गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

निर्लेपता

स्वामी विद्यानंद जी 'विदेह'

कुर्वन्नेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।

यजुर्वेद ४॰.२

कर्म दो प्रकार से किए जाते हैं, १) इच्छया २) स्वभावतया। जहां इच्छा है वहां लेप है। इच्छापूर्वक किए गए कर्म में फलाकांक्षा अन्तर्निहित होती है। जहां फलाकांक्षा है वहां लेपता है। फलाकांक्षा जितनी तीव्र होगी, कर्मलेप भी उतना ही दीर्घसूत्री होगा। स्वभावज कर्म में न इच्छा होती है, न फलाकांक्षा, न कर्मलेपता। इच्छा से किए कर्म में वह महत्त्व भी नहीं होता जो महत्त्व स्वभाव से किए कर्म में होती है।

शरीर में सबसे अधिक महत्त्व का कार्य प्राण का संचालन है जो स्वभावतः ही होता रहता है। यदि कहीं प्राणसंचालन का कार्य इच्छा पर आधारित होता तो जीवन रह ही न सकता। प्राण के अतिरिक्त अन्य समस्त इन्द्रियों के व्यापार का आधार इच्छा है। प्रत्येक इन्द्रिय इच्छा से प्रेरित होकर कार्य करती है। प्राण स्वभावतः चलता है। प्रत्येक इन्द्रिय थकती है और विश्राम करती है। प्राण अनथकतया निरन्तर कर्म करता है और विश्राम नहीं लेता। प्राण विश्राम करने लगे तो जीवन ही समाप्त हो जाए। प्रत्येक इन्द्रिय का एक विषय है, और प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने विषय में लिप्त है। प्राण का कोई विषय नहीं। प्राण निर्विषय है। प्राण किसी विषय की ओर अनुधावन नहीं करता। प्राण किसी विषय में लिप्त नहीं। प्राण केवल शुभ ही करता है और कर्तव्य के लिए ही कर्म करता है। प्राण निर्लेप है।

कर्म सृष्टि का धर्म है। कर्म का त्याग असम्भव है। गतिशील संसार में गतिविहीन होना सम्भव ही नहीं। गतिपूर्ण संसार में निश्चेष्टता का क्या काम। कर्म तो करना ही होगा। प्रथम, इच्छापूर्वक कर्मशोध कीजिए। तत्परता के साथ अशुभ कर्मों  के त्याग तथा शुभ कर्मों के सम्पादन का अभ्यास कीजिए। ऐसा करते करते आपसे अशुभ कर्मों का सर्वथा त्याग हो जाएगा, और आपसे शुभ ही कर्म हुआ करेंगे। शुभ ही शुभ कर्म करते करते, आपका शुभ ही कर्म करने का अभ्यास वा स्वभाव हो जाएगा। तब आप केवल कर्तव्य के लिए कर्म करेंगे और स्वभावतया ही शुभ कर्म करने लगेंगे। कर्तव्य के लिए कर्म कीजिए; कर्तव्य का स्वभावतया पालन कीजिए। कर्तव्य के लिए शुभ कार्य कीजिए; शुभ कर्म करने का स्वभाव बना लीजिए। स्वभाव से कर्तव्य और शुभ सम्पादन करने का अभ्यास सिद्ध होते ही आप निर्लेप हो जाएंगे।

अनासक्ति और निर्लेपता में भेद है। ‘अनासक्ति’ का अर्थ है भोगों में त्यागभाव। ‘निर्लेपता’ का अर्थ है कर्मों में त्यागभाव। त्यागभाव से भोगना अनासक्ति है, और त्यागभाव से, स्वभाव से कर्तव्य कर्म करना निर्लेपता है। अनासक्ति और निर्लेपता की सिद्धि होने पर समस्त ग्रन्थियां छिन्न-भिन्न हो जाएंगी, समस्त आवरण विलीन हो जाएंगे, और उस अजस्र, अखण्ड, अक्षय आत्मज्योत्सना का उदय होगा जिसके आलोक में सब कुछ स्पष्ट आलोकित होने लगेगा।

(इह) यहां (कर्माणि) कर्तव्य कर्मों को (कुर्वन् एव) करता हुआ ही (शतम् समाः) सौ वर्ष (जिजीविषेत्) जीने की इच्छा करे। (एवम्) इस प्रकार (त्वयि नरे) तुझ नर में (कर्म न लिप्यते) कर्म नहीं लिपता। निर्लेपता का (इतः अन्य-था) इससे भिन्न प्रकार उपाय (न अस्ति) नहीं है।


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