञान की कमी प्रतीत होने लगते हैं, फलतः इन्हीं की प्राप्ति में अधिकाधिक प्रयत्न  करने लगते हैं, इन्हीं की याचना-प्रार्थना करने लगते हैं।

प्रभु की महती कृपा है कि आध्यात्मिक प्रगति के लिए अधिक भौतिक साधनों की आवश्यकता नहीं होती है। आवश्यक सामान्य भौतिक साधन अधिकांश को उपलब्ध ही हैं। अभौतिक साधन ‘ज्ञान’ भी पर्याप्त उपलब्ध हो चुका होता है। आध्यात्मिक प्रगति में न्यूनता का मूल कारण इन भौतिक-अभौतिक साधनों का पूरा उपयोग न करना होता है।

प्रभुकृपा से उपलब्ध इन साधनों का जब हम अपने कारण पूरा व उचित उपयोग नहीं कर पा रहे हैं, तो ऐसे में अधिक साधनों की याचना-प्रार्थना करना व उनके लिए प्रयत्न करना, अभी सार्थक नहीं हो पाता है। ये अधिक साधन भविष्य में भले ही सार्थक हों, अभी तो व्यर्थ ही होंगे। भविष्य में भी ये भौतिक-अभौतिक साधन तभी सार्थक होंगे जब हम इनका पूरा व उचित उपयोग करेंगे। ऐसे में साधनों के लिए नई-नई याचनाएं-प्रार्थनाएं करते चले जाना, प्रयत्न करते चले जाना व्यर्थ है, बाधक है।

प्रभु बड़े कृपालु हैं, उनकी व्यवस्था निराली है। यदि हम उपलब्ध भौतिक-अभौतिक साधनों का पूरा उचित उपयोग करते हैं, तो आगे के लिए आवश्यक भौतिक-अभौतिक साधन मिलते चले जाते हैं। ज्ञान का उपयोग-आचरण करने से आगे का नया आवश्यक ज्ञान स्वतः मिलता चला जाता है। साधनों का पूरा व उचित उपयोग करते हुए पुण्य बनता ही रहता है। पुराने पुण्यों का फल भी हमें यथासमय आवश्यकता होने पर स्वतः मिलता जाता है। प्रभु की इस कृपा के रहते साधनों का पूरा व उचित उपयोग ही आगे के लिए याचना-प्रार्थना की नींव रखता है। पूर्ण पुरुषार्थ के बाद ही याचना-प्रार्थना करणीय होती है।

प्रभुकृपा से यदि हम यह देख पा रहे हैं कि हम अपने उपलब्ध भौतिक-अभौतिक साधनों का पूरा व उचित उपयोग नहीं कर पा रहे हैं, तो हम अधिक की याचना कैसे कर सकते हैं ? हमारी ऐसी याचना कैसे उचित कही जा सकती है ? प्रभु को हमारी ऐसी याचना क्यों सुननी चाहिए ? प्रभु को हमारी ऐसी याचना क्यों पूरी करनी चाहिए ? ऐसे में अन्ततः स्वयं के लिए बार-बार प्रश्न उठता है कि इन साधनों की क्या याचना करूँ मैं ?

साभार-परोपकारी मासिकी पत्रिका 

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

बड़े बिगबॉस का बड़ा घर


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...........

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर

यह दुनिया बिगबॉस का दिया हुआ घर है। इस दुनिया में वे ही आ सकते हैं, जिनका बिगबॉस चयन करते हैं। बिगबॉस किस आत्मा को कौन सा शरीर देते हैं, यह आत्माओं के कर्मानुसार निर्धारित किया जाता है। कोई आत्मा स्वेच्छा से इस दुनिया के किसी शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता है। बिगबॉस के घर की तरह इस बड़े बिगबॉस के बड़े घर ‘दुनिया’ में भी रहने के नियम निर्धारित हैं, और  इन्हें बड़े बिगबॉस ने युक्तिपूर्वक निर्धारित किया है। जो आत्मा बड़े बिगबॉस के नियमों-आदेशों का पालन करता है, वह उन का भी प्रिय बन जाता है व अन्य आत्माओं का भी। उसे पुरस्कार देकर प्रोत्साहित किया जाता है। जो उन के नियमों के विरुद्ध आचरण करता है उसे दण्ड दिया जाता है, वह अन्य आत्माओं के विपरीत आचरण करने से उनका भी अप्रिय बन जाता है, उसे अन्यों की कटु प्रतिक्रियायें अधिक झेलनी पड़ती हैं। बड़े बिगबॉस के घर में सुख-शान्ति से रहने के सबसे मुख्य व मूल उपाय हैं- उसके नियम-अनुशासन का पालन, अन्यों से सहयोग व प्रेम-पूर्वक व्यवहार।

बिगबॉस की दुनिया में कोई नेतृत्व करने वाला होता है, तो कोई  उनके पीछे चलने वाला। पीछे चलने वाले को नेतृत्व करने वाले नेता के उन्हीं आदेशों को पालना होता है, जो बिगबॉस के आदेशों के अनुरूप हों। नेता बनने का यह अर्थ नहीं होता कि मनमाने नियम बनाकर मनमाने ढंग से किसी पर भी थोप दिये जायें। नेता के अन्यायपूर्ण व्यवहार को मानने से मना करने पर बिगबॉस दण्ड नहीं देते, बिगबॉस इससे प्रसन्न होते हैं। ऐसी स्थिति में बिगबॉस नियम-विरुद्ध आदेश देने वाले नेता को दण्डित करते हैं व गलत नियम का विरोध करने वाले से प्रसन्न होकर उसे पुरस्कृत करते हैं। बिगबॉस की दुनिया में किसी से अन्याय नहीं होता। मूलतः यहां सब समान हैं। कर्मों के अनुसार सबकी कुछ-कुछ सुविधाओं-अवसरों में भेद भी रहता है, जो कि बिगबॉस का यथायोग्य व्यवहार है, न्याय है। ऐस ही बडे़ बिगबॉस (परमात्मा) करते हैं।

बिगबॉस के घर में स्थान-स्थान पर कैमरे लगे हैं, माइक पास में रखना अनिवार्य है, ताकि प्रत्येक की गतिविधि ज्ञात हो सके, तभी उचित-अनुचित का पता चल सकता है, तभी न्याय हो सकता है। किन्तु इस बड़े बिगबॉस को कैमरे कीआवश्यकता ही नहीं है, न माइक की। वे तो सर्वव्यापक हैं, सदा-सर्वत्रा विद्यमान हैं। बड़े बिगबॉस हमारे अन्तःकरण में, मन में, बुद्धि में भी विद्यमान हैं और हमारे प्रत्येक विचार को पूरी तरह जान रहे हैं। इनसे बचकर, छुपकर कोई कुछ नहीं कर सकता, विचार तक भी छुपकर नहीं कर सकता। इस बड़े बिगबॉस से कुछ भी छुपा हुआ नहीं है।

बड़े बिगबॉस बड़े शक्तिशाली हैं। ये जो न्याय करते हैं, फैसला सुनाते हैं, उसको पालन भी करवा सकते हैं। ये जो भी दण्ड व पुरस्कार देना चाहते हैं, उसे दे सकते हैं, दे देते हैं, कोई मना नहीं कर सकता। यदि कोई दण्ड से बचने का गलत प्रयास करता है तो उसे और अधिक दण्ड दिया जाता है। मूल-दण्ड तो जो बचा था, भोगना ही पड़ता है, साथ में दण्ड  से गलत ढंग से बचने के प्रयास का नया-दण्ड अतिरिक्त भोगना पड़ता है। जो पुरस्कार को पाता है वह उसे मात्रा स्वयं भी उपयोग में ले सकता है व अन्यों को भी दे सकता है। यदि वह इसे अन्यों को भी देता है तो अन्यों का प्रेम-सहयोग-आत्मीयता पाता है, साथ ही उसे और अधिक पुरस्कार (पुण्य) मिलता है।
जिसे यह समझ में आ गया कि बडे़ बिगबॉस की दुनिया में मैं कोई भी गलत कार्य करूंगा तो दण्ड से बच नहीं सकूंगा, और जो भी अच्छा कार्य करूंगा उसका पुरस्कार मुझे अवश्य मिलेगा, उस व्यक्ति का जीवन पूर्णतः बदल जाता है। वह सदा नियम-अनुशासन-धर्म का ही पालन करता है। वह अन्यों के बहकावे में आकर या अन्य क्या कहेंगे यह सोचकर; या अन्यों साथ रहना है तो उनके अनुसार चलने के लिए बिगबॉस के नियम-अनुशासने-आदेश को कभी नहीं तोड़ता, दुनिया के समस्त व्यक्ति भी विराध करें तो भी वह सत्य-धर्म को नहीं छोड़ता, क्योंकि उसे पता है कि दुनिया के समस्त लोगों की प्रियता-आत्मीयता से बढ़कर बड़े बिगबॉस की प्रियता-आत्मीयता है। बड़े बिगबॉस की दृष्टि में अच्छा बनना आवश्यक है, भले ही अन्य सब की दृष्टि में बुरे बन रहे हों। अन्य सब की दृष्टि में भले ही अच्छा बन जायें, पर इसके प्रयास में बड़े बिगबॉस के नियमों को तोड़ा, तो बड़े बिगबॉस की दृष्टि में बुरा बन जाना बहुत हानिकारक होता है।

बड़े बिगबॉस की दुनिया से निकाल देने के लिए नामांकन की प्रक्रिया नहीं चलती है। कोई अन्य हमें नामांकित करके इससे निकलवा नहीं सकता। यहां टी.आर.पी. का भी कोई चक्कर नहीं है। जो कुछ निर्णय होता है, वह बड़े बिगबॉस द्वारा ही होता है, व वही अन्तिम होता है।

इस दुनिया में चरम पर पहुँचने के लिए एक को ही जगह हो ऐसा नहीं है, प्रत्येक व्यक्ति चरम-लक्ष्य तक पहुँच सकता है। प्रत्येक व्यक्ति चरम-लक्ष्य को पाने की अपनी यात्रा में सदा लगा रहता है, लगा रहेगा। अन्य कोई उसे इससे पृथक् नहीं कर सकता। बड़े बिगबॉस सबको चरम-लक्ष्य तक पहुँचाना चाहते हैं, अतः वे  किसी का भी अवसर समाप्त नहीं करते। कोई कितना भी नियम विरुद्ध व्यवहार कर दे, उसे पूर्णतः पृथक् कभी नहीं करते, हां दण्ड अवश्य देते हैं। उसे मनुष्य जन्म न देकर अनय शरीर दे देते हैं। वहां दण्ड पूरा भोग लेने पर उसे पुनः मनुष्य जन्म देकर लक्ष्य-प्राप्ति का अवसर पुनः प्रदान करते हैं।

हम सब बिगबॉस के घर में रह रहे हैं, बड़े बिगबॉस के बडे़ घर ‘दुनिया’ में रह रहे हैं। हमें अपना-अपना खेल स्वतंत्रा खेलना है, हम जो करेंगे वही हमारे काम आयेगा।


साभार-परोपकारी पत्रिका 

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

२. प्रभु देनेवाले का कल्याण करते हैं

स्वामी देवव्रत जी प्रधान सेनापति सा.आ.वी.दल 

यदंग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि। तवेत्तत सत्यमङ्गिरः।।

ऋग्वेद १।१।६।।

अर्थ- हे (अंङ्गिरः) समस्त ब्रह्माण्ड के अंग-अंग में व्यापक और प्राणों के भी प्राण (अंग) सबके मित्र (अग्ने) परमेश्वर (त्वम्) आप (यत्) जिस हेतु से (दाशुषे) सर्वस्व दान एवं आत्म- समर्पण करनेवाले उपासक के लिये (भद्रम्) कल्याणकारी सुख, ऐश्वर्य (करिष्यसि) प्रदान करते हैं (तव इत् तत्) वह आपका (सत्यम्) सत्य, अटलव्रत नियम है।

हे प्रभो ! आपने ही तो कहा है- ईशा वास्यमिदं सर्वं......त्यक्तेन भुजिंथाः (यजुर्वेद ४॰.१) सभी धन परमात्मा का है, अतः त्यागपूर्वक उसका उपभोग करो। आगे बतलाया है-

अग्निाना रयिमश्नवत् पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम्।। ऋ. १.¬१.३।।

परमेश्वर की उपासना और भौतिक अग्नि को विविध कला-यन्त्रों में प्रयोग कर सभी आध्यात्मिक एवं भौतिक ऐश्वर्यों की प्राप्ति करो, जो प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त होवें और तुम्हें यश एवं शूरवीरता को देनेवाल हों।

इसके अतिरिक्त-

स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयान्तां पावमानी द्विजानाम्।
आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसं मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्।। 
अथर्ववेद १९.७१.१

हे मनुष्यों ! मैंने जो सभी अभीष्ट सुखों को प्राप्त कराने वाली इस वेदवाणी का उपदेश दिया है, उसके प्रचार-प्रसार के लिये अपनी सारी आयु, बल, प्रजा, पशु, कीर्ति, धन, आत्मिक शक्ति सभी को लगा दो अर्थात् इन सबको मुझे समर्पित कर ब्रह्मलोक की प्राप्ति करो।

अंग हे प्रियतम ! आपकी इस आज्ञा को शिरोधार्य कर हमने अपना सर्वस्व आपके अर्पण कर दिया है। आप तो सब ऐश्वर्यों के स्वामी हैं सो हमारी यह तुच्छ भेंट आपकी प्रजा अर्थात् प्राणिमात्र के उपकार के लिये ही स्वीकार कीजिए। यह धन, सम्पत्ति, भवनादि हमारे थे ही कब ? ये सब तो आप के ही हैं। हमने आपके आदेश को शिराधार्य कर पुरुषार्थ द्वारा इन्हें एकत्रित मात्र कर लिया है।

मेरा मुझ में कुछ नहीं जो कुछ है सब तोय।
तेरा तुझको सौंपता क्या लागे है मोय।।

त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये। हे वेदवाणी के स्वामिन् ! यह सब ऐश्वर्य आपका ही है जिसे मैं आपकी प्रजा और जनहित के लिये समर्पित कर रहा हूँ। आप इसे स्वीकार कर मुझे अनुगृहीत कीजिए।

हे अग्ने ! सन्मार्ग प्रर्दशक भगवन् ! हमने सुना है कि जो तेरा उपासक तेरे दर्शन पाने के लिये अपना सर्वस्व लुटा देता है, उसे तुम मालामाल कर देते हो। यदंग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि देने वाले का तुम कल्याण करते हो, यह आपका अटल नियम है। जो तुम्हारी प्रजा के लिये भोजन, वस्त्र, अन्न, औषधालय, वापी, कूप, तड़ाग और विद्यालय खुलवाता है, उसे आप इस लोक और परलोक दोनों में सभी सुख साधनों को देते जाते हो। क्योंकि तुम्हें पता है कि अमुक व्यक्ति का धन परोपकारादि कार्यों में आपकी प्रजा के हितार्थ व्यय किया जा रहा है।

परन्तु यह तो प्रेयमार्ग है, जिसका फल परलोक में भोग लेने के पश्चात् इस लोक में फिर से जन्म लेना पड़ता है। यह तो सकाम कर्म या सौदागरी हुई प्रभा ! मुझे इस व्यवहार में रुचि नहीं है। अगले जन्म में कुछ अधिक साधन प्राप्त न कर आपके दर्शन लाभ करना है। योगदर्शन में महर्षि पतंजलि ने कहा है-अपरिग्रह स्थैर्येजन्मकथन्ता सम्बोधः (योदर्शनम् २.३९) अर्थात् अपरिग्रह की सिद्धि हो जाने पर पूर्व जन्मों का ज्ञान हो जाता है। हे भगवन् ! मुझे इतने जान लेने मात्र से ही सन्तोष नहीं है। मैं जिसके जान लेने पर अन्य वस्तु को जानने की इच्छा ही नहीं रहती, उस ज्ञान की आशा लगाये बैठा हूँ। जब सामान्य भौतिक पदार्थों का दान करनेवाले जन का आप कल्याण करते हो और यह आपका व्रत है तो मैंने-

अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में।
है जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों में।।

मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि तेरे दर पर झोली लेकर आये इस याचक को आप खाली हाथ नहीं लौटायेंगे और मेरी झोली को भर मेरी जन्म-जन्म की प्यास को मिटा देंगे।

हे प्रभो ! मैंने अपना सर्वस्व तुम्हारे अर्पण किया है। कुछ लौकिक सुख, सम्पत्ति, मान- सम्मान पाने के लिये नहीं। मुझे तो वह धन चाहिए जिसे पा लेने के पश्चात् और कुछ प्राप्त करने की इच्छा नहीं रहती। जिसके सामने संसार के सारे वैभव हेय लगते हैं।

मोती मिला है मुझको मानस के मानसर में।
कंकर बटोरने की क्यों कामना करूँ मैं।।

वेद-स्वाध्याय से साभार 
लेखक-स्वामी देवव्रत जी 
प्रधान सेनापति 
सा.आ.वी.दल 

उपोदय व हेय संसार


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...........

आचार्य सत्यजित् जी

ऋषि उद्यान, अजमेर (राजस्थान)

प्रभुकृपा से हम आत्माओं को यह संसार मिला है। जन-सामान्य को यह संसार बहुत अच्छा लगता है, प्रिय लगता है, सुखद लगता है, अद्भुत लगता है। प्रभु प्रदत्त संसार ऐसा है भी। जन-सामान्य को यह संसार कभी बहुत बुरा लगता है, अप्रिय लगता है, दुःखद लगता है, रसहीन लगता है, दोषयुक्त लगता है, सामान्य लगता है, अरुचिकर लगता है। यह संसार ऐसा है भी। परिस्थिति, दृष्टि, ज्ञान आदि के बदलने से यह संसार पूर्व की अनुभूति से बिलकुल भिन्न अनुभूति वाला प्रतीत होता रहता है। यद्यपि संसार जब हमारे सामने होता है, तब वह अपने आप में वैसा ही होता है जैसा वह वास्तव में है।

यह संसार वास्तव में कैसा है ? क्या दोनों तरह का है ? क्या दो बिलकुल विपरीत- विरुद्ध स्वभाव वाला है ? प्रतीत तो हमें ऐसा ही होता है। क्या प्रभु ने इसे ऐसा ही विपरीत स्वभाव वाला बनाया है ? हां उसने इसे ऐसा ही बनाया है।  हम आत्माओं के कल्याण के लिए उसने इसे ऐसा ही बनाया है। यह संसार ऐसा ही होना चाहिए था। यह संसार ऐसा ही हो सकता था।

सांसारिक-भोगी व्यक्ति स्वस्थ-प्रसन्न-अनुकूल स्थिति में इसे प्रिय-सुखद-रसयुक्त समझता है और अस्वस्थ-अप्रसन्न-प्रतिकूल स्थिति में इसे अप्रिय-दुःखद-रसहीन समझने लगता है। आध्यात्मिक-साधक व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से स्वस्थ-प्रसन्न-अनुकूल स्थिति में होने पर इसे अप्रिय-दुःखद-रसहीन समझता है और आध्यात्मिक दृष्टि से अस्वस्थ-अप्रसन्न- प्रतिकूल स्थिति में होने पर इसे प्रिय-सुखद-रसयुक्त समझने लगता है। संसार का प्रिय-सुखद -रसयुक्त लगना सांसारिक दृष्टि से उचित माना जाता है व आध्यात्मिक दृष्टि से अनुचित माना जाता है। संसार का अप्रिय-दुःखद-रसहीन लगना सांसारिक दृष्टि से अनुचित माना जाता है व आध्यात्मिक दृष्टि से उचित माना जाता है।

प्रभुकृपा से मिला यह संसार वस्तुतः भोग व अपवर्ग दोनों के लिए बनाया गया है। साधक को इस संसार को किस दृष्टि से देखना चाहिए ? सांसारिक व्यक्ति भी इस संसार के साथ अतिवादी दृष्टिकोण अपना लेेते हैं व आध्यात्मिक व्यक्ति भी। इस संसार को साध्य-लक्ष्य के रूप में देखते हुए इसे प्रिय-सुखद-रसयुक्त समझना यह एक अतिवादी दृष्टिकोण है, अयथार्थ-मिथ्या दृष्टिकोण है। इस संसार को साधन-उपाय के रूप में देखते हुए इसे अप्रिय- दुःखद-रसहीन समझना, यह भी एक अतिवादी दृष्टिकोण है, अयथार्थ-मिथ्या दृष्टिकोण है। ऐसा दृष्टिकोण अपनाने वालों को अन्ततः हानि ही उठानी पड़ती है।

प्रभु ने इस संसार को साधन के रूप में प्रिय-सुखद-रसयुक्त-अनुकूल बनाया है, अतः साधन के रूप में यह संसार उपादेय-ग्राह्य-स्वीकार्य है, होना चाहिये। प्रभु ने इस संसार को साध्य के रूप में अप्रिय-दुःखद-रसहीन-प्रतिकूल बनाया है, अतः साध्य के रूप में यह संसार त्याज्य-अग्राह्य-अस्वीकार्य है, होना चाहिए। यह सम्यक् दृष्टि है। इस सम्यक् दृष्टि के प्राप्त होने पर साधक को यह संसार प्रिय-सुखद-रसयुक्त-अनुकूल लगते हुए भी बांधता नहीं है, बल्कि मुक्ति देने वाला बन जाता है। संसार का प्रिय-सुखद-रसयुक्त-अनुकूल लगना साधना या मुक्ति में तब बाधक बनता है, जब हम इसे साध्य के रूप में देख रहे होते हैं। साधन के रूप में यह संसार कितना भी प्रिय लगे साधना में कोई बाधा नहीं डालता, बल्कि जितना प्रिय लगता है, उतना अनुकूल होता जाता है।

प्रभुकृपा से साधक इस संसार की अप्रियता-दुःखस्वरूपता-रसहीनता को समझने लगता है, यह सांसारिक व्यक्ति की अपेक्षा ऊँची स्थिति है, किन्तु यही दृष्टि साधक की साधना में बाधक भी बन जाती है। जब साधक इस संसार को अप्रिय-दुःखद-रसहीन मानकर उपेक्षित करने लगता है, संसार के प्रति इस अप्रियता-उपेक्षा को वैराग्य मानकर इसे अपनी आध्यात्मिक प्रगति मानने लगता है, तब उसे यह अवश्य विचार कर लेना होता है कि मैं संसार को साध्य की दृष्टि से देखते हुए कर रहा हूँ या साधन की दृष्टि से देखते हुए कर रहा हूँ ?
सुलझा हुआ साधक प्रभुकृपा से शीघ्र ही यह जान जाता है कि संसार साधन के रूप में तो उपादेय है, हेय नहीं है। यह संसार साध्य के रूप में तो उपादेय नहीं है, त्याज्य है। पुनरपि व्यवहार में ऐसा कर पाना प्रायः नहीं हो पाता है। साधक की वर्षों की विचारधारा उसे संसार को हेय ही मानने पर विवश करती रहती है और साधक संसार के साथ साधन रूप में भी हेय का व्यवहार करता चला जाता है। सुलझा हुआ साधक थोड़ी सी समझदारी, थोड़ा सा विवेक रख ले, थोड़ा सा ध्यान दे देवे तो प्रभुकृपा से यह बदलाव अति सरलता से हो जाता है। यही सम्यक् दृष्टि है।

यह संसार उपादेय भी है, हेय भी है। साधन के रूप में यह उपादेय-ग्राह्य है, साध्य के रूप मंे यह अनुपादेय-त्याज्य है। प्रभु ने कृपा करके इसे ऐसा ही बनाया है, यह ऐसा ही है, यह ऐसा ही हो सकता था। प्रभुकृपा से हम प्रभु की कृपा के स्वरूप को समझ सकते हैं। ऐसी बुद्धि-सामर्थ्य प्रभु ने हमें प्रदान कर दी है। उपयोग करना या न करना, लाभ उठाना या न उठाना हमारी स्वतन्त्रता है।

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

अन्तर्यात्रा (भाग १) मैं कौन हूँ ?


आचार्य सत्यजित् जी 
ऋषि उद्यान, अजमेर

अन्तर्मुखी बनेंगे.................।

ओ ऽ ऽ ऽ ऽ म् ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ओ ऽ ऽ ऽ ऽ म् ऽ ऽ ऽ ऽ 

इस कक्षा का नाम है अन्तर्यात्रा।

साधक व्यक्ति जहां ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना करता है, ध्यान के काल में एकाग्र होता है, वहां ईश्वर के स्मरण प्रार्थना के अतिरिक्त और भी बहुत सी बातें करनी होती हैं। कुछ मूलभूत परीक्षण और निरीक्षण करने आवश्यक होते हैं। उन निरीक्षणों, परीक्षणों को करके निर्णय निकालने भी आवश्यक होते हैं। ये अध्यात्म का मार्ग केवल ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना पर अधिक लम्बा नहीं चल पाता है। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना अध्यात्म का अत्यावश्यक अंग है, इसके बिना भी गति नहीं है, किन्तु केवल ईश्वर की स्तुति और प्रार्थना करने में भी गति नहीं है। बहुत से साधक-साधिकायें आपको मिलेंगे, आप में से भी हो सकते हैं। अपने-अपने अनुभव होते हैं। सतत् परमात्मा का स्मरण ओ३म् का जप, मन्त्र का उच्चारण, अर्थ की भावना, अच्छी बाते हैं, बहुत अच्छी बाते हैं। उनको करने से बहुत परिवर्तन आता है, अच्छी प्रगति होती है, किन्तु योग-साधना को सर्वांगीण रूप से सम्पन्न करने के लिये, और पूरी ऊँचाईयों तक पहुंचने के लिए, कुछ और बातों का भी विचार, चिन्तन-मनन करना आवश्यक होता है। और ये प्रक्रियायें भी जब गम्भीर स्तर पर की जाती हैं तो वो बैठ करके ध्यान जैसी स्थिति में ही की जाती है। जिन स्थितियों में हम ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना करते हैं उन्हीं स्थितियों को बनाकर के, आसन लगाकर के, प्रत्याहार बनाकर के धारणा लगाकर के, फिर ये क्रियायें की जाती हैं। यदि इन क्रियाओं को न करके अथवा बहुत कम करके, मात्र सुनकर के और स्वीकार करके, अध्यात्म में कोई चलेगा तो अधिक नहीं चल पाता है। बहुत सारी बातें हमने सुनली हैं, एक स्तर पर विचार भी ली हैं, एक स्तर पर निर्णय भी किये हैं, किन्तु ध्यानावस्थित होकर के उन पर गम्भीरता से, सूक्ष्मता से विचार करना और अपने साथ में जोड़ना उसमें मेरी स्थिति क्या स्थिति है ? ये सब आन्तरिक जगत् के कार्य हैं। यही अन्तर्यात्रा है।

जिस प्रकार से संसार की वस्तुओं को देखने के लिए हम यात्रा करते हैं, घूमते हैं, हमारा परिचय होता है, यहां से, वहां से, और उससे कुछ सीख निकलती है हममें, कुछ अनुभव बनता है, इसी प्रकार से अपने मन को देखने के लिए, अन्दर यात्रा करनी होती है। आध्यात्मिक प्रगति के लिए कुछ आवश्यक अभ्यासों को, बिन्दुओं को इस अन्तर्यात्रा में आपको बताया जायेगा और करवाया जायेगा।

आज एक मूलभूत विषय, प्रारम्भिक विषय, आपके सामने रख रहा हूँ। सामान्य सा प्रश्न है कि मैं कौन हूँ ? बहुत सामान्य प्रश्न है। सांसारिक व्यक्ति से भी पूछें तो वो कुछ बतायेगा मैं ये हूँ, बच्चे से पूछें आप कौन हैं ? वो भी बतायेगा मैं ये हूँ। अध्यात्म में आने के बाद में हम सुनते हैं बहुत कुछ कि मैं कौन हूँ ? सांसारिक अवस्था में जिसको मैं मानते थे, आध्यात्मिक अवस्था में वो ‘मैं’ बदल जाता है। मैं आखिर हूँ कौन ? मैं ये शरीर हूँ अथवा आत्मा हूँ ? ये घर-परिवार मैं हूँ अथवा धन-सम्पत्ति, यश, पद-प्रतिष्ठा मैं हूँ ? ये राष्ट्र, ये धर्म, ये सम्प्रदाय, ये मान्यतायें मैं हूँ ? अथवा इनसे भिन्न कुछ मैं हूँ ? आपमें से अधिकांश ये स्वीकारते होंगे कि मैं ये शरीर नहीं हूँ, आत्मा हूँ। अध्यात्म में इसमें क्यों बल दिया जाता है, ये समझो कि मैं कौन हूँ ? और इस मैं कौन का जानना इतना महत्त्वपूर्ण है कि इसका ठीक ज्ञान सम्प्रज्ञात समाधि की अन्तिम अवस्था में होता है। सम्प्रज्ञात के भिन्न-भिन्न स्तरों में अन्त में आत्मा का प्रत्यक्ष होता है। 

आखिर मैं कौन हूँ ? ये मैं कौन हूँ जानना बिल्कुल ठीक-ठीक ये सामान्य बात नहीं है। सामान्यतया हम समझते हैं कि मैं कौन हूँ, जिसे मैं कौन हूँ का बोध हो गया, उसका आध्यात्मिक मार्ग कैसा हो जाता है, उसकी मानसिक स्थिति कैसी हो जाती है, वो कुछ अन्तर आना चाहिए। जो व्यक्ति शरीर को मैं समझता है उसका व्यवहार क्या होगा, और जो आत्मा को मैं समझता है उसका व्यवहार क्या होगा ? पहला ध्यान के समय का अभ्यास अभी ये करना है हम स्वयं विचारने लगें कि मैं कौन हूँ ? यदि मैं शरीर नहीं हूँ तो शरीर क्यों नहीं हूँ मैं ? यदि मैं मन नहीं हूँ तो क्यों नहीं हूँ मैं मन ? मैं बुद्धि नहीं हूँ तो क्यों नहीं हूँ बुद्धि ? और चेतन आत्मा हूँ तो वही हूँ मैं। 

बचपन से लेकर अब तक शरीर की विभिन्न अवस्थाओं को हम अनुभव करते हैं। शरीर की अवस्थायें भिन्न-भिन्न हैं हमें खूब आभास है कि मैं पहले ऐसा था, अब ऐसा हूँ। लेकिन इन सब अनुभूतियों के साथ जो मैं पने की अनुभूति है, वो बदलती है या वही रहती है ? बचपन से लेके अबतक मैं बहुत परिवर्तित हो गया हूँ, शरीर की दृष्टि से ये हमें पता लगता है। किन्तु अन्दर आत्मा के स्तर पे क्या अनुभव होता है, बचपन में कोई और आत्मा थी वो परिवर्तित होके कुछ और बन गई है ? अथवा वही है ? जिस समय मैं रुग्ण हूँ, शरीर परिवर्तित है अब अवस्था बदल गई है। लेकिन तब भी एक आभास है मैं यह हूँ। और जब स्वस्थ थे तब भी शरीर की एक स्थिति थी, तब भी अनुभव करते थे मैं यह हूँ। इन स्थितियों में जो मैं पने की अनुभूति है, उसमें क्या अन्तर आता है ? 

ये हो सकता है कि मैं दुःखी हूँ और मैं सुखी हूँ ये अन्तर हमें दिखाई देता है। और हम सुखी-दुःखी होते भी हैं। जो मैं सुखी या जो मैं दुःखी था या हूँ वो मैं भिन्न-भिन्न हैं या वही हैं ? जो सुखी था वही मैं अब दुःखी हूँ अथवा मैं कोई भिन्न हो गया हूँ ? कोई मैं भिन्न हूँ ? बाल्यावस्था में जो मैं था वही आज मैं हूँ अथवा कुछ भिन्न हूँ ? इन पे हमें विचार करना है। 

स्वयं अपना निरीक्षण करना है और फिर ये देखना है कि मैं संसार का व्यवहार करते हुए, किसको मैं मानकर के चल रहा होता हूँ ? मैं शब्द का उच्चारण करते हुए मन में मैं का क्या स्वरूप आता है ? आत्मा को मानते हुए या शरीर को मानते हुए ? जब हम शरीर को मैं मानके चलते हैं तो हम शरीर के लिए हितकारी कार्य करते हैं। शरीर के लिए अहितकर कार्य नहीं करते, जिससे शरीर को सुख-सुविधा हो उसे पाने का उसे रखने का सम्भालने का कार्य करते हैं। जब हम आत्मा को मैं मानते हैं, जो आत्मा को मैं मानते हैं वो भी शरीर का ध्यान रखते हैं। शरीर की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखते हैं। रुग्ण होने पर उपचार वो भी कराते हैं, प्यास लगने पर पानी वो भी पीते हैं, भोजन वो भी करते हैं, किन्तु फिर भी व्यवहारों में अन्तर होता है। जो केवल शरीर को मैं मानता है, वो ये ध्यान नहीं रखता है कि इस तरह के कर्म से, इस तरह की कमाई से, इस तरह के व्यवहार सं, शरीर को भले ही अनुकूलता मिल रही है, सुख मिल रहा है, लेकिन ये आत्मा के लिए हितकर है या नहीं है ? वो कुछ भी विचार नहीं करते।

जो आत्मा को मैं मानते हैं और शरीर को साधन मानते हैं, वो भी शरीर के लिए प्रयत्न करते है, किन्तु वो ये ध्यान रखते हैं कि शरीर की रक्षा के लिए, शरीर की अनुकूलता, सुख-सुविधा के लिए किया गया ये कार्य है। आत्मा के लिए अर्थात् मेरे लिए हितकर है या नहीं ? शरीर के लिए जो सुख-सुविधायें चाहियें वो धर्मपूर्वक भी कमाई जा सकती है, अधर्मपूर्वक भी सम्पादित की जा सकती हैं। किसी भी तरह से कमायें शरीर के लिए तो वो समान अनुकूलता सुख प्रदान करते हैं। 

जो आत्मा को मैं मानता है वहाँ वो ऐसे कर्म नहीं करता जो शरीर के लिए तो अनुकूल हों लेकिन आत्मा के लिए प्रतिकूल हों हानिकारक हों। वो ऐसे कर्म करता है जो शरीर के लिए भी अनुकूल हो और आत्मा के लिए भी अनुकूल हों। यदि कभी ऐसी स्थिति बनती है जहाँ एक ही की अनुकूलता है, एक ही का हित होता है, आत्मा का या शरीर का और उसी उपाय को उसे अपनाना भी है दो में से किसी एक को, तो जो आत्मा को मैं मानता है वो शरीर को हानि पहुँचाने वाले किन्तु आत्मा के लिए हितकर या आत्मा को जिससे हानि न हो ऐसे काम को भले ही कर लेगा, लेकिन जो शरीर को मैं मानता है वो इस बात की चिन्ता नहीं करेगा कि इस से आत्मा को हानि होती है वो केवल इस आधार पर निर्णय लेगा कि इस से शरीर को अनुकूलता और सुख मिल रहा है। शरीर की जिससे हानि होती हो, वो कभी नहीं करेगा। लेकिन जो आत्मा को मैं मानता है वो कुछ कर्म ऐसे करते हुए दिख सकता है जिससे शरीर को भले ही हानि हो रही हो लेकिन आत्मा का बहुत बड़ा हित हो रहा है।

इस गर्मी को तो कोई पसन्द नहीं करेगा। जो केवल शरीर को मैं मानता है वो गर्मी को अनुकूल नहीं समझेगा। लेकिन जो आत्मा को मैं मानता है वो आत्मा के हित के कार्य में शरीर की इस विपरीत स्थिति को भी प्रसन्नता से सहन कर लेगा। ऐसा प्रायः हम करते रहते हैं। 

लेकिन क्या हम प्रत्येक कर्म के समय में इस मैं को यानि आत्मा को ध्यान रखते हुए कर्म करते हैं ? ये साधक के लिए जानना, समझना, देखना और उसमें सुधार करना बहुत आवश्यक है, नही ंतो बहुत सी बाह्य आध्यात्मिक क्रियाओं को करते हुए भी व्यवहार में उसके निर्णय गलत होते रहेंगे। हर व्यक्ति, हर प्राणी, हर आत्मा अपने हित के लिए ही कार्य करता है। अपने अहित के लिए कभी नहीं करता। लेकिन जो आत्मा के अहित के लिए कार्य करता है, भले ही शरीर का हित हो रहा हो उसका सीधा सा अर्थ ये है मै को नहीं समझ पाया है कि मैं कौन हूँ ? जिस दिन उसको ये समझ में आ जाये कि मैं यानि मैं चेतन आत्मा उस दिन वो आत्मा के लिए हानिकारक कर्म कर ही नहीं सकता, कभी नहीं करेगा, क्योंकि कोई भी आत्मा, कोई भी प्राणी अपने अहित के लिए, अपनी हानि के लिए करता ही नहीं है। उसका स्वभाव ही नहीं है। वो सदा अपने हित के लिए ही कार्य करता है। सांसारिक व्यक्ति अधार्मिक व्यक्ति, लौकिक व्यक्ति जब अपने लिए काम करता है वो अपने शरीर और जड़ वस्तुओं के लिए कार्य कर रहा होता है। क्योंकि उन्हीं को वो अपना मैं समझता है। और आध्यात्मि व्यक्ति भी अपने लिए काम करता है, परोपकार करता हुआ भी वो अपने लिए कार्य करता है। वो धन को खर्च करता हुआ, समय को खर्च करता हुआ, दूसरे शब्दों में कहें तो धन की हानि करता हुआ, समय की हानि करता हुआ, श्रम की हानि करता हुआ भी उसे कर रहा होता है। अर्थात् वो इसको मैं नहीं मानता और किसी चीज को मैं मैं मान रहा है वो है आत्मा।

तो आज की अन्तर्यात्रा में १॰ मिनट के लिए आपको बैठना है। प्रथम बिन्दु ये देखना है पाँच मिनट मैं कौन हूँ ? भले ही अब तक कितना ही समझा है, सीखा है, सुना है फिर भी देखना है थोड़ा। मैं कौन हूँ ? और अगले पाँच मिनट में ये देखना है कि मेरा जो आजकल जीवन चल रहा है। शिविर से पहले उसमें उन व्यवहारों में मैं स्वयं को क्या मानते हुए कर्म कर रहा था ? आत्मा को मानते हुए या शरीर को मैं मानते हुए ? ये अपने-अपने कुछ कर्मों का, मुख्य-मुख्य घटनाओं का परीक्षण करना है। कुछ घटनाओं को जिसकी जो इच्छा हो वो ले लीजियेगा। ये भी देख सकते हैं कि मेरे एक वर्ष में दो वर्ष में बचपन से लेके अबतक कुल मिलाकर के मैंने अपने लिए काम किया है लेकिन उस समय मैं कौन था ? किसको मैं मानकर मैंने काम किया है ? और अब मैं साधक बन रहा हूँ या गम्भीर साधना में जा रहा हूँ तो मुझे किसको मैं मानकर काम करना है ? और आत्मा को मैं मानकर करूंगा तो आजकल जो कार्य कर रहा हूँ उसमें कहाँ-कहाँ परिवर्तन हो जायेगा ? १॰ मिनट का समय बहुत कम है, एक केवल अनुभव आपको यहाँ पर मिलेगा। बाकी ये कार्य आपको जब भी समय मिले वहाँ कर सकते हैं या घर में जाकर के जब आपको समय मिले एकान्त वास हो वहाँ इन कार्यों को करेंगे।

तो सीधे बैठ जाइये, नेत्रों को बन्द कर लें, आसन की स्थिति सम्यक् कर लें, मन को धारणा स्थल पर लगालें। प्रारम्भ करें मैं कौन हूँ ?............................................केवल एक बिन्दु पर चिन्तन-ध्यान मैं कौन हूँ ? ....................................................अपने ज्ञान की स्थिति को देखें, क्या मैं ये निर्णय कर चुका हूँ ? मैं कौन हूँ ? अथवा विचारणीय बिन्दु अभी भी बना हुआ है ? मैं कौन हूँ ? वर्षों के अध्ययन के बाद, स्वाध्याय के बाद, क्या अभी भी ये विचारणीय बिन्दु है, मैं कौन हूँ ? अथवा सब स्पष्ट हो चुका है कि मैं कौन हूँ ? ...................................................।

अब आगे विचार करें अपने व्यवहारों को स्मृति में लायें, जिस समय मैं ‘मैं’ का व्यवहार कर रहा होता हूँ ? व्यवहार-काल में किसे ‘मैं’ मान रहा होता हूँ ? मेरे व्यवहार किस ओेर संकेत हैं.........कि यह साधक किसे मैं मान रहा है ?.............................................। अपने किसी एक या कुछ व्यवहारों को ध्यान से देखें, स्मरण में लाके..............................। अब कुछ देर के लिए ये परिदृश्य मन में लायें परिकल्पना करें, जिस समय में मैं स्वयं को चेतन, नित्य, निराकार, एकदेशी आत्मा मानकर चलूँगा, तब मेरा व्यवहार कैसा होगा ? ......................................। स्वयं को निराकार चेतन मानते हुए उन्हीं व्यवहारों में रखकर के देखने का प्रयास करें।...........................। इन पिछले व्यवहारों में आत्मा को मैं मानकर यदि मैं चलूं................। फिर से मैं उन व्यवहारों में प्रवेश कर रहा हूँ.........................। आत्मा को मैं मानते हुए........................। तो अब कैसा व्यवहार होगा...............................?

अब रुकेंगे। नेत्रों को अभी बन्द रखेंगे। दिन में शिविर-काल में भी कार्यों को करते हुए बीच-बीच में देखें कि यह क्रिया करते समय मैं अपना क्या स्वरूप मानकर इसे कर रहा हूँ ? और समय मिलने पर अपना निरीक्षण करते रहें। अब परमात्मा का स्मरण करते हुए इस कक्षा को समाप्त करेंगे।

ओ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ म् ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ 

दृष्टि नीची रखते हुए मौन रखते हुए यहाँ से प्रस्थान करेंगे। जिनका सेवा का कार्य है, भोजन वितरण का वो भी वहाँ पहुँचेंगे और इन्हीं भावनाओं को रखते हुए कार्य करेंगे। जिन माताओं, बहनों का फल या ककड़ी आदि काटने  का कार्य है वे भी वहाँ पर पहुँचेंगे।

                                                                        ओम् शम्

सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

१. मैं अग्नि की स्तुति करता हूँ


स्वामी देवव्रत जी
प्रधान संचालक
सार्वदेशिक आर्यवीर दल
 
ओ३म् अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विम्।
होतारं रत्नधातमम्।।
 ऋ. १। १। १।।

मैं (पुरोहितम्) सृष्टि उत्पत्ति से पूर्व कारण रूप प्रकृति को धारण और (ऋत्विजम्) सृष्टि उत्पत्ति काल में परमाणुओं का संयोग कर सृष्टि की रचना करने (यज्ञस्य होतारम्) सृष्टि की उत्पत्ति के पश्चात् (रत्नधातमम्) विविध रत्नों से युक्त पृथिवी एवं अन्य लोकों के धारण करने वाले (देवम्) सब पदार्थों के प्रदाता, प्रकाशक (अग्निम्) सबके नेता, ज्ञानस्वरूप परमेश्वर की (ईडे) स्तुति करता हूँ।

छेदन, भेदन, धारण, आकर्षण गुण वाले (ऋत्विजम्) विविध यन्त्रों को गति देने वाले (देवम्) प्रकाशयुक्त (रत्नधातमम्) रमणीय पदार्थों को प्राप्त कराने वाले (अग्निम्) भौतिक अग्नि के (ईडे) गुणों को जान उसका सदुपयोग करता हूँ।

इस मन्त्र में अग्नि आध्यात्मि और भौतिक दोनों ही अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। इसी भाँति राजा, सभाध्यक्ष, विद्वान् को भी अग्नि कहते हैं।

यहा अग्नि शब्द द्वारा ईश्वर का ग्रहण किया है।

पुरोहितम्-सृष्टि की उत्पत्ति से पहले भी वह परमेश्वर सबका अग्रणी था और उसमें सृष्टि की रचना करने का ज्ञान तथा सामर्थ्य भी था।

यज्ञस्य होतारम्-परमेश्वर स्वयं यज्ञ स्वरूप है जिसने अपने ज्ञान एवं सामर्थ्य से एक-एक परमाणु को मिलाकर इस संसार की अद्भुत रचना की है।

ऋत्विज् से अभिप्राय यह है कि ऋतु अर्थात् जब सृष्टि रचने का समय आता है तो वह प्रभु अपनी ईक्षण क्रिया से सृष्टि की उत्पत्ति करता है। जैसे एक के पश्चात् दूसरी ऋतु बदल कर आती रहती है वैसे ही अनादि काल से सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय का क्रम चल रहा है।

भोगापवर्गार्थं दृश्यम् (योगदर्शन २.१८) भोग और अपवर्ग मोक्ष के लिये सृष्टि रचना हुई है और इसमें रत्नधातमम् विविध रत्न, हीरे, मोती, स्वर्णादि बहुमूल्य पदार्थों का निर्माण किया है। हमारी सारी आवश्यकताओं की आपूर्ति इस भूमि माता से ही होती है।

इन दिव्य गुणों के प्रकाशक, मार्गदर्शक, ज्ञानस्वरूप अग्नि परमेश्वर की मैं स्तुति करता हूँ।

इस भौतिक अग्नि में भी दिव्य गुणों को उसी परमेश्वर ने भरा है जिन्हें जानकर हम अपना जीवन सुखी बना सकते हैं।

साभार-वेद-स्वाध्याय 
लेखक - स्वामी देवव्रत सरस्वती जी 

शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

आचरण का सहारा

आचार्य सत्यजित् जी

आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण......

प्रभु का सहारा सदा हमारे साथ है। परिजनों, इष्ट-मित्रों का सहारा भी हमें प्राप्त होता रहता है। सहारा देने वालों से सदा सबकोे सहारा नहीं मिल पाता है। परिजन, इष्ट-मित्र भी बेसहारा छोड़ जाते हैं। तब केवल प्रभु का सहारा दिखाई पड़ता है। तब प्रभु के सहारे को स्मरण कर धैर्य रखा जाता है। इतना होने पर भी मन में संदेह होता रहता है, क्योंकि जितना सहारा व सहयोग हम चाहते हैं वह हमें नहीं मिल पाता। परिजन, इष्ट-मित्र तो अल्पज्ञ अल्पशक्तिमन् आत्माएं हैं, प्रायः स्वार्थ पूरा न होते देख बेसहारा छोड़कर चले जाते हैं। किन्तु प्रभु तो सर्वज्ञ हैं, सर्वशक्तिमान् हैं, उनके रहते भी सहारे व सहयोग का न मिल पाना संशय उत्पन्न कर देता है।

प्रभु का सहारा हो या परिजनों का, यह प्रायः तभी पर्याप्त मिलता है जब हमारा आचरण-व्यवहार अच्छा हो। परिजनों-इष्ट मित्रों का सहारा तब अच्छा मिलता है, जब हम उनके लिए उपयोगी हों, हम उनका उपकार करते हों, हम उनके सहयोगी बनते हो, या हमारा आचरण-व्यवहार बहुत अच्छा हो। इनके अभाव में हम धीरे-धीरे बेसहारा होते जाते है। अपवाद रूप में कभी-कभी अच्छे आचरण-व्यवहार वालों को भी अन्यों का सहारा नहीं मिल पाता है। दुष्टों-अधार्मिकों का स्वार्थ अच्छे आचरण वाले से पूरा नहीं होता, अच्छे आचरण वाला उन्हें सहयोग नहीं करता, अतः वे भी अच्छे आचरण वाले का सहयोग नहीं करते। लौकिक सहारे परस्पर सहयोग पर निर्भर करते हैं।

प्रभु का सहारा परस्पर सहयोग के बिना निःस्वार्थ भाव से चलता है। प्रभु को हमसे किसी सहारे की आवश्यकता नहीं है। वे तो सर्वशक्तिमान्, सर्वसमर्थ, पूर्णकाम हैं। पर हमें तो उनके सहारे की आवश्यकता है। उसके बिना हम पूर्णतः असमर्थ-पंगु हैं। प्रभु का सहारा भी निरपेक्ष नहीं है। प्रभु सब को समान सहारा नहीं देते। हम कैसे भी अच्छे-बुरे हों, हम कैसे भी अच्छे-बुरे कर्म करें और प्रभु सदा पूरा सहारा देते रहें, ऐसा नहीं होता। प्रभु भी हमारे से अपेक्षा रखते हैं। प्रभु सबको सहारा दे सकते हैं, देने को उद्यत हैं, देते रहते हैं, किन्तु वे न्यायकारी भी हैं, अतः यथायोग्य सहारा देते हैं। प्रभु का सहारा हमारे आचरण पर निर्भर करता है। प्रभु अच्छों को सदैव अच्छा सहारा देते हैं। भले ही कभी संसार का सहारा अच्छों को न मिले, पर प्रभु का सहारा अच्छों को सदा मिलता रहता है।

संसार का सहारा अच्छे व बुरे दोनों प्रकार के मनुष्यों से छूट सकता है। ऐसे में अच्छे-बुरे दोनों प्रकार के मनुष्य प्रभु के सहारे को पकड़ते हैं, मन में उसके सहारे की कामना करते हैं, उसके सहारे की आशा रखते हैं। किन्तु ऐसे में भी प्रभु का सहारा सबको नहीं मिलता। प्रभु अच्छों को ही सहारा देते हैं। बुरे तो प्रभु के यहां भी बेसहारा होते हैं। अच्छों को प्रभु का सहारा मिलने का विश्वास रहता है, अतः संसार का सहारा न मिलने पर भी वे शान्त-संतुष्ट रह लेते है। बुरों को प्रभु का सहारा नहीं मिलता, उन्हें भी मन में सन्देह रहता है, अतः वे येन-केन प्रकारेण संसार का ही सहारा पाने में लग जाते हैं। वे जैसे-तैसे सांसारिक सहारा पा भी लेते हैं, पर इस प्रक्रिया में बुरा आचरण करते रहने से प्रभु के सहारे से और अधिक दूर होते जाते हैं।

प्रभु का सहारा हो या सांसारिक सहारा, सर्वत्र मूल में हमारा अपना आचरण आधार बनता है। हमारा आचरण अच्छा हो तो सांसारिक सहारा भी पर्याप्त मिल ही जाता है, प्रभु का सहारा तो बरस-बरस पड़ता है। जब हम आचरण का सहारा लेते हैं, तो सारे सहारे सहज मिलते रहते हैं। आचरण का सहारा छोड़ जब हम अन्यों का सहारा पाना चाहते हैं, तो विफल होते रहते हैं। आचरण हमें सीधा सहारा नहीं देता, सीधा सहारा तो संसार या प्रभु देते हैं, किन्तु आचरण ही वह मूल है जो अन्यों से सहारा दिलवाता है।

प्रभु की कृपा है कि उसने हमें आचरण के लिए आवश्यक सभी साधन दे रखे हैं। शरीर, इन्द्रियां, मन, बुद्धि, ज्ञान, प्रकृति आदि सब हमारे आचरण के सहयोगी रूप में बनाये हैं। मात्र आचरण का सहारा पकड़ने से सारे सहारे हमारा स्वागत करने लगते हैं। हमें ससम्मान सहारा मिलता है, श्रद्धा व प्रेम से सहारा मिलता है। आचरण का सहारा सब सहारों की कुंजी है, सब सहारों का मूल है। यह आचरण स्वाश्रित है, हम स्वतन्त्रता से अपना आचरण तो अच्छा रख ही सकते हैं।



शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

ब्रह्मवृत्ति

स्वामी विद्यानंद जी 'विदेह'

युंजते मन उत युंजते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः। 
वि होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः।।

{यजुर्वेद ५.१४, ¬११.४, ३७.२} ऋग्वेद ५.८१.१

यह मानव-शरीर आत्मा की परिस्तुति वा महिमा है। आत्मा शरीर का सविता देव है। ‘सविता’ आ अर्थ है स्रष्टा और संचालक। आत्मा के मिष से ही शरीर की रचना होती है, और आत्मा ही शरीर का संचालन करता है। मनुष्यदेह कैसी कुशल, पूर्ण और अद्भुत मशीन है, और आत्मा कैसी कुशलता से इसके कण-कण, अणु-अणु और अंग-प्रत्यंग का संचालन करता है। शरीर दिखाई देता है पर आत्मा दिखाई नहीं देता। जब किसी महात्मा की महिमा श्रवण करके वा उसकी किसी कृति से परिचित होकर हम उसके दर्शन करने जाते हैं तो हम उसके दर्शन करके उसको प्रणाम करते हैं, उसका स्तवन करते हैं और अपने को कृतकृत्य मानते हैं। दर्शन केवल शरीर का होता है, आत्मा का नहीं। जो दृष्टि का विषय है, दर्शन उसी का होता है। दृष्टि का विषय न होने से, आत्मा का नेत्रों से दर्शन नहीं हो सकता। फिर भी, यह सत्य है कि हम महात्मा के दर्शन करते हैं। महात्मा में महा-आत्मता है वह आत्मा की ही है पर आत्मा दिखाई नहीं देता। क्योंकि महात्मा का शरीर उसके आत्मा से व्याप्त है अतः उस महात्मा के शरीर के दर्शन में उसके आत्मा का दर्शन भी सन्निहित है। नेत्रों से हम महात्मा के शरीर के दर्शन करके, आत्मना उसके आत्मा से आत्मीयता करते हैं।

यह सम्पूर्ण समष्टि भी उस विश्वात्मा सविता देव का विराट् शरीर है, द्यौ जिसका मूर्धा है, नद्वात्र जिसके केश हैं, सूर्य-चन्द्र जिसके नेत्र हैं, अन्तरिक्ष जिसका उदर है, भूमि जिसका पाद है, और वात जिसका प्राणापान है अनादि, अनन्त और असीम विश्वात्मा की यह समष्टिदेह भी प्रवाह से अनादि, अनन्त और असीम है। नेत्रों से उस अवश्वात्मा के विराट् स्वरूप का दर्शन कीजिए। विश्वात्मा से विराट् की और विराट् से विश्वात्मा की पृथक्ता हो ही नहीं सकती। अतः मानव-शरीरवत् विराट् के दर्शन में विश्वात्मा का दर्शन भी सन्निहित है।
यह सूत्रधार विश्वात्मा इस समष्टि सृष्टि में रमा हुआ, इसकी प्रत्येक चेष्टा को चेष्टित करता हुआ, नाना-लोकरूपी इन्द्रियों का संचालन कर रहा है। प्रत्येक चेष्टा और गति में, प्रत्येक दृश्य और दर्शन में, प्रत्येक स्वर और गान में, प्रत्येक गीति और प्रगान में, प्रत्येक लय और तान में, प्रत्येक रस और सुगन्ध मंे सर्वत्र ब्रह्म की महिमा का अवलोकन करते हुए, ब्रह्मदृष्टि और ब्रह्मानुभूति का अभ्यास कीजिए। इस अभ्यास के पकने पर आपको ब्रह्मवृत्ति की सिद्धि प्राप्त हो जाएगी।

(विप्राः) मेधावी जन, योगी जन (मनः) मन को (युंजते) युक्त करते हैं (उत) और (धियः) धारणाओं को (युजते) युक्त करते हैं। 

वह (वयुन्-वित्) सब चेष्टाओं-गतियों का जानने वाला (एकः इत्) एक ही, अकेला ही (होत्रा) होत्रों, यज्ञों, लोक-लोकान्तरों को (वि दधे) धारण कर रहा है।

उस (बृहतः) महान् (विपश्चितः) ज्ञानी (विप्रस्य) मेधावी, बुद्ध (सवितुः देवस्य) सविता देव की (परि-स्तुतिः) अभिस्तुति, महिमा (मही) महती है।



माधुर्य

स्वामी विद्यानंद जी 'विदेह'

मधुमन्म निक्रमणं मधुमन्मे परायणम्।
वाचा वदामि मधुमद् भूयासं मधुसंदृशः।।

अथर्ववेद १.३४.३

क्रोध, कटुता, रूक्षता, उद्विग्नता स्वभाव-सम्बन्धी भयंकर दोष हैं। इनसे नितराम् चित्त में विक्षोभ, मन में अशान्ति, बुद्धि में असन्तुलन और इन्द्रियों में चंचलता का प्रस्फुटन होतर रहता है जिससे मनुष्य का समाहितचित्त, शान्तमन, समबुद्धि और स्थिरेन्द्रिय होना कठिन ही नहीं, सर्वथा असम्भव होता है। इन स्वभावदोषों के निवारण के लिए मधुरता का अभ्यास कीजिए। मधुरता के अभ्यास के लिए उपर्युक्त मन्त्र को शब्दार्थसहित कण्ठस्थ करके, उसका सदा सर्वदा गान कीजिए। (मे) मेरा (नि-क्रमणम्) निकट आना, मिलना (मधुमत्) मधुयुक्त, मधुर हो। (मे) मेरा (परा-अयनम्) प्रत्यागमन, बिछुड़ना, वियुक्त होना (मधु-मत्) मधुर हो। मैं (वाचा) वाणी से (मधुमत्) मधुर (वदामि) बोलूं। मैं (मधु-सम्-दृशः) मधु-सदृश, मधु सं-दृष्टि (भूयासम्) हो जाऊं।
जो जिस पदार्थ का सार होता है उसमें उस पदार्थ के गुण होते हैं। मधु नाम शहद का है। मधु पुष्पों का सार होता है। मधु में पुष्पों की स्निग्धता, मधुरता, सुगन्धि, सोम्यता, सुन्दरता, प्रसन्नता सन्निहित है। अतः मधुसेवी बनिए। मधु के समान सारग्राही, स्निग्ध, मधुर, सुगन्धित, सोम्य बनिए। मधुरता को अपनी प्रकृति बना लीजिए। सर्वथा मधुर स्वभाव हो जाइए। अपना ऐसा शील बनाइए, कि क्रुद्ध और अशान्त मनुष्य अथवा प्राणी आपसे मिलकर सहसा मधुर और शान्त हो जाए। जब कोई व्यक्ति आपसे वियुक्त {विदा} हो तो वह माधुर्य और स्नेह के साथ वियुक्त हो। आपका मिलना और बिछुड़ना माधुर्योपेत तभी होगा जब आपकी वाणी मधुर होगी। वाणी में माधुर्य तभी होगा जब आप मधुहृदय होंगे, साक्षात् माधुर्य हो जाएंगे, अन्दर-बाहर से साक्षात् मधु बन जाएंगे, और सब आपकी दृष्टि मधुदृष्टि बन जाएगी।

मधुरस्वभाव, मधुहृदय, मधुजिह्व व्यक्ति सदा शीतल, शान्त, सुखी, प्रसन्न, आनन्दित, प्रीतिमान्, सर्वप्रिय, समाहित, सन्तुलित, संयत, निश्चल और सन्तुष्ट रहता हुआ प्रत्येक क्षेत्र में विजयसाफल्य प्राप्त करता है। मधुर, शान्त आत्मा विकट से विकट परिस्थितियों को मुस्कराहट के साथ परास्त करता हुआ, जटिल से जटिल समस्याओं को सहजतया सुलझा लेता है।

मधुरता की भावना से सदा माधुर्योपेत रहिए। विचारों में मधुरता हो, दृष्टि में मधुरता हो, वाणी में मधुरता हो, हृदय में मधुरता हो, मन में मधुरता हो, चित्त में मधुरता हो। आप मधुर हो जाएंगे तो संसार में आपको सर्वत्र माधुर्य ही माधुर्य अनुभव होगा। माधुर्य से ही ब्रह्ममाधुर्य की अनुभूति होगी।



गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

निःस्पृहता

स्वामी विद्यानंद जी 'विदेह'
प्रियं मा कृणु देवेषु प्रियं राजसु मा कृणु।
प्रियं सर्वस्य पश्यत उत शूद्र उतार्ये।।

अथर्ववेद १९.६२.१

‘स्पृहा’ का अर्थ है इच्छा, चाहना, कामना। मनुष्य की स्पृहा का क्षेत्र जितना संकुचित होता है, मनुष्य उतना ही बद्ध और चिन्तित होता है। स्पृहा की परिधि जितनी विशाल और व्यापक होती जाती है, मनुष्य उतना ही निर्बाध और चिन्ता रहित होता जाता है। रुके हुए जल में दुर्गन्धि आती है; प्रवाहित जल दुर्गन्धिरहित होता है। पोखर में रुका हुआ जल ही सड़ सूख नहीं जाता अपि तु सागर में रुका हुआ जल भी क्षारयुक्त, दुर्गन्धित और अपेय होता है। परन्तु पोखर और सागर का जल वाष्प् बनकर आकाश में व्याप जाता है और मेघ बनकर सर्वत्र बरसता है तो वह रोगनाशक, स्वास्थ्यप्रद और अमृत बन जाता है। जिन कूपों में प्रवाहित स्रोतों का जल आता रहता है उनका जल जीवनप्रद होता है। जिन कूपों में वर्षा का जल रुक जाता है उनका जल उतना अच्छा नहीं होता। गुहा, गृह, ग्राम और नगर में रुका हुआ पवन भी दुर्गन्धित और रोगकारक होता है।

ससीम स्पृहा वह परिधि है जो मनुष्य को चिन्तारूपी दुर्गन्धि से दुर्गन्धित, और मोहरूपी क्षार से क्षारित बना देती है। यदि दुर्गन्धि और क्षार से रहित रहना है तो अपनी स्पृहा को व्यापक बनाइए। व्यापक स्पृहा का नाम ही निःस्पृहता है। स्पृहा को परिधिरहित कर दीजिए, आप निःस्पृह हो जाएंगे। अपनी स्पृहा को विश्वव्यापी बनाइए। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र- सबकी, मनुष्यमात्र की मंगलकामना और हितसाधना कीजिए और मनुष्यमात्र के प्रिय बनिए। प्राणिमात्र के हितचिन्तक और सेवाकारी बनकर, प्राणिमात्र के परम प्यारे बनिए। आप पर जिसकी भी दृष्टि पडे़ वही आपसे प्रेम करे। जो सबका है वह निःस्पृह है। जो निःस्पृह है वह निश्चिन्त है। जो निश्चिन्त है वह स्थिर और शान्त है। जो स्थिर और शान्त है वह धीर है।

(मा) मुझे (देवेषु) ब्राह्मणों में (प्रियम्) प्यारा (कृणु) कर। (मा) मुझे (राजसु) क्षत्रियों में, (उत) तथा (शूद्रे) शूद्र वर्ग में, (उत) तथा (अर्ये) वैश्य वर्ग में (प्रियम) प्यारा (कृणु) बना। मुझे (सर्वस्य पश्यतः) सब देखने वाले का (प्रियम्) प्रिय बना।



निर्लेपता

स्वामी विद्यानंद जी 'विदेह'

कुर्वन्नेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।

यजुर्वेद ४॰.२

कर्म दो प्रकार से किए जाते हैं, १) इच्छया २) स्वभावतया। जहां इच्छा है वहां लेप है। इच्छापूर्वक किए गए कर्म में फलाकांक्षा अन्तर्निहित होती है। जहां फलाकांक्षा है वहां लेपता है। फलाकांक्षा जितनी तीव्र होगी, कर्मलेप भी उतना ही दीर्घसूत्री होगा। स्वभावज कर्म में न इच्छा होती है, न फलाकांक्षा, न कर्मलेपता। इच्छा से किए कर्म में वह महत्त्व भी नहीं होता जो महत्त्व स्वभाव से किए कर्म में होती है।

शरीर में सबसे अधिक महत्त्व का कार्य प्राण का संचालन है जो स्वभावतः ही होता रहता है। यदि कहीं प्राणसंचालन का कार्य इच्छा पर आधारित होता तो जीवन रह ही न सकता। प्राण के अतिरिक्त अन्य समस्त इन्द्रियों के व्यापार का आधार इच्छा है। प्रत्येक इन्द्रिय इच्छा से प्रेरित होकर कार्य करती है। प्राण स्वभावतः चलता है। प्रत्येक इन्द्रिय थकती है और विश्राम करती है। प्राण अनथकतया निरन्तर कर्म करता है और विश्राम नहीं लेता। प्राण विश्राम करने लगे तो जीवन ही समाप्त हो जाए। प्रत्येक इन्द्रिय का एक विषय है, और प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने विषय में लिप्त है। प्राण का कोई विषय नहीं। प्राण निर्विषय है। प्राण किसी विषय की ओर अनुधावन नहीं करता। प्राण किसी विषय में लिप्त नहीं। प्राण केवल शुभ ही करता है और कर्तव्य के लिए ही कर्म करता है। प्राण निर्लेप है।

कर्म सृष्टि का धर्म है। कर्म का त्याग असम्भव है। गतिशील संसार में गतिविहीन होना सम्भव ही नहीं। गतिपूर्ण संसार में निश्चेष्टता का क्या काम। कर्म तो करना ही होगा। प्रथम, इच्छापूर्वक कर्मशोध कीजिए। तत्परता के साथ अशुभ कर्मों  के त्याग तथा शुभ कर्मों के सम्पादन का अभ्यास कीजिए। ऐसा करते करते आपसे अशुभ कर्मों का सर्वथा त्याग हो जाएगा, और आपसे शुभ ही कर्म हुआ करेंगे। शुभ ही शुभ कर्म करते करते, आपका शुभ ही कर्म करने का अभ्यास वा स्वभाव हो जाएगा। तब आप केवल कर्तव्य के लिए कर्म करेंगे और स्वभावतया ही शुभ कर्म करने लगेंगे। कर्तव्य के लिए कर्म कीजिए; कर्तव्य का स्वभावतया पालन कीजिए। कर्तव्य के लिए शुभ कार्य कीजिए; शुभ कर्म करने का स्वभाव बना लीजिए। स्वभाव से कर्तव्य और शुभ सम्पादन करने का अभ्यास सिद्ध होते ही आप निर्लेप हो जाएंगे।

अनासक्ति और निर्लेपता में भेद है। ‘अनासक्ति’ का अर्थ है भोगों में त्यागभाव। ‘निर्लेपता’ का अर्थ है कर्मों में त्यागभाव। त्यागभाव से भोगना अनासक्ति है, और त्यागभाव से, स्वभाव से कर्तव्य कर्म करना निर्लेपता है। अनासक्ति और निर्लेपता की सिद्धि होने पर समस्त ग्रन्थियां छिन्न-भिन्न हो जाएंगी, समस्त आवरण विलीन हो जाएंगे, और उस अजस्र, अखण्ड, अक्षय आत्मज्योत्सना का उदय होगा जिसके आलोक में सब कुछ स्पष्ट आलोकित होने लगेगा।

(इह) यहां (कर्माणि) कर्तव्य कर्मों को (कुर्वन् एव) करता हुआ ही (शतम् समाः) सौ वर्ष (जिजीविषेत्) जीने की इच्छा करे। (एवम्) इस प्रकार (त्वयि नरे) तुझ नर में (कर्म न लिप्यते) कर्म नहीं लिपता। निर्लेपता का (इतः अन्य-था) इससे भिन्न प्रकार उपाय (न अस्ति) नहीं है।