गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

प्रार्थना

आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण..............


आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर (राजस्थान)

प्रभु-कृपा से मिले जीवन-शरीर में रहते हुए हम अनेक विशेष कार्यों को करने में समर्थ हैं। प्रभु से प्रार्थना करना भी उनमें से एक है। संसार के अधिकांश व्यक्ति किसी न किसी रूप में प्रभु से प्रार्थना करते हैं, प्रार्थना करते ही रहते हैं। अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार प्रभु को अलग-अलग स्वरूप में मानते हुए भी प्रार्थना तो प्रायः सभी करते रहते हैं। जब अपनी शक्ति-सामर्थ्य से हम वह सब नहीं प्राप्त कर पाते हैं, जिस सब को हम प्राप्त करना चाहते हैं; अन्य मनुष्य-प्राणियों-प्रकृति की सहायता से भी हम वह सब कर व पा नहीं पाते हैं। बस, यहीं हमारी प्रार्थना का जन्म होता है।
हम सब में न्यूनताएँ हैं, हम उन्हें दूर करना चाहते हैं, अन्य कोई प्रत्यक्ष सहारा न मिलने पर हम परोक्ष सहारे-शक्ति से आशा करते हैं कि वह हमारी इन न्यूनताओं-अभावों को दूर कर दे। यह बहुत स्वाभाविक व उचित भी है। हम अपने जीवन में जिस का भी अभाव अनुभव करते हैं, उसी के लिये प्रार्थना करने लगते हैं। भिन्न-भिन्न मनुष्यों को भिन्न-भिन्न अभाव खटकते हैं, तदनुसार ही उनकी प्रार्थना का स्वरूप बनता है।
प्रभु ने मानव शरीर देकर हम पर अत्यन्त कृपा की है। मानव शरीर चलाने के लिये आवश्यक वस्तुएँ-ज्ञान देकर पुनः कृपा की है। प्रभु की यह कृपा हमारे कर्म-सापेक्ष होती है। हमारे कर्मों के अनुसार ही हमें मानव-शरीर मिला। शरीर का स्वरूप, बुद्धि, स्वास्थ्य आदि भी जो प्रभु-प्रदत्त हैं, वे हमारे पिछले कर्मों के अनुसार हैं। इस जन्म का पुरुषार्थ या अपरुषार्थ इन्हें और अच्छा व बुरा बनाता रहता है। यह भी कर्म-सापेक्ष है। अन्याय-अधर्म से हम धनादि साधन पा सकते हैं, पाते हैं, किन्तु उसका दण्ड समेत भुगतान करना ही होता है, अतः ऐसी प्राप्ति को उपलब्धि नहीं कहा जा सकता, न इसे प्रभु-कृपा कहा जा सकता है।
प्रभु से हमें जो भी मिला है, वह हमारे कर्मानुसार मिला है। प्रभु से हमें जो नहीं मिला है, वह भी हमारे कर्मानुसार है। यह अटल नियम है। जब हम प्रार्थना करते हैं, तब वह भी हमारे कर्मानुसार ही पूर्ण होती है। प्रार्थना के सफल होने का अर्थ है कि हमारे वैसे कर्म हैं। प्रार्थना के असफल होने का अर्थ है कि हमारे वैसे कर्म नहीं हैं।
किन्तु हम प्रार्थना के समय इस तथ्य को प्रायः भूले रहते हैं। हमें प्रभु पर ऐसी श्रद्धा हो गई है, हमने प्रभु पर ऐसा विश्वास कर लिया है कि वह ऐसा कृपालु है, जो सच्ची भावना से की गई प्रार्थना को अवश्य स्वीकार कर लेता है। इस सच्ची-भावना को बनाने के लिये हम हृदय की गहराइयों से प्रार्थना करते हैं, पुनः प्रार्थना करते हैं, रो-रोकर प्रार्थना करते हैं, अनेक व्रत-संकल्पों के साथ प्रार्थना करते हैं, क्षमा मांगते हुए प्रार्थना करते हैं, कुछ दान-पुण्य कर देने की शर्त के साथ प्रार्थना करते हैं, और करते ही जाते हैं।
प्रभु बड़े कृपालु हैं, वे मात्र भावना से प्रार्थना नहीं स्वीकारते। वे हमारी भावना के साथ हमारे कर्मों को भी देखते हैं। कर्म नहीं तो फल नहीं, यह नियम प्रभु की बहुत बड़ी कृपा है, न्याय है, हमारे लिये हितकर है। प्रभु-कृपा से हम अच्छे-अच्छे कर्म करते जायें, करते जायें। हमारा कर्माशय जब पुण्यों से भरा होगा तो हमारी प्रार्थना जो हमारे लिये हितकर है, जिससे अन्यों की हानि नहीं होती है, शीघ्र पूरी होती जायेगी।
वह कितना आनन्द का जीवन होगा, जब हमारी प्रार्थना शीघ्र पूर्ण होगी, जब हमें बार-बार प्रार्थना नहीं करनी पड़ेगी, जब हमें प्रार्थना के बाद उसके पूर्ण होने के लिये लम्बे समय तक प्रतीक्षा नहीं करनी होगी। प्रभु कृपालु हैं, प्रार्थना को सुनते हैं, उन्हें पूरा भी करते हैं, बस हमें अपना कर्तव्य पूरा करना है, शुभकर्मों का संचय करना है, अशुभ कर्मों से पूर्णतः हट जाना है।

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