शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

ब्रह्मवृत्ति

स्वामी विद्यानंद जी 'विदेह'

युंजते मन उत युंजते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः। 
वि होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः।।

{यजुर्वेद ५.१४, ¬११.४, ३७.२} ऋग्वेद ५.८१.१

यह मानव-शरीर आत्मा की परिस्तुति वा महिमा है। आत्मा शरीर का सविता देव है। ‘सविता’ आ अर्थ है स्रष्टा और संचालक। आत्मा के मिष से ही शरीर की रचना होती है, और आत्मा ही शरीर का संचालन करता है। मनुष्यदेह कैसी कुशल, पूर्ण और अद्भुत मशीन है, और आत्मा कैसी कुशलता से इसके कण-कण, अणु-अणु और अंग-प्रत्यंग का संचालन करता है। शरीर दिखाई देता है पर आत्मा दिखाई नहीं देता। जब किसी महात्मा की महिमा श्रवण करके वा उसकी किसी कृति से परिचित होकर हम उसके दर्शन करने जाते हैं तो हम उसके दर्शन करके उसको प्रणाम करते हैं, उसका स्तवन करते हैं और अपने को कृतकृत्य मानते हैं। दर्शन केवल शरीर का होता है, आत्मा का नहीं। जो दृष्टि का विषय है, दर्शन उसी का होता है। दृष्टि का विषय न होने से, आत्मा का नेत्रों से दर्शन नहीं हो सकता। फिर भी, यह सत्य है कि हम महात्मा के दर्शन करते हैं। महात्मा में महा-आत्मता है वह आत्मा की ही है पर आत्मा दिखाई नहीं देता। क्योंकि महात्मा का शरीर उसके आत्मा से व्याप्त है अतः उस महात्मा के शरीर के दर्शन में उसके आत्मा का दर्शन भी सन्निहित है। नेत्रों से हम महात्मा के शरीर के दर्शन करके, आत्मना उसके आत्मा से आत्मीयता करते हैं।

यह सम्पूर्ण समष्टि भी उस विश्वात्मा सविता देव का विराट् शरीर है, द्यौ जिसका मूर्धा है, नद्वात्र जिसके केश हैं, सूर्य-चन्द्र जिसके नेत्र हैं, अन्तरिक्ष जिसका उदर है, भूमि जिसका पाद है, और वात जिसका प्राणापान है अनादि, अनन्त और असीम विश्वात्मा की यह समष्टिदेह भी प्रवाह से अनादि, अनन्त और असीम है। नेत्रों से उस अवश्वात्मा के विराट् स्वरूप का दर्शन कीजिए। विश्वात्मा से विराट् की और विराट् से विश्वात्मा की पृथक्ता हो ही नहीं सकती। अतः मानव-शरीरवत् विराट् के दर्शन में विश्वात्मा का दर्शन भी सन्निहित है।
यह सूत्रधार विश्वात्मा इस समष्टि सृष्टि में रमा हुआ, इसकी प्रत्येक चेष्टा को चेष्टित करता हुआ, नाना-लोकरूपी इन्द्रियों का संचालन कर रहा है। प्रत्येक चेष्टा और गति में, प्रत्येक दृश्य और दर्शन में, प्रत्येक स्वर और गान में, प्रत्येक गीति और प्रगान में, प्रत्येक लय और तान में, प्रत्येक रस और सुगन्ध मंे सर्वत्र ब्रह्म की महिमा का अवलोकन करते हुए, ब्रह्मदृष्टि और ब्रह्मानुभूति का अभ्यास कीजिए। इस अभ्यास के पकने पर आपको ब्रह्मवृत्ति की सिद्धि प्राप्त हो जाएगी।

(विप्राः) मेधावी जन, योगी जन (मनः) मन को (युंजते) युक्त करते हैं (उत) और (धियः) धारणाओं को (युजते) युक्त करते हैं। 

वह (वयुन्-वित्) सब चेष्टाओं-गतियों का जानने वाला (एकः इत्) एक ही, अकेला ही (होत्रा) होत्रों, यज्ञों, लोक-लोकान्तरों को (वि दधे) धारण कर रहा है।

उस (बृहतः) महान् (विपश्चितः) ज्ञानी (विप्रस्य) मेधावी, बुद्ध (सवितुः देवस्य) सविता देव की (परि-स्तुतिः) अभिस्तुति, महिमा (मही) महती है।



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