बुधवार, 25 जनवरी 2012

शरीर जब तक दुःख तब तक।


                                 शरीर जब तक दुःख तब तक

भूमिकाः- शरीर हो, आत्मा के दुःख का कारण है, यह बताने के लिये आचार्यवर कहते हैं:-
आचार्य ज्ञानेश्वर जी 
आज एक बहुत-बड़ा अज्ञान सारे विश्व के मनुष्यों में यह घर कर गया है कि इस संसार में रहते हुये, शरीर को धारण करते हुये, संसार के पदार्थों को अधिकाधिक प्राप्त करते हुये और येन-केन प्रकारेण किसी भी कार्य को करके भी हम पूर्ण सुखी हो सकते हैं। यह केवल मिथ्या ज्ञान है। इस मिथ्या सिद्धान्त के कारण ही व्यक्ति न ईश्वर को ठीक प्रकार से जानने और उसको प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है और न ही और न उसको प्राप्त करने के मार्ग को जानता है और न ही उस मार्ग पर चलने के लिए विशेष तपस्या करता है, पुरूषार्थ करता है या योजना बनाता है। इस संबंध में लोगों के सिद्धान्त बदल गये हैं, परिभाषा बदल गई है। परिभाषा यह बन गई है कि मैं इस संसार में रहता हुआ, शरीर को धारण किया हुआ, अच्छे-अच्छे मकानों में रहता हुआ, पत्नी-बच्चों के साथ कमाता हुआ, खाता हुआ, पीता हुआ, घूमता हुआ और संसार का सुख लेता हुआ पूर्ण सुखी हो जाऊँगा। यह मिथ्या परिभाषा है। सैद्धान्तिक परिभाषा क्या है ? कोई भी व्यक्ति जिसने शरीर धारण किया हुआ है, वह पूर्ण रूप से दुःखों से रहित हो ही नहीं सकता। वह चाहे ऋषि भी क्यों न हो, मुनि भी क्यों न हो, चाहे उच्च कोटि का साधक क्यों न हो, संत क्यों न हो, जिसने शरीर को धारण किया हुआ है, जो प्रकृति के बंधन में आया हुआ है, वह व्यक्ति पूर्णरूपेण दुःखों से छूट ही नहीं सकता। शरीर के कारणउसे सोना ही पड़ता है। क्यों उसको सोना दुःखरूप लगता है, क्यों तमोगुण की, अज्ञान-अंधकार की अवस्था में जाये जीवात्मा ? शरीर के कारण उसे खाना पड़ता है, क्यों खाये जीवात्मा ? जीवात्मा तो नित्य (अमर) है, इसलिए उसे खाने की अपेक्षा नहीं है। किन्तु शरीर के कारण उसे खाना पड़ता है, शरीर के कारण कपड़े पहनने पड़ते हैं, शरीर के कारण बीमार पड़ता है, शरीर के कारण सारे क्रिया-कलाप करने पड़ते हैं। खिलाओ-पचाओ-निकालो, यह करो, वह करो।
इस बात को समझना जरूरी है कि- इस शरीर के अंदर प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ जीवात्मा बंधन को प्राप्त किया हुआ है। ईश्वर को ठीक प्रकार से जानकर के, समझकर के, उसकी उपासना करके, उसका साक्षात्कार करके और उससे विशेष ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करके व्यक्ति अपने अज्ञान को दूर कर सकता है और पूर्णरूपेण ईश्वर को समर्पित होकर के, उसके आदेश के अनुसार अपने जीवन को चला सकता है। वही व्यक्ति अज्ञान जनित जन्म-जन्मांतर के चित्त में बने हुए कुसंस्कारों को नष्ट करने में समर्थ हो सकता है। इसका अन्य कोई उपाय नहीं है। ईश्वर की उपासना एक बहुत-बड़ा साधन है, इस प्रकृति के बंधन से छूटने का। ईश्वर कैसा है, ईश्वर की उपासना कैसे की जाए, कब की जाए, किस प्रकार की जाए, इस विषय में बड़ी भ्रान्तियां हैं, मिथ्या ज्ञान हैं, संशय बने हैं।

सोमवार, 23 जनवरी 2012

विचारों की संलिप्तता


विचारों की संलिप्तता

आचार्य सत्यजित जी 
प्रभुकृपा से हमें वे सभी साधन मिले हैं, जो आध्यात्मिक प्रगति के लिए आवश्यक होते हैं। शरीर, इन्द्रियां, मन बुद्धि ये सब प्रभु के द्वारा इस तरह के बना कर दिये गये हैं कि इनका सदुपयोग करता हुआ व्यक्ति अवश्य ही आध्यात्मिक प्रगति कर लेता है। इन सब साधनों का उपयोग सभी करते हैं, किन्तु कोई न्यून करता है कोई अधिक, कोई दुरुपयोग करता है कोई सुदपायोग। यह प्रगति या अप्रगति का बड़ा कारण है।
शरीर को स्वस्थ-बलवान् बनाने के लिए बुद्धिपूर्वक आहार सामग्री व क्रियाकलापों का चयन या त्याग करना होता है। मन में ईश्वर की भावना मात्र से शरीर अध्यात्म के योग्य नहीं बना रह सकता। इन्द्रियों को स्वस्थ-बलवान-पवित्र बनाये रखने के लिए भी बहुत सोच-विचार कर बुद्धिपूर्वक निर्णय लेने होते हैं कि इन्द्रियों को किस विषय में लगाया जाए, कब लगाया जाए व कितना लगाया जाए। मन को शान्त-प्रसन्न-पवित्र-श्रद्धा युक्त बनाने के या बनाये रखने के लिए और अधिक सोच-विचार, ज्ञान व सावधानी की आवश्यकता होती है।
शरीर, इन्द्रियां, मन इन के सम्यक् उपयोग के लिए बुद्धि का सम्यक् होना आधारभूत- मूलभूत आवश्यकता है, अनिवार्यता है, अपरिहार्यता है। आध्यात्मिक प्रगति के लिए प्रभुकृपा से हमें बुद्धि नामक उपकरण प्राप्त है। इस बुद्धि को आध्यात्मि प्रगति के अनुरूप बनाना हमारा कर्त्तव्य है। प्रभुकृपा से हमें बुद्धि प्राप्त हो गई, किन्तु इस बुद्धि का सदुपयोग करना हमारे प्रयत्न-पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। प्रभुकृपा से हमें आज भी वह प्रक्रिया उपलब्ध है, जिससे हम अपनी बुद्धि को आध्यात्मिक प्रगति के योग्य बना सकते हैं।
बुद्धि का माहात्म्य उसके ज्ञान पर निर्भर करता है। ज्ञान है तो बुद्धि का बहुत लाभ मिलता है, विपरीत ज्ञान है तो इसी बुद्धि से बहुत हानि उठानी पड़ती है। बुद्धि में ज्ञान की प्राप्ति भी इसी बुद्धि के समुचित उपयोग पर निर्भर करती है। बुद्धि का समुचित उपयोग कैसे किया जाता है, यह भी सीखना होता है, जानना होता है। वैदिक-दर्शन हमें यह सिखाते हैं, जनाते हैं।
बुद्धि का अध्यात्म में सदुपयोग लेने के लिए ईश्वर प्रदत्त बुद्धि में हमारे द्वारा किये गये पूर्व संगृहीत हर उस ज्ञान व विचार को हमें निकालना या संशोधित करना होता है, जो अध्यात्म के लिए बाधक है। इसके लिए हमें स्वयं को सज्जित रखना होता है, उद्यत रखना होता है। पूर्व के प्राप्त ज्ञान व विचारों को भी बार-बार सत्यासत्य की कसौटी पर कस कर ही लिया था, किन्तु यह आवश्यक नहीं होता कि उस समय की कसौटी ठीक ही रही हो। आध्यात्मिक व्यक्ति को न केवल अपने पूर्व ज्ञान व विचारों को पुनः-पुनः कसौटी पर कसना होता है, अपितु उन कसौटियों को भी पुनः-पुनः कसना होता है।
प्रमाण ही वे कसौटी हैं, जो सत्यासत्य का बोध कराते हैं। हमें प्रमाणों का उचित उपयोग करना भी सीखना-समझना होता है। प्रमाणों का उचित उपयोग किये बिना निकाले गये निर्णय हानिकर हो जाते हैं। साधक मानता तो यह है कि मैंने यह निर्णय प्रमाणों के आधार पर लिया है। किन्तु यह निर्णय असम्यक् भी हो सकता है। अतः हमें सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना ही होता है, रहना ही चाहिए। ईश्वर हमारे से ऐसी ही अपेक्षा रखता है, वह हमें ऐसा ही देखना चाहता है। हमें ईश्वर की इच्छा के अनुसार ही चलना चाहिए।
प्रभुकृपा से अनेक साधक साधना करते-करते धन, सम्पत्ति, परिवार आदि से अपनी संलिप्तता (राग) धीरे-धीरे हटाते हुए पूर्णतः हटा लेते हैं, यह बड़ी उपलब्धि है। अपने शरीर, इन्द्रियों व मन से भी संलिप्तता रहती है, उसे भी विशेष साधना द्वारा हटा देते हैं। इससे भी बड़ी व गंभीर संलिप्तता एक और शेष रहती है, बुद्धि-विचारों-ज्ञान की संलिप्तता। अपने विचारों से, अपने ज्ञान से बहुत सूक्ष्म व गहरा राग होता है। जैसे सांसारिक वस्तु वा व्यक्ति की संलिप्तता से उनके नाश होने पर दुःख होता है, हम उन्हें छोड़ना नहीं चाहते, हानिकर होते हुए भी मिथ्या राग के कारण उन्हें पकड़े रहते हैं, उसी प्रकार अपने विचारों से हमारी संलिप्तता हमें महान् दुःख देती है व आध्यात्मिक प्रगति में बाधक बन जाती है। साधक को अपने असत्य विचारों को छोड़ने के लिए सर्वदा उद्यत रहना ही होता है। जैसे संसार की बाधक वस्तुओं-कर्मों को छोड़ना ही हितकर होता है, उसी प्रकार बाधक विचारों को भी छोड़ना हितकर होता है, यह जानते-समझते हुए भी हम अपने विचारों को छोड़ नहीं पाते, क्योंकि हम उन विचारों को उचित व हितकर मान बैठे होते हैं। हो सकता है हमारे वे विचार अनुचित-असत्य- हानिकर हों, यह संभावना बनाये रखना साधक के लिए आवश्यक है। इससे विचारों की संलिप्तता क्षीण हो जायेगी।
विचारों की संलिप्तता को क्षीण रखकर साधक को उन्हें प्रमाणों पर सदा कसते रहना होता है। इसके लिए वेद व ऋषिकृत ग्रन्थों का स्वाध्याय, चिन्तन-मनन करते रहना होगा, अन्य साधकों व विद्वानों से विचार-विमर्श और चर्चा करते रहना होगा। इस प्रक्रिया में दोनों पक्षों में से किसी में भी परिवर्तन संभव है। जो प्रमाणों की कसौटी पर ठीक उतरेगा, वह स्वीकार्य होगा। 
विचारों का राग सबसे बड़ा राग है, विचारों की संलिप्तता सबसे बड़ी संलिप्तता है। किन्तु प्रभु की कृपा है, हम अन्य धनादि के रागों, संलिप्तताओं से जैसे हट जाते हैं, वैसे ही इससे भी हट सकते हैं। विचारों की संलिप्तता से हमें हटना है। मेरे विचार भी असम्यक् हो सकते हैं, यह संभावना वास्तव में हृदय से स्वीकार कर रखनी ही होगी। मिथ्य-असम्यक् विचार भले ही कितने भी अधिक वर्षों से हमारे साथ रहा हो, वह मिथ्या सिद्ध होते ही हानिकर होने से तत्क्षण त्याग देने योग्य है। यह आध्यात्मिक प्रगति का मूल है। प्रभुकृपा हमारे साथ है, हमें सत्य के ग्रहण करने व असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत बने रहना है। एक दिन आयेगा जब हम पूर्ण सत्य में प्रतिष्ठित हों जायेंगे, प्रभुकृपा को पूर्णतः पा सकेंगे।