गुरुवार, 21 जनवरी 2016

भारतीय प्राचीन राजनीति (2)

ओ३म्
इतिहास शोधक, गवेषक स्वर्गीय श्री पण्डित भगवद्दत्त जी

    अब संसार के इतर देशों की व्यवस्था सुनिए। पहले सारे संसार में स्वायम्भुव मनु-प्रोक्त राजशास्त्र तथा वैवस्वत मनु द्वारा उसका रूपान्तर ही अधिकतर प्रयुक्त होता था। पुनः ब्राह्मणों के अभाव में योरुप और मिश्र आदि देश विद्याहीन हुए। तब कालडिया में हमूरब्बी का, और इबरानी लोगों में मूसा का नियम प्रचलित हुआ। इन दोनों के नियम भी मनु के नियमों का विकृत और अधूरा रूप थे।

    यूनान अथवा यवन देश में सब से प्रथम अफलातून (Plateau) ने राजशास्त्र का ग्रन्थ लिखा। इसके विषय में इंगलैण्ड के अध्यापक ई.जे. अर्विक ने एक खोज पूर्ण ग्रन्थ सन् 1920 में लन्दन से प्रकाशित कराया। उसका नाम है-

The Message of Plateau : A Reinterpretation of the republic.

इस पुस्तक के प्रारम्भ में योग्य लेखक लिखता है-

The republic is based largely upon ancient Indian social philosophy.

       अर्थात्-अफलातून का ‘जनतन्त्रराज्य ग्रन्थ’ अधिकांश में प्राचीन भारतीय वर्णाश्रम की मर्यादा पर आश्रित है।
   जिस वर्णाश्रम को आज लोग आमूलचूल मिटा देना चाहते हैं, उस पर अफलातून के ग्रन्थ का आधार है। सत्य है, मूर्ख संसार अपनी जड़ों को काट रहा है।
   
    इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि योरुप की मुहुर्मुहुः घोषित गणतन्त्र राज्यप्रणाली का उद्गम भी आर्य संस्कृति से हुआ है। प्रश्न होता है, क्या योरुप अथवा अमेरिका का कथित उन्नत मस्तिष्क मानव-कल्याण के लिए राजशास्त्रविषयक कोई उपयोगी सरल तथा उत्कृष्ट पद्धति निकाल सहा है वा नहीं ? श्रोतृवृन्द! इसका उत्तर हमारे अगले कथन में मिलेगा।
   
   परन्तु आर्य राजनीति को उसके स्वच्छ रूप में, उसके निर्मल कलेवर में समझने के लिए निम्नलिखित कतिपय मूल तत्त्वों और सत्य पर आश्रित वज्र सिद्धान्तों का ज्ञान परमावश्यक है। इसलिए पहले वे मूल सिद्धान्त लिखे जाते हैं-
   
 (1) योरुप के वर्तमान सिद्धान्त में मत (religion) और अध्यात्मविहीन (secular) को पृथक् मान लिया गया है। योरुप के प्रायः विचारक, जिन पर विकासमत की पूरी छाप है, आत्मा का तथा दैवी ज्ञान का अस्तित्व नहीं मानते। वे मनुष्यकृति में ही विश्वास रखते हैं। इसके ठीक विपरीत भारत के इतिहास में मोक्षशास्त्र को त्रिवर्गशास्त्र से पृथक् माना है, पर दोनों में आत्मिकभावना का पूर्ण समावेश स्वीकार किया है। दोनों का उद्गम वेद से और दैवी है। बौद्ध और जैन भी इनका उद्गम मनुष्य से न मानकर दैवी अर्थात् सर्वश्र तीर्थंकरों द्वारा मानते हैं।
    इसलिए यह सत्य है कि मानव-जीवन के चार उद्देश्यों में से धर्म, अर्थ काम के त्रिवर्ग को मोक्ष से पृथक् मानकर भी, हम उस अर्थ में सैक्यूलर नहीं हैं, जिस अर्थ में पण्डित जवाहर लाल जी हमें सैक्यूलर बनाना चाहते हैं। हमारा ईश्वर में, और वेद के अनादित्व में पूर्ण विश्वास है। और राजनीति वेद से चली, तथा ऋषियों द्वारा इसका स्पष्टीकरण हुआ, इस सत्य ऐतिहासिक तथ्य को परे फैंक कर हम असत्य का मार्ग ग्रहण नहीं कर सकते। हम मनुष्य-कर्तृत्व की उत्कृष्टता में विश्वास नहीं रखते।

यत् खलु शब्द आह तद् अस्माकं प्रमाणम् -व्याकरण महाभाष्य।

हम शब्दप्रमाण के माननेवाले हैं।

    (2) इसके साथ यह भी ध्यान रखने योग्य है कि कुरान और बाइबिल के समान वेद नहीं। वेद आदि सृष्टि में हुआ है, और वेद शब्द का अर्थ ज्ञान है। वेद के मन्त्र उपदेश देते हैं-मोक्ष और राजनीति का। एक लाख अध्यायों में आदि त्रिवर्गशास्त्र का ज्ञान देने वाला ब्रह्मा, जो कुरान और बाइबिल में आदम अथवा आदि देव के नाम से प्रसिद्ध है, तथा राजशास्त्र के महान् आचार्य इन्द्र, बृहस्पति, शुक्र और नारद, तथा धर्म अथवा कानून का एक लाख श्लोकों में विधान करने वाला स्वायम्भुव मनु, सब मुक्तकण्ठ से एक ही ध्वनि करते हैं-

वेदोऽखिलो धर्ममूलम्-मनु

    कोटल्य भी विद्याओं में त्रयी का प्रधान स्थान मानता है। बाइबिल आदि अधिकतर भक्ति और पूजा का मार्ग बताते हैं। अतः जब कोई वेद-विश्वासी आर्यराज्य की घोषणा करता है, तो उसे Communal अथवा मतवादी नहीं कहा जा सकता। वह सम्पूर्ण विद्याओं के भण्डार वेद की शुद्ध राज्य-पद्धति का समर्थक है। हाँ उसका आधार भ्रान्तिपूर्ण मानव-बुद्धि पर नहीं, ईश्वर के ज्ञान और ऋषियों के व्याख्यान पर हैं।

    राजशास्त्र के पूर्वोक्त उपदेष्टा ऋषियों ने राज्य, राष्ट्र, प्रजा, दण्ड, धन-विभाजन, भूमि, कर, न्याय और विधान आदि के सम्पूर्ण सिद्धान्त इस निर्मलरूप में दिए हैं कि उनकी तुलना प्लैटो, बिस्माक, डिजरेली, ग्लेडस्टन, कार्लमार्क्स, लेनिन, हिटलर, स्टैलिन, चर्चिल, रोजवेल्ट, ट्रमन अथवा जवाहरलाल आदि अणुमात्र भी नहीं कर सकते। अतः उन ऋषियों के राजशास्त्र के सिद्धान्तों द्वारा संसार को राग-द्वेष रहित करके सुखी बनाने का प्रयास करनेवाले आर्य विकृत शब्द हिन्दू से पुकारे जाने वाले श्रद्धावान् लोगों को Communal कहना अनुचित है, अज्ञान का फल है, नहीं नहीं महान् पाप है। वस्तुतः संसारमात्र में केवल आर्य ही कम्यूनल नहीं है, शेष दूसरे सारे लोग जिन्होंने अधूरे विकृत रागद्वेषयुक्त मनुष्य-निर्मित आधारों पर राजशास्त्र के सिद्धान्त अथवा विधान बनाकर अपनी-अपनी Communities (समूह) बनाई हैं, कम्यूनल हैं। आर्यराज्य में घृणा और वैमनस्य का लेश नहीं है।
    
    जिस प्रकार कम्यूनिस्ट बनने वालों को ईश्वर आत्मा पुनर्जन्म और कर्मफल के अस्तित्व के विश्वास को तिलांजलि देनी पड़ती है, तथा जिस प्रकार कम्यूनिस्ट लोग कार्लमार्क्स को ज्ञान का परम पुंज मानते हैं अपिच जिस प्रकार सोशलिस्ट बनने वाल को धन के बटवारे के सिद्धान्त-विशेष मानने पड़ते हैं और पूंजीपति और मजदूर रूपी अति घृणित शब्दों द्वारा उद्घोषित, वर्तमान-युगीन सदोषमत स्वीकार करने पड़ते हैं, अपरं च जिस प्रकार कांग्रेस में प्रवेश करने वालों को संप्रथित संस्कृति (Composite Culture) के दूषित मत में विश्वास करना पड़ता है, तथा वेद बाइबिल और कुरान वर्णित आदि-मनुष्य के जन्मविषयक सिद्धान्त का विश्वास त्याग करके श्री महात्मा गांधी जी द्वारा स्वीकृत विकासमत अपनाना पड़ता है, उसी प्रकार आर्य-राजनीति में विश्वास करने वाले को वेद को ज्ञान का मूल और सर्वांगपूर्ण उद्गम का मूल मानना पड़ता है, जो तथ्य स्वतः-सिद्ध, इतिहास-सिद्ध और तर्कसिद्ध है, तथा जिस सिद्धान्त के सम्मुख जर्मन लेखकों का मिथ्या भाषा-मत जर्जरीभूत हो रहा है, तो इसमें आर्य अथवा हिन्दू का कोई दोष नहीं। वह उसी प्रकार के वैज्ञानिक-मार्ग का पुजारी है, जिस प्रकार के वैज्ञानिक मार्ग पर एक वनस्पतिशास्त्र-वेत्ता अथवा एक रसायनशास्त्रवेत्ता चल रहा है।

    इस कथन में अत्युक्ति का लेशमात्र भी नहीं कि राजनीति के क्षेत्र में वास्तविक अधिकार आर्य का ही है, और शेष लोग तो इस विषय में बालक के समान हैं। संसार को आर्यशास्त्र से सीखने की आज भी आवश्यकता है। इस सिद्धान्त के सर्व-विदित न होने का दुःख है, पर इस विषय में दोष अपना है। हमने अभी तक एतद्विषयक उत्कृष्ट साहित्य संसार के सामने नहीं धरा। आर्यसमाज का सब धन और शक्ति अति छोटे कामों में लगी है।

    (3) तीसरा मूल तत्त्व है-ह्रास-सिद्धान्त विषयक। मानव जाति काल के सहस्रों वर्ष के महान् चक्र में, सामूहिकरूप से उन्नति की ओर नहीं गई। यह ह्रास और अवनति की ओर मुख किए है। विज्ञान के जिन महान् आविष्कारों पर वर्तमान नास्तिक संसार मुग्ध है, वे मानव के लिए कल्याणकारी सिद्ध हुए तथा होंगे वा नहीं, इस का निर्णय भावी संसार करेगा। अतः दस-बीस आविष्कारों को ही जीवन-उन्नति का सर्वे-सर्वा मानना, सब कुछ नहीं है। भगवान् मनु ने सहस्रों वर्ष पूर्व कह दिया था कि राष्ट्रों में महायन्त्रों का प्रवर्तन पतन का कारण अर्थात् उपपातक होता है-

सर्वाकरेष्वधिकारो महायन्त्रप्रवर्तनम्।
हिंसौषधीनां स्त्र्याजीवोऽभिचारो मूलकर्म च।।11-62।।

    इसलिए ज्ञात होता है कि महायन्त्रों को जानते हुए भी ऋषियों ने इनका अधिक प्रचार मनुष्य के कल्याण का हेतु नहीं माना। अतः इन पर उन्होंने नियन्त्रण कर दिया। महायन्त्रों से पाश्चात्य संसार को जो सुख हुआ है, उसका परिणाम कुछ ही वर्षों में निकलने वाला है।

    राजनीति के क्षेत्र में भी जो उन्नत दशा पूर्व समयों में थी, उस का सहस्रांश भी अब नहीं है। मैं आपको रामराज्य के विषय की कतिपय यथार्थ घटनाएँ सुनाता हूँ-

विधवा यस्य विषये नानाथाः काश्चनाभवन्।।47।।
नित्यं सुभिक्षमेवासीद् रामे राज्यं प्रशासति।।48।।
अदंशमशका देशा नष्टव्यालसरीसृपाः।
नान्योन्येन विवादोऽभूत् स्त्रीणामपि कुतो नृणाम्।
धर्मनित्याः प्रजाश्चासन् रामे राज्यं प्रशासति।।51।।
सर्वा द्रोणदुधा गावो रामे राज्यं प्रशासति।।52।।
महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 29

    अर्थात्-रामराज्य में विधवा और अनाथ नहीं थे। खाना-पीना सदा सुलभ था। सम्पूर्ण देश में मच्छर, सिंह, सर्प, कानखजूरा और बिच्छू आदि न थे। पर्वतों के निर्जन स्थानों में भले ही हों। किसी स्त्री का दूसरी स्त्री से कभी झगड़ा नहीं होता था, पुरुषों के झगड़े की तो बात ही क्या। प्रजा धर्म में स्थिर थी। अधर्मी नास्तिक तब न थे। प्रत्येक गौ न्यून से न्यून 32 सेर दूध देती थी।

    पौरव कुल के चक्रवर्ती सुहोत्र के राज्य में निर्धन से निर्धन पुरुष का बालक सोने के हाथी-घोड़े रूपी खिलौनों से खेलता था। महाभारत शान्तिपर्व में लिखा है-

यस्मै हिरण्यं ववृषे मधवा परिवत्सरम्।।29/32।।

    मैं कल्पित बातें नहीं कह रहा। सत्य इतिहास के ये नग्नचित्र हैं। भला कौनसा कम्युनिस्ट अथवा सोशलिस्ट राज्य है, जो क्रियात्मक रूप में इनके समीप भी पहुंच सकता है। अतः यदि इस प्रकार के सुखी आर्य-राज्य के निर्माण का हम यत्न करें, तो इसमें किसको आपत्ति हो सकती है ? राज्य-व्यवस्था में ऋषियों का सिद्धान्त अजेय है। रूस और अमरीका की डिण्डीभि निःसार है। वे कम्यूनल हैं, हम प्राणीमात्र के हैं।

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