सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

१. मैं अग्नि की स्तुति करता हूँ


स्वामी देवव्रत जी
प्रधान संचालक
सार्वदेशिक आर्यवीर दल
 
ओ३म् अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विम्।
होतारं रत्नधातमम्।।
 ऋ. १। १। १।।

मैं (पुरोहितम्) सृष्टि उत्पत्ति से पूर्व कारण रूप प्रकृति को धारण और (ऋत्विजम्) सृष्टि उत्पत्ति काल में परमाणुओं का संयोग कर सृष्टि की रचना करने (यज्ञस्य होतारम्) सृष्टि की उत्पत्ति के पश्चात् (रत्नधातमम्) विविध रत्नों से युक्त पृथिवी एवं अन्य लोकों के धारण करने वाले (देवम्) सब पदार्थों के प्रदाता, प्रकाशक (अग्निम्) सबके नेता, ज्ञानस्वरूप परमेश्वर की (ईडे) स्तुति करता हूँ।

छेदन, भेदन, धारण, आकर्षण गुण वाले (ऋत्विजम्) विविध यन्त्रों को गति देने वाले (देवम्) प्रकाशयुक्त (रत्नधातमम्) रमणीय पदार्थों को प्राप्त कराने वाले (अग्निम्) भौतिक अग्नि के (ईडे) गुणों को जान उसका सदुपयोग करता हूँ।

इस मन्त्र में अग्नि आध्यात्मि और भौतिक दोनों ही अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। इसी भाँति राजा, सभाध्यक्ष, विद्वान् को भी अग्नि कहते हैं।

यहा अग्नि शब्द द्वारा ईश्वर का ग्रहण किया है।

पुरोहितम्-सृष्टि की उत्पत्ति से पहले भी वह परमेश्वर सबका अग्रणी था और उसमें सृष्टि की रचना करने का ज्ञान तथा सामर्थ्य भी था।

यज्ञस्य होतारम्-परमेश्वर स्वयं यज्ञ स्वरूप है जिसने अपने ज्ञान एवं सामर्थ्य से एक-एक परमाणु को मिलाकर इस संसार की अद्भुत रचना की है।

ऋत्विज् से अभिप्राय यह है कि ऋतु अर्थात् जब सृष्टि रचने का समय आता है तो वह प्रभु अपनी ईक्षण क्रिया से सृष्टि की उत्पत्ति करता है। जैसे एक के पश्चात् दूसरी ऋतु बदल कर आती रहती है वैसे ही अनादि काल से सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय का क्रम चल रहा है।

भोगापवर्गार्थं दृश्यम् (योगदर्शन २.१८) भोग और अपवर्ग मोक्ष के लिये सृष्टि रचना हुई है और इसमें रत्नधातमम् विविध रत्न, हीरे, मोती, स्वर्णादि बहुमूल्य पदार्थों का निर्माण किया है। हमारी सारी आवश्यकताओं की आपूर्ति इस भूमि माता से ही होती है।

इन दिव्य गुणों के प्रकाशक, मार्गदर्शक, ज्ञानस्वरूप अग्नि परमेश्वर की मैं स्तुति करता हूँ।

इस भौतिक अग्नि में भी दिव्य गुणों को उसी परमेश्वर ने भरा है जिन्हें जानकर हम अपना जीवन सुखी बना सकते हैं।

साभार-वेद-स्वाध्याय 
लेखक - स्वामी देवव्रत सरस्वती जी 

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