मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

पवित्रता भाग-एक

स्वामी विद्यानंद जी विदेह 

पुनन्तु मा देवजनाः पुनन्तु मनवो धियाः।
पुनन्तु विश्वा भूतानि पवमानः पुनातु मा।। 

अथर्ववेद ६.१९.१

एक कटोरे में पवित्र जल भरकर रख दीजिए। उस कटोरे में सूर्य के दर्शन हो सकते हैं, उसमें चन्द्रमा के दर्शन कर सकते हैं, उसमें अपने रूप का अवलोकन किया जा सकता है। उस कटोरे में थोड़ी सी मिट्टी घोल दीजिए। अब न सूर्य के दर्शन हो सकते हैं, न चन्द्र के, न अपने रूप के। एक शुद्ध दर्पण ले लीजिए। उसमें स्व, पर का साक्षात्कार हो सकता है। दर्पण पर थोड़ी सी मिट्टी थोप दीजिए। अब कुछ भी प्रतिबिम्बित नहीं होगा।

प्रार्थना कीजिए, प्रयत्न कीजिए, कामना कीजिए कि (देवजनाः) दिव्य जन (मा) मुझे (पुनन्तु) पवित्र करें। (मनवः) मननशील जन मुझे (पुनन्तु) पवित्र करें। किस प्रकार ? (धिया) धारणा द्वारा, बुद्धि द्वारा, सुमति द्वारा। (विश्वा) सब (भूतानि) भूत, प्राणी मुझे (पुनन्तु) पवित्र करें (पवमानः) पवित्र प्रभु (मा) मुझे (पुनातु) पवित्र करे।

बुद्धि की निर्मलता से कर्मों की पवित्रता स्वतः सिद्ध हो जाती है। विचार और कर्मों की पवित्रता से भावनाएं शुद्ध होती हैं। भावनाओं की शुद्धि से हृदय, मन, चित्त तथा सत्त्व की शुद्धि होती है। इस प्रकार, जब अन्तःकरण की शुद्ध और पवित्र हो जाता है तब अनायास ही आत्मानुवेदन और ब्रह्मानुभूति की प्रतीति होने लगती है। अन्तःकरण की शुद्धि से समस्त इन्द्रियों के व्यवहार स्वतः ही शुद्ध हो जाते हैं, और कर्मों की पवित्रता भी सम्पादन हो जाती है।

पवित्रता के सम्पादन में दिव्य जनों तथा मननशील व्यक्तियों की संगति बड़ी लाभदायक होती है। दिव्य जनों तथा मननशीलों के सत्संग से बुद्धि का परिष्कार होता है। बुद्धि के परिष्कार से सब भूत पवित्रता प्रदान करने लगते हैं। पवित्र बुद्धि से दृष्टि पवित्र होती है। पवित्र दृष्टि से भूतमात्र {पंचभूत तथा प्राणी} में पवित्रता अनुभव होती है। जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि। पवित्र दृष्टि, पवित्र सृष्टि। विकृत दृष्टि, विकृत सृष्टि। पवित्र दृष्टि से कण-कण, अणु-अणु और बिन्दु-बिन्दु में, पवमान की पवमानी पवित्रता के, सुन्दर सौन्दर्य के दर्शन होते हैं।

अपने वातावरण को पवित्र बनाइए, तथा अपने अन्दर और बाहर से सर्वथा शुद्ध हो जाइए। अन्तःकरण विमल हो, इन्द्रिया शुद्ध, पवित्र हों। सब करण, उपकरण सर्वथा शुद्ध हों। देह शुद्ध हो। गेह शुद्ध हो। वस्त्र शुद्ध हों। खान-पान शुद्ध हो। सब ओर से, सब प्रकार से सदा सर्वत्र, शुद्धता और पवित्रता का सुसम्पादन कीजिये।
शुद्धता में सम्पूर्ण ऋद्धियां तथा सिद्धियां निहित हैं। पवित्रता ही परम सौन्दर्य है। पवित्रता में ही पवमान का सौन्दर्य उद्बुद्ध होता है। पवमान की आराधना और उपासना से पूर्ण पवित्रता प्राप्त होती है। पुनः-पुनः गाइए:

‘पवमानः पुनातु मा।’

‘पवमान मुझे पवित्र करे, पवमान मुझे सदा पवित्र रखे।’

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