बुधवार, 20 जनवरी 2016

भारतीय प्राचीन राजनीति (एक)

ओ३म्
भारतीय प्राचीन राजनीति (1)

इतिहास शोधक, गवेषक स्वर्गीय श्री पण्डित भगवद्दत्त जी

राजनीति को समझने के लिए, उसके जटिल सिद्धान्तों पर अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए, और संसार आर्यवर्त्म से विचलित न हो, इसके लिए राजनीति के प्रादुर्भाव का इतिहास जानना अत्यावश्वक और अनिवार्य है। अतः प्रथम उसी पर संक्षिप्त रूप से प्रकाश डाला जाता है।
आयुर्वेदीय कायचिकित्सा के अग्निवेश तन्त्र (भारत युद्ध से 240 वर्ष पूर्व) का जा रूप, चरक- प्रति-संस्कृता (विक्रम से 3000 वर्ष पूर्व) अपूर्व आर्षसंहिता में सम्प्रति उपलब्ध है, उसके विमान स्थान, अध्याय 3 में लिखा है-
आदिकाले.............व्यपगत-भय-राग-द्वेष-मोह-लोभ-क्रोध............आलस्यपरिग्रहाश्च पुरुषाः बभुवुः अमितायुषः।............भ्रश्यति तु कृतयुगे केषांचिद् अत्यादानात् सांपन्निकानां शरीरगौरवमासीत्। शरीरगौरवाच्छ्रमः। श्रमाद् आलस्यम्। आलस्यात् संचयः। संचयात् परिग्रहः। परिग्रहाल्लोभः प्रादुरासीत्। ।।28।।
ततस्त्रेतायां लोभाद् अभिद्रोहः। अभिद्रोहाद् अनृतवचनम्।...........ततस्त्रेतायां धर्मपादोऽन्तर्धानमगमत्।..........।।29।।
कैसा सुन्दर वर्णन है। संसारमात्र के साहित्य में प्राचीनतम कालविषयक यह ऐतिहासिक तथ्य सुरक्षित नहीं है। आर्य ऋषियों का संसार पर अतुलनीय उपकार है, जो मानवपन के इतिहास का उन्होंने निष्पक्ष-चित्र उपस्थित कर दिया है।
चरक-वैशम्पायन का अभिप्राय है-
‘पहला मानव धर्मपरायण था। तत्पश्चात् आलस्य के कारण अनेक लोग संचय (Hoarding) की प्रवृत्ति वाले हो गए। संचय से ग्रहण करने की इच्छा, और परिग्रह से लोभ उत्पन्न हुआ। तब त्रेता में लोभ से द्रोह और द्रोह से असत्य-भाषण उत्पन्न हुआ।’ पुराने इतिहास का यह मुंह बोलता चित्र है।
ठीक यही तथ्य अग्निवेश के सहपाठी भगवान् पराशर की ज्योतिष-संहिता में भी सुरक्षित है। यह ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं, पर इस के अनेक लम्बे पाठ पुराने टीका आदि ग्रन्थों में मिलते हैं। इस पराशरतन्त्र की प्रति संस्कृता ज्योतिष-संहिता में लिखा है-
पुरा खल अपरिमित-शक्ति-प्रभा-प्रभाव-वीर्य............धर्मसत्त्वशुद्धतेजसः पुरुषा बभूवुः। तेषां क्रमाद् अपचीयमानसत्त्वानाम् उपचीयमानरजस्तमस्कानां लोभः प्रादुरभवत्। लोभात् परिग्रहम्। परिग्रहाद् गौरवम्। गौरवाद् आलस्यम्। आलस्यात् तेजाऽन्तर्दधे।
यही अनुपम ऐतिहासिक इतिवृत्त भगवान् कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास (3050 वर्ष विक्रम से पूर्व) ने महाभारत संहिता, शान्तिपर्व, अध्याय 186 में भृगु-भरद्वाज-संवाद के प्रसंग में सुरक्षित किया है-
इत्येते चतुरो वर्णा येषां ब्राह्मी सरस्वती।
विहिता ब्रह्मणा पूर्वं लोभात्त्वज्ञानतां गताः।।12।।
भीष्म उवाच
नियतस्त्वं नरश्रेष्ठ शृणु सर्वमशेषतः।
यथा राज्यं समुत्पन्नमादौ कृतयुगेऽभवत्।।13।।
नैव राज्यं न राजासीन् न दण्डो न च दाण्डिकः।
धर्मेणैव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति च परस्परम्।।14।।
पलयानास्तथाऽन्योन्यं नरा धर्मेण भारत।
खेदं परमाजग्मुस्ततस्तान् मोह आविशत्।।15।।
ते मोहवशमापन्ना मानवा मनुजर्षभ।
प्रतिपत्ति-विमोहाच्च धर्मस्तेषामनीनशत्।।16।।
नष्टायां प्रतिपत्तौ तु मोहवश्या नरास्तदा।
लोभस्य वशमापन्नाः सर्वे भारतसत्तम।।17।।
अर्थात्-खेद के कारण अज्ञान, और बुद्धि में अज्ञान के कारण धर्मनाश तथा बुद्धिनाश से लोभ का प्रारम्भ हुआ।
इन लेखों का सार यही है कि संसार में दुःख का मूल अज्ञान, संचय और लोभ से आरम्भ हुआ। प्रवृद्ध लोभ के कारण जब मानव कृच्छ्र दशा को प्राप्त हुआ, तो उसमें मात्स्यन्याय प्रवृत्त हुआ। जिस प्रकार एक मत्स्य छोटी मच्छियों को खा लता है, उसी प्रकार सशक्त मनुष्य निर्बलों को खाने लगा। तब ऋषियों के उपदेश से राजधर्म चला, तथा वैवस्वत मनु इस सृष्टि का प्रथम राजा हुआ।
राजनीति के महापण्डित आचार्य विष्णुगुप्त कौटल्य ने लिखा है-
मात्स्यन्यायाभिभूताः प्रजाः मनुवैवस्वतं राजानं प्रचक्रिरे।
कौटल्य ने यह इतिवृत्त महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 67 से लिया-
राजा चेन्न भवेल्लोके पृथिव्यां दण्डधारकः।
शूले मत्स्यानिवापक्ष्यान् दुर्बलान् बलवत्तराः।।16।।
अराजकाः प्रजाः पूर्वं विनुशुरिति नः श्रुतम्।
परस्परं भक्षयन्तो मत्स्या इव जले कृशम्।।17।।
ताभ्यो मनुं व्यादिदेश मनुर्नाभिननन्द ताः।।21।।
अर्थात्-मात्स्यन्याय की प्रवृत्ति पर वैवस्वत मनु प्रथम राजा चुना गया। मनु के न चाहने पर भी प्रजाओं ने उस पर राज्य भार डाल दिया।
मनु से पूर्व पृथु वैन्य अभिषिक्त हुआ था, पर वह समस्त भूमण्डल का राज नहीं था। शतपथ ब्राह्मण में लिखा है-
पृथुर्ह वै वैन्यो मनुष्याणां प्रथमोऽभिषिषिचे।।5।3।5।4।।
मुन भारत मिश्र आदि सब देशों का राजा था। मिश्र देश के पुराने ग्रन्थों में उसे मेनेस नाम से स्मरण किया है।
शतपथ से पूर्व वाल्मीकि मुनि का भी इस विषय में साक्ष्य है-
आदिराजो मनुरिव प्रजानां परिरक्षिता। ।।बालकाण्ड 6/4।।
मनु ने व्यवस्था की कि संसार में अज्ञान, संचय और लोभ का नाश होता रहे तथा बली निर्बलों को न सताएँ।
इतने वर्णन से आप समझ लेंगे कि राज्य वही श्रेष्ठ है, जहां ज्ञान का साम्राज्य रहे, जहाँ अज्ञानी न्यून हों, जहाँ संचय की प्रवृत्ति दान और त्याग के वशीभूत रहे, तथा जहाँ लोभग्रस्त पुरुष थोडे़ हों, तथा जहाँ निर्बल भी आराम और सुख का जीवन व्यतीत करें, और जहाँ चोरी डाका अपि च बलात्कार आदि कुछ न हो। अस्तु।
इस प्रकार वैवस्वत मनु के काल से भारतीय राजशास्त्र, अथवा दण्डशास्त्र तथा अर्थशास्त्र का प्रयोग वृद्धि को प्राप्त हुआ। राजशास्त्र का मूल वेद में है। भगवान् ब्रह्मा  ने वेद से आकृष्ट करके त्रिवर्ग का मूलशास्त्र एक लाख अध्याय में दिया। उसका उत्तरोत्तर संक्षेप होता गया। वैवस्वत मनु ने उस परम्परागत शास्त्र का विस्तृत प्रयोग आरम्भ किया। मनु के पश्चात् वह शास्त्र अधिक संक्षिप्त होता गया। श्री भगवान् ब्रह्मा जी के काल से भारत-युद्ध-काल तक इस राजनीति-शास्त्र के निम्नलिखित 24 प्रधान उपदेष्टा हुए-
01. ब्रह्मा                              02. स्वायम्भुव मनु                    03. प्राचेतस मनु
04. वैवस्वत मनु                 05. विशालाक्ष-शिव                    06. इन्द्र-सहस्राक्ष
07. बृहस्पति-सुरगुरु           08. काव्यउशना-शुक्र                  09. नारद-देवर्षि-पिशुन
10. बुध-राजपुत्र                  11. सुधन्वा आंगिरस                  12. मरुत आविक्षित
13. भरद्वाज बार्हस्पत्य        14. पराशर                                 15. गर्ग
16. गौरशिरा                       17. भागुरि                                  18. भीष्म-कौणपदन्त
19. द्रोण-भारद्वाज               20. कृष्ण देवकीपुत्र                     21. उद्धव मन्त्री-वातव्याधि
22. विदुर                            23. शाम्बव्य                              24. वेदव्यास कृष्ण द्वैपायन

इनके अतिरिक्त आठ धर्मसूत्रकारों ने भी न्यूनाधिक प्रसंगवश राजशास्त्र का उपदेश दिया। इनमें से पहले तीन का उपदेश कुछ विस्तार से है-
01. हारीत                           02. देवल                                    03. शंखलिखित
04. गौतम                          05. वसिष्ठ                                   06. आपस्तम्ब
07. बौधायन                       08. शौनक (राजधर्म में)
इनमें अन्तिम तीन भारत युद्ध के 200 वर्ष पश्चात् अपने धर्मसूत्र लिख रहे थे। इनके अनन्तर निम्नलिखित छः आचार्यों और पण्डितों ने राजधर्म का आर्ष उपदेश संक्षिप्त किया।
01. आम्भीय                      02. चारायण                               03. विष्णुगुप्त कौटिल्य
04. विष्णु शर्मा                   05. कामन्दक                             06. सोमदेव सूरि
इन अड़तीस महर्षियों मुनियों आचार्यों और पण्डितों के ज्ञान का जो अंश सम्प्रति उपलब्ध है, उनमें पारंगत व्यक्ति ही राजनीति के विषय में कुछ कह सकता है।

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