गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

उपोदय व हेय संसार


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...........

आचार्य सत्यजित् जी

ऋषि उद्यान, अजमेर (राजस्थान)

प्रभुकृपा से हम आत्माओं को यह संसार मिला है। जन-सामान्य को यह संसार बहुत अच्छा लगता है, प्रिय लगता है, सुखद लगता है, अद्भुत लगता है। प्रभु प्रदत्त संसार ऐसा है भी। जन-सामान्य को यह संसार कभी बहुत बुरा लगता है, अप्रिय लगता है, दुःखद लगता है, रसहीन लगता है, दोषयुक्त लगता है, सामान्य लगता है, अरुचिकर लगता है। यह संसार ऐसा है भी। परिस्थिति, दृष्टि, ज्ञान आदि के बदलने से यह संसार पूर्व की अनुभूति से बिलकुल भिन्न अनुभूति वाला प्रतीत होता रहता है। यद्यपि संसार जब हमारे सामने होता है, तब वह अपने आप में वैसा ही होता है जैसा वह वास्तव में है।

यह संसार वास्तव में कैसा है ? क्या दोनों तरह का है ? क्या दो बिलकुल विपरीत- विरुद्ध स्वभाव वाला है ? प्रतीत तो हमें ऐसा ही होता है। क्या प्रभु ने इसे ऐसा ही विपरीत स्वभाव वाला बनाया है ? हां उसने इसे ऐसा ही बनाया है।  हम आत्माओं के कल्याण के लिए उसने इसे ऐसा ही बनाया है। यह संसार ऐसा ही होना चाहिए था। यह संसार ऐसा ही हो सकता था।

सांसारिक-भोगी व्यक्ति स्वस्थ-प्रसन्न-अनुकूल स्थिति में इसे प्रिय-सुखद-रसयुक्त समझता है और अस्वस्थ-अप्रसन्न-प्रतिकूल स्थिति में इसे अप्रिय-दुःखद-रसहीन समझने लगता है। आध्यात्मिक-साधक व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से स्वस्थ-प्रसन्न-अनुकूल स्थिति में होने पर इसे अप्रिय-दुःखद-रसहीन समझता है और आध्यात्मिक दृष्टि से अस्वस्थ-अप्रसन्न- प्रतिकूल स्थिति में होने पर इसे प्रिय-सुखद-रसयुक्त समझने लगता है। संसार का प्रिय-सुखद -रसयुक्त लगना सांसारिक दृष्टि से उचित माना जाता है व आध्यात्मिक दृष्टि से अनुचित माना जाता है। संसार का अप्रिय-दुःखद-रसहीन लगना सांसारिक दृष्टि से अनुचित माना जाता है व आध्यात्मिक दृष्टि से उचित माना जाता है।

प्रभुकृपा से मिला यह संसार वस्तुतः भोग व अपवर्ग दोनों के लिए बनाया गया है। साधक को इस संसार को किस दृष्टि से देखना चाहिए ? सांसारिक व्यक्ति भी इस संसार के साथ अतिवादी दृष्टिकोण अपना लेेते हैं व आध्यात्मिक व्यक्ति भी। इस संसार को साध्य-लक्ष्य के रूप में देखते हुए इसे प्रिय-सुखद-रसयुक्त समझना यह एक अतिवादी दृष्टिकोण है, अयथार्थ-मिथ्या दृष्टिकोण है। इस संसार को साधन-उपाय के रूप में देखते हुए इसे अप्रिय- दुःखद-रसहीन समझना, यह भी एक अतिवादी दृष्टिकोण है, अयथार्थ-मिथ्या दृष्टिकोण है। ऐसा दृष्टिकोण अपनाने वालों को अन्ततः हानि ही उठानी पड़ती है।

प्रभु ने इस संसार को साधन के रूप में प्रिय-सुखद-रसयुक्त-अनुकूल बनाया है, अतः साधन के रूप में यह संसार उपादेय-ग्राह्य-स्वीकार्य है, होना चाहिये। प्रभु ने इस संसार को साध्य के रूप में अप्रिय-दुःखद-रसहीन-प्रतिकूल बनाया है, अतः साध्य के रूप में यह संसार त्याज्य-अग्राह्य-अस्वीकार्य है, होना चाहिए। यह सम्यक् दृष्टि है। इस सम्यक् दृष्टि के प्राप्त होने पर साधक को यह संसार प्रिय-सुखद-रसयुक्त-अनुकूल लगते हुए भी बांधता नहीं है, बल्कि मुक्ति देने वाला बन जाता है। संसार का प्रिय-सुखद-रसयुक्त-अनुकूल लगना साधना या मुक्ति में तब बाधक बनता है, जब हम इसे साध्य के रूप में देख रहे होते हैं। साधन के रूप में यह संसार कितना भी प्रिय लगे साधना में कोई बाधा नहीं डालता, बल्कि जितना प्रिय लगता है, उतना अनुकूल होता जाता है।

प्रभुकृपा से साधक इस संसार की अप्रियता-दुःखस्वरूपता-रसहीनता को समझने लगता है, यह सांसारिक व्यक्ति की अपेक्षा ऊँची स्थिति है, किन्तु यही दृष्टि साधक की साधना में बाधक भी बन जाती है। जब साधक इस संसार को अप्रिय-दुःखद-रसहीन मानकर उपेक्षित करने लगता है, संसार के प्रति इस अप्रियता-उपेक्षा को वैराग्य मानकर इसे अपनी आध्यात्मिक प्रगति मानने लगता है, तब उसे यह अवश्य विचार कर लेना होता है कि मैं संसार को साध्य की दृष्टि से देखते हुए कर रहा हूँ या साधन की दृष्टि से देखते हुए कर रहा हूँ ?
सुलझा हुआ साधक प्रभुकृपा से शीघ्र ही यह जान जाता है कि संसार साधन के रूप में तो उपादेय है, हेय नहीं है। यह संसार साध्य के रूप में तो उपादेय नहीं है, त्याज्य है। पुनरपि व्यवहार में ऐसा कर पाना प्रायः नहीं हो पाता है। साधक की वर्षों की विचारधारा उसे संसार को हेय ही मानने पर विवश करती रहती है और साधक संसार के साथ साधन रूप में भी हेय का व्यवहार करता चला जाता है। सुलझा हुआ साधक थोड़ी सी समझदारी, थोड़ा सा विवेक रख ले, थोड़ा सा ध्यान दे देवे तो प्रभुकृपा से यह बदलाव अति सरलता से हो जाता है। यही सम्यक् दृष्टि है।

यह संसार उपादेय भी है, हेय भी है। साधन के रूप में यह उपादेय-ग्राह्य है, साध्य के रूप मंे यह अनुपादेय-त्याज्य है। प्रभु ने कृपा करके इसे ऐसा ही बनाया है, यह ऐसा ही है, यह ऐसा ही हो सकता था। प्रभुकृपा से हम प्रभु की कृपा के स्वरूप को समझ सकते हैं। ऐसी बुद्धि-सामर्थ्य प्रभु ने हमें प्रदान कर दी है। उपयोग करना या न करना, लाभ उठाना या न उठाना हमारी स्वतन्त्रता है।

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