शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2013

वैदिक योग पद्धति ईशविश्वास ।।१।।


स्वामी विद्यानंद जी विदेह 
संस्थापक वेद-संस्थान, अजमेर
राजस्थान
ईशविश्वास ।।१।।

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाष्वतीभ्यः समाभ्यः  ।।यजुर्वेद ४॰.८।।

ईश है। (सः परि अगात्) वह सर्वत्र रम रहा है। (सः शु¬क्रम्) वह सर्वशक्तिमान् है। (सः अकायम्) वह निराकार है। (सः अव्रणम्) वह रोगरहित है। (सः अस्नाविरम्) वह अस्नायु है। (सः शुद्धम्) वह शुद्ध है। (सः अपापविद्धम्) वह निष्पाप है। (सः कविः) वह क्रान्तदर्शी है। (सः मनीषी) वह परम प्राज्ञ है। (सः परिभूः) वह परिपूर्ण है। (सः स्वयम्भूः) वह स्वयम्भू है। वही (शाश्वतीभ्यः समाभ्यः) शाश्वत प्रजाओं आत्माओं के लिए (अर्थान्) अर्थों, पदार्थों, भोग्यों को (याथातथ्यतः) यथावत् (वि अदधात्) निर्धारण/समुत्पन्न किया करता है।

अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद् देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत्।
तद् धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत् तस्मिन्नपो मातरिष्वा दधाति।। यजुर्वेद ४॰.४।।

ईश है। वह (एकम्) एक है, (एन्-एजत्) निर्गत-कूटस्थ है, (मनसः जवीयः) मन से अधिक वेगवान् है; मन की वहाँ पहुंच नहीं है। (न) न (देवाः) इन्द्रियदेव ही (एनत्) इसको (आप्नुवत्) पाते हैं। (तत् पूर्वम् अर्षत् तिष्ठत्) वह पूर्व-गामी, कूटस्थ (धावतः अन्यान्) अन्य दौड़ते हुओं को (अति एति) लांघ रहा है। (तस्मिन्) उसी में (मातरिश्वा) आत्मा, अन्तरिक्ष (अपः) कर्मों-कर्मफलों, लोकों को (दधाति) धारण करता है।

तदेजति तन्नैजति तद् दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः।। यजुर्वेद ४॰.५।।

ईश है। (तत्) वह (एजति) विश्व का संचालन करता है। (तत्) वह स्वयं (न एजति) स्थानान्तर नहीं होता है। (दूरे) दूर स्थान में भी (तत्) वह है। (तत् उ) वह ही (अन्तिके) समीप में भी है। (तत्) वह (अस्य सर्वस्य) इस सबके (अन्तः) अन्दर है। (तत् उ) वह ही (अस्य सर्वस्य बाह्यतः) इस सबके बाहर भी है।

विश्वास रखिए, ‘ईश है, और उसका साक्षात्कार होगा।’

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