सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

आत्म-अवस्थिति वैदिक योग पद्धति

स्वामी विद्यानंद जी 'विदेह'
संस्थापक-वेद संस्थान 

वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्।
ओं क्रतो स्मर। क्लिबे स्मर। कृतं स्मर।। यजुर्वेद ४॰.१५।।

(वायुः) प्रेरक, शरीर का संचालक, आत्मा (अन्-इलम्) अपार्थिव, अभौतिक; अतः (अ-मृतम्) अमृत, अमरणधर्मा है। आत्मा अनादि, अनन्त है। न इसका कभी आदि हुआ, न इसका कभी अन्त होगा। आत्मा स्वरूप से अजर, अमर, शुद्ध और बुद्ध है। इसे न पवन सुखा सकता है, न जल गला सकता है, न पावक जला सकता है, न मृत्यु मार सकती है। (इदम्) यह (भस्म-अन्तम्) भस्म में अन्त होने वाला, मरने वाला (अथ) तो (शरीरम्) शरीर है, केवल शरीर है। प्रत्येक आत्मा की अपनी एक स्वतन्त्र सत्ता है। आत्मा आत्मरूप से न किसी का पिता है, न पुत्र; न माता है, न पुत्री; न बन्धु है, न भ्राता; न बहिन है, न भाई; न मित्र है न सखा। ये सब सांसारिक रिश्ते-नाते केवल शरीर के हैं और शरीर के साथ हैं। शरीर का अन्त होते ही सब सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं।
अत सातत्यगमने। जीव सतत गति करनेवाला होने से आत्मा कहाता है। शरीर का गमयिता, प्रेरक, संचालक यह आत्मा ही है। अहंकार के साथ जो यह कहता है, ‘मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा चित्त, मेरे नेत्र, मेरे श्रोत्र, मेरी भुजा, मेरा पग, मेरा हृदय, वही इन्दियों का स्वामी इन्द्र-आत्मा है।
प्रकृति सत् है। आत्मा सत्, चित् {सच्चित्} है। देह कि स्थिति {शरीर सुख} के लिए आत्मा को प्रकृति का, और आनन्द के लिए परमात्मा का आश्रय लेना चाहिए।
आत्मा कर्ता तो है, पर केवल संचालक, प्रेरक वा चेतन रूप से। क्रियात्मक रूप से कर्म करने वाला भी शरीर ही है। कर्म को मूर्त रूप देने वाली तो शरीर की इन्द्रियां ही हैं। पितृधर्म, मातृधर्म, पुत्रधर्म, राष्ट्रधर्म, पतिधर्म, पत्नीधर्म अथवा पिता का कर्तव्य, माता का कर्तव्य, पुत्र का कर्तव्य इत्यादि, ये सब शरीर की ही अपेक्षा से हैं। सांसारिक सब सम्बन्ध और कर्म देह की अपेक्षा से ही हैं, आत्मा की अपेक्षा से नहीं।
आत्मरूप से आत्मा का शाश्वत सम्बन्ध तो एकमात्र परमात्मा से, केवल ब्रह्म से है। अतः (क्रतो) कर्तः! आत्मन! तू सदा (ओम् स्मर) ओं का स्मरण कर। सदा ओं से संयुक्त और संजुष्ट रह। सब कर्म कर, सक कार्य कर, सक सब कर्तव्य निर्वाह कर, (कृतम् स्मर) कर्तव्य कर्म और लक्ष्य का ध्यान रख, पर अपने अनिल और अमर स्वरूप को नितरां अभिलक्ष्य रखते हुए। ओं और कृत का स्मरण किसलिए ? (क्लिबे) क्लैव्य के निवारण के लिए, आत्मसंबल, आत्मस्थिति, आत्मनिश्चलता, आत्म-अवस्थिति के लिए।
दर्पण में स्वरूप के दर्शन तभी होते हैं जब दर्पण शुद्ध भी हो और स्थिर भी। जल में तभी स्वरूप के दर्शन होते हैं जब जल स्वच्छ भी हो और साथ ही, तरंगरहित अथवा स्थिर भी हो। आत्म-अवस्थिति और ब्रह्मसाक्षात्कार के लिए अन्तःकरण की विमलता की भी परम आवश्यकता है। केवल पवित्रता से काम न चलेगा, पवित्रता के साथ निश्चलता भी चाहिए।
ऐसा अभ्यास कीजिए कि किन्हीं भी अवस्थाओं और परिस्थितियों में आप सदा शान्त, स्थिर और निश्चल रह सकें। निश्चलता की दृढ़भूमिता के लिए आप सदा यह याद रखिएः
॰१. (वायुः) आत्मा (अनिलम्, अमृतम्) अजन्मा और अमर है।
॰२. (अथ) और (इदम् शरीरम्) यह शरीर (भस्मान्तम्) नश्वर है।
॰३. (क्रतो) आत्मन्! (ओम् स्मर) ओं का स्मरण रख।
॰४. (क्लिबे) आत्मस्थिति के लिए {उपर्युक्त तथ्यों को} (स्मर) रमरण रख।
॰५. (कृतम्) कृत, लक्ष्य किए हुए को (स्मर) स्मरण रख। कितनी साध सिद्ध हो चुकी,
    कितनी शेष है, यह सदा ध्यान में रख।

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