बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

अनासक्ति

स्वामी विद्यानंद जी 'विदेह'

ईशा वास्यमिदं सर्वं यत् किं च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम्।।

यजुर्वेद ४॰.१

(इदम् सर्वम्) यह सब विश्व इसके (ईशा वास्यम्) स्वामी से वास्य-व्याप्त है। यह विश्व स्वामीविहीन {लावारिस} नहीं है। इसका एक ईश {स्वामी} है और वह इस सम्पूर्ण विश्व में सर्वत्र समाया हुआ है। यह अखिल विश्व उसी एक सर्वव्यापक स्वामी का है। जब यह सारा जगत् उसका है तो फिर इस (जगत्याम्) जगती में (यत् किम् च) जो कुछ भी (जगत्) जगत् है, चर, अचर, जो कुछ है यह सब भी उसी का है। जगती का स्वामी, वह जगतीश इस सम्पूर्ण जगत् का अन्दर, बाहर, सर्वत्र अधिष्ठातृत्व कर रहा है।

यहां जो कुछ है वह सब उस जगतीश का ही है, तेरा कुछ नहीं। (तेन) तेन कारणेन, अतः (त्यक्तेन) त्याग के साथ, त्यागभाव से (भुंजीथाः) भोग। ‘मा भुंजीथाः’, मत भोग, वेद ऐसा नहीं कहता है। वेद ऐसी अप्राकृत बात कह ही नहीं सकता। जीवन भोगाश्रित है। भोग तो शरीर का धर्म है, प्रकृति का नियम है। भोगों का त्याग असम्भव है। इसीलिए वेद कहता है। (भुजीथाः) भोग, परन्तु (त्यक्तेन) त्यागभाव से भोग क्योंकि अ-निज को त्यागभाव से ही भोगना चाहिए।

क्या कोई भी प्राणी अथवा पदार्थ ऐसा है जो सदा से तेरे साथ हो और सदा तेरे साथ रहेगा ? जीवनपथ पर चलते हुए तुझे जो कुछ प्राप्त होता है वह जीते जी वा देहावसान पर त्यागना ही पडे़गा। अतः त्यागभाव से ही भोग। पराई वस्तु को जिस प्रकार भोगना चाहिए उसी प्रकार भोग। त्यागभाव से भोगने का नाम ही अनासक्ति है, विदेहता है। जो जीते जी अनासक्त है वह जीवन के उस पार पहुंचकर भी मुक्त रहता है। जो सदेह रहते हुए विदेह है वह देह त्यागने पर भी मोक्ष को प्राप्त होता है। जो इधर आसक्त है वह उधर भी बद्ध है। जो इधर मुक्त है वह उधर भी मुक्त है।

(मा गृधः) धनलोलुपता भी मत कर। (स्वित्) भला, सोच तो सही, (धनम्) जगत् का यह सब वैभव (कस्य) किसका है ? यह जगत् जिसका है, इस जगत् का सारा वैभव भी उसी का है। अतः धन की लोलुपता भी त्याग दे। धन वैभव का उपयोग भी त्यागभाव से ही कर।

बात सरल और स्पष्ट है जो तेरा नहीं है उसे अपना मत समझ। बस, इतनी सी बात है, जिसे जानने, मानने और समझने पर तू सर्वथा अनासक्त और जीवन्मुक्त विदेह हो जाएगा।

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