सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

आकांक्षा

स्वामी विद्यानंद जी ,विदेह,
यदग्ने स्यामहं त्वं त्वं वा घा स्या अहम्।
स्युष्टे सत्या इहाशिषः।। 
ऋग्वेद ८.४४.२३

आकांक्षा योग की पुरोगवी है। मनुष्य उसी की प्राप्ति के लिए यत्नशील होता है जिसकी उसे आकांक्षा होती है। योग की सिद्धि का आधार आकांक्षा ही है। जब योग की, प्रभुमिलन की तीव्र आकांक्षा होती है तभी ब्रह्मप्राप्ति के साधनों की ओर प्रवृत्ति होती है। आकांक्षा जितनी तीव्र होती है उतनी ही शीघ्र उसे योग में सिद्धि प्राप्त होती है।
एक रूप-लावण्यमयी परम सुन्दरी समस्त शृंगारों से सुशोभित और सम्पूर्ण सुखसाधनों से सुसम्पन्न होकर भी गहन वेदना और अन्तःव्यथा से व्यथित रहती है, यदि उस पतिपरायणा को अपने पति का योग-सुमिलन प्राप्त नहीं है। दूसरी ओर एक अन्य सुन्दरी है जिसके पास न शृंगार की कोई वस्तु है, न कोई सुख के विशेष साधन हैं, पर उसे अपने प्राणप्रिय पति का संयोग प्राप्त है। पूर्व-सुन्दरी की अपेक्षा अवर-सुन्दरी कहीं अधिक सुखी है। इस संसार में अनेक सुखराशियां हैं, अनेक शोभन शृंगार हैं, अनेक सुखोपभोग हैं, पर प्रेमी के लिए वे सब िवधवा के शृंगार के समान निस्सार हैं, यदि उसे अपने सत्पति की सुसंगति प्राप्त नहीं है।
दो के मिलन में बड़ा सुख है। दो के मिलन में अपार और अकथनीय शान्ति मिलती है। जलबिन्दु सागर से संगत होकर सागर बन जाता है, सुखसागर हो जाता है। पति पत्नी के आत्ममिलन में, बन्धु के स्नेलसंयोग में, सखा सखा के सुमिलन में कैसी अवर्णनीय अभितुष्टि प्राप्त होती है! आत्मा भी अपने आनन्दस्वरूप  ब्रह्मसखा से मिलकर ही आनन्दी होता है। जो उसे प्राप्त कर लेता है वह आनन्दी होता है। जो उससे संगत हो जाता है, संसार की समस्त सुखराशियां, निस्सन्देह, उसी को मुबारिक होती हैं। जिसे उसका सुमिलन प्राप्त हो जाता है वही सच्चा सौभाग्यशाली है। परन्तु कितने हैं जो उससे संगत होने के लिए आतुर हैं ? मानव उससे प्रजा, सुख, वैभव और ऐश्वर्य तो मांगते हैं, पर कितने हैं जो उससे उसी को मांगते हैं ? यदि आप उससे संगत होना चाहते हैं तो उसके सुमिलन के लिए आतुर, आकुल, व्याकुल और विह्वल हूजिए। जब आप उससे मिलने के लिए आतुर हो उठेंगे तब आपको उससे साक्षात्कार के बिना, ये सरस प्रतीत होनेवाली, मायामयी मोहकताएं नीरस प्रतीत होने लगेंगी, और जब तक आप उससे संगत न हो लेंगे तब तक आप न विराम लेंगे, न विश्राम।
(अग्ने) कमनीय देव ! (यत्) काश (अहम् त्वम् स्याम्) मैं तू हो जाऊँ, तुझसे संगत हो जाऊँ, (वा) या (त्वम् घ अहम् स्याः) तू ही मैं हो जाए, तू ही मुझमें प्रकाशित-प्रज्वलित हो जाए तो (इह) यहाँ, इस जीवन में (ते आशिषः) तेरी आशिषें (सत्याः स्युः) सत्य हो जाएं।

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