गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

नया संसार

आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण..............
आचार्य सत्यजित् जी  ऋषि उद्यान, अजमेर (राजस्थान)

प्रभु की कृपा से संसार में हमें इस बार मनुष्य शरीर मिला है। संसार में अनेक प्रकार के छोटे-बड़े, उच्च-निम्न स्तर के शरीर हैं। मूलतः यह संसार सब आत्माओं के लिए एक जैसा होते हुए भी शरीर, साधनादि के भेद से एक जैसा नहीं रह पाता। गायों का संसार अलग है, चींटियों का संसार अलग है, मछलियों-पक्षियों का अलग है और मनुष्यों का अलग है।
जन्म लेते ही हम संसार को स्पर्श, शब्द, रूप आदि विषयों के रूप में जानने लगते हैं। समय के साथ हमारे अच्छे-बुरे, खट्टे-मीठे-कड़वे अनुभव बनते जाते हैं और इससे हमारा संपर्क व व्यवहार अपना-अपना एक संसार बन जाता है। हमारा संपर्क व व्यवहार जिनके साथ होता जाता है, वे हमारे संसार में जुड़ते जाते हैं। जिनसे हमारा संपर्क व व्यवहार कम होते-होते छूट जाता है, वे हमारे संसार से बाहर हो जाते हैं। हमारा अपना-अपना एक अलग संसार है। हमारे सुख-दुःख, हानि-लाभ, हित-अहित इनसे जुड़े रहते हैं। यह हमारा अपना-अपना बाह्य-संसार है।
बाह्य-संसार से भिन्न हमारा अपना-अपना आन्तरिक-संसार भी होता है; मानसिक स्तर पर, वैचारिक स्तर पर, ज्ञान के स्तर पर। हमारे बाह्य-संसार में परस्पर जितनी भिन्नताएं हैं, उससे बहुत अधिक भिन्नताएं आन्तरिक-संसार में होती हैं। लगभग समान बाह्य-संसार मे रहने व व्यवहार करने वालों के भी आन्तरिक-संसार परस्पर अति भिन्न व नितान्त विपरीत हो सकते हैं। सबका अपना-अपना सोच है, अपने-अपने विचार हैं, अपना-अपना ज्ञान है, अपना-अपना दृष्टिकोण है, जीवन के लक्ष्य भिन्न-भिन्न बने हुए हैं। हमारा यह आन्तरिक-संसार अन्यों से विलक्षण होता है। इसमें हमारे पूर्वजन्म के संस्कारों की भिन्नता भी कारण बनती है।
बाह्य-संसार भी हमारा अपना-अपना है व आन्तरिक-संसार भी हमारा अपना-अपना है। बाह्य-संसार की अपेक्षा आन्तरिक-संसार हमारा अधिक अपना होता है, हमारा अधिक निजी होता है, हमारा अधिक आत्मीय होता है, हमारा अधिक व्यक्तिगत होता है, हमें वह अधिक प्रतीत भी होता है। हमारे बाह्य-संसार को अधिक लोग जानते हैं, अधिक लोग उससे परिचित रहते हैं। हमारे आन्तरिक-संसार को कम लोग जानते हैं, कम लोग उससे परिचित रहते हैं। बाह्य-संसार में हम कम वस्तुएं छुपा कर रख सकते हैं। आन्तरिक-संसार में बहुत कुछ छुपा कर रख सकते हैं, बहुत कुछ छुपा कर रखते हैं, अनेक बातों की दूसरों को भनक तक नहीं लगने देते।
हमारे बाह्य व आन्तरिक संसार भिन्न-भिन्न होते हैं, किन्तु ये एक-दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। ये एक दूसरे को बहुत प्रभावित करते हैं। कभी-कभी तो इतना प्रभावित कर देते हैं कि जैसा हमारा बाह्य-संसार होता है, वैसा ही आन्तरिक-संसार बन जाता है अथवा जैसा हमारा आन्तरिक-संसार होता है, वैसा ही बाह्य-संसार बन जाता है। ये परस्पर इतना प्रभावित करने लगते हैं कि उसके दुष्प्रभाव को रोक पाना हमें असंभव प्रतीत होने लगता है। हमारे बाह्य-संसार को व्यक्ति-वस्तु-परिस्थिति अधिक प्रभावित करते हैं, उन पर हमारा नियन्त्रण अपेक्षाकृत कम रहता है। हमारे आन्तरिक-संसार को अन्य व्यक्ति-वस्तु-परिस्थिति अपेक्षाकृत कम प्रभावित करते हैं, उसमें अन्यों का दखल-हस्तक्षेप कम रहता है।
प्रभु की कृपा है कि हमारा बाह्य-संसार जो भी हो, जैसा भी हो, पुनरपि हम अपने आन्तरिक-संसार को भिन्न रूप में रख सकते हैं। बाह्य-संसार को बदलने में हमारी स्वतनन्त्रता बहुत कम है, जबकि आन्तरिक-संसार को बदलने में हमारी स्वतन्त्रता बहुत अधिक है। प्रभु-कृपा से हम योग-साधना द्वारा बाह्य-संसार से निरपेक्ष, स्वतन्त्र, एक बिलकुल नया आन्तरिक-संसार रच सकते हैं। ऐसा आन्तरिक-संसार जिसमें सब कुछ हमारी इच्छा वाला हो, जितना व जैसा पवित्र उसे बनाना चाहें, बना सकते हैं। दूसरों के अनावश्यक व अनधिकृत हस्तक्षेप से बहुत दूर; बाह्य-संसार की दुरवस्था, गंदगी, अशान्ति से बहुत दूर; एक सुव्यवस्थित, शुद्ध व शान्त संसार बना कर उसमें रह सकते हैं।
आन्तरिक-संसार एक भिन्न संसार है। योग-साधना से रहित व्यक्तियों का यह आन्तरिक-संसार उनके लिए अत्यन्त दुःख-बाधा-समस्या व पतन का कारण बन जाता है। प्रभुभक्त योग साधकों का आन्तरिक-संसार उनके लिए अत्यन्त सुख-अनुकूलता-शान्ति- समाधान व उन्नति का आधार बन जाता है। प्रभु की कृपा सदा साथ है। हमें अपना नया आन्तरिक-संसार बनाना है, वहीं आत्म-दर्शन व प्रभुदर्शन भी होंगे।

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