गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

२. प्रभु देनेवाले का कल्याण करते हैं

स्वामी देवव्रत जी प्रधान सेनापति सा.आ.वी.दल 

यदंग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि। तवेत्तत सत्यमङ्गिरः।।

ऋग्वेद १।१।६।।

अर्थ- हे (अंङ्गिरः) समस्त ब्रह्माण्ड के अंग-अंग में व्यापक और प्राणों के भी प्राण (अंग) सबके मित्र (अग्ने) परमेश्वर (त्वम्) आप (यत्) जिस हेतु से (दाशुषे) सर्वस्व दान एवं आत्म- समर्पण करनेवाले उपासक के लिये (भद्रम्) कल्याणकारी सुख, ऐश्वर्य (करिष्यसि) प्रदान करते हैं (तव इत् तत्) वह आपका (सत्यम्) सत्य, अटलव्रत नियम है।

हे प्रभो ! आपने ही तो कहा है- ईशा वास्यमिदं सर्वं......त्यक्तेन भुजिंथाः (यजुर्वेद ४॰.१) सभी धन परमात्मा का है, अतः त्यागपूर्वक उसका उपभोग करो। आगे बतलाया है-

अग्निाना रयिमश्नवत् पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम्।। ऋ. १.¬१.३।।

परमेश्वर की उपासना और भौतिक अग्नि को विविध कला-यन्त्रों में प्रयोग कर सभी आध्यात्मिक एवं भौतिक ऐश्वर्यों की प्राप्ति करो, जो प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त होवें और तुम्हें यश एवं शूरवीरता को देनेवाल हों।

इसके अतिरिक्त-

स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयान्तां पावमानी द्विजानाम्।
आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसं मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्।। 
अथर्ववेद १९.७१.१

हे मनुष्यों ! मैंने जो सभी अभीष्ट सुखों को प्राप्त कराने वाली इस वेदवाणी का उपदेश दिया है, उसके प्रचार-प्रसार के लिये अपनी सारी आयु, बल, प्रजा, पशु, कीर्ति, धन, आत्मिक शक्ति सभी को लगा दो अर्थात् इन सबको मुझे समर्पित कर ब्रह्मलोक की प्राप्ति करो।

अंग हे प्रियतम ! आपकी इस आज्ञा को शिरोधार्य कर हमने अपना सर्वस्व आपके अर्पण कर दिया है। आप तो सब ऐश्वर्यों के स्वामी हैं सो हमारी यह तुच्छ भेंट आपकी प्रजा अर्थात् प्राणिमात्र के उपकार के लिये ही स्वीकार कीजिए। यह धन, सम्पत्ति, भवनादि हमारे थे ही कब ? ये सब तो आप के ही हैं। हमने आपके आदेश को शिराधार्य कर पुरुषार्थ द्वारा इन्हें एकत्रित मात्र कर लिया है।

मेरा मुझ में कुछ नहीं जो कुछ है सब तोय।
तेरा तुझको सौंपता क्या लागे है मोय।।

त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये। हे वेदवाणी के स्वामिन् ! यह सब ऐश्वर्य आपका ही है जिसे मैं आपकी प्रजा और जनहित के लिये समर्पित कर रहा हूँ। आप इसे स्वीकार कर मुझे अनुगृहीत कीजिए।

हे अग्ने ! सन्मार्ग प्रर्दशक भगवन् ! हमने सुना है कि जो तेरा उपासक तेरे दर्शन पाने के लिये अपना सर्वस्व लुटा देता है, उसे तुम मालामाल कर देते हो। यदंग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि देने वाले का तुम कल्याण करते हो, यह आपका अटल नियम है। जो तुम्हारी प्रजा के लिये भोजन, वस्त्र, अन्न, औषधालय, वापी, कूप, तड़ाग और विद्यालय खुलवाता है, उसे आप इस लोक और परलोक दोनों में सभी सुख साधनों को देते जाते हो। क्योंकि तुम्हें पता है कि अमुक व्यक्ति का धन परोपकारादि कार्यों में आपकी प्रजा के हितार्थ व्यय किया जा रहा है।

परन्तु यह तो प्रेयमार्ग है, जिसका फल परलोक में भोग लेने के पश्चात् इस लोक में फिर से जन्म लेना पड़ता है। यह तो सकाम कर्म या सौदागरी हुई प्रभा ! मुझे इस व्यवहार में रुचि नहीं है। अगले जन्म में कुछ अधिक साधन प्राप्त न कर आपके दर्शन लाभ करना है। योगदर्शन में महर्षि पतंजलि ने कहा है-अपरिग्रह स्थैर्येजन्मकथन्ता सम्बोधः (योदर्शनम् २.३९) अर्थात् अपरिग्रह की सिद्धि हो जाने पर पूर्व जन्मों का ज्ञान हो जाता है। हे भगवन् ! मुझे इतने जान लेने मात्र से ही सन्तोष नहीं है। मैं जिसके जान लेने पर अन्य वस्तु को जानने की इच्छा ही नहीं रहती, उस ज्ञान की आशा लगाये बैठा हूँ। जब सामान्य भौतिक पदार्थों का दान करनेवाले जन का आप कल्याण करते हो और यह आपका व्रत है तो मैंने-

अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में।
है जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों में।।

मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि तेरे दर पर झोली लेकर आये इस याचक को आप खाली हाथ नहीं लौटायेंगे और मेरी झोली को भर मेरी जन्म-जन्म की प्यास को मिटा देंगे।

हे प्रभो ! मैंने अपना सर्वस्व तुम्हारे अर्पण किया है। कुछ लौकिक सुख, सम्पत्ति, मान- सम्मान पाने के लिये नहीं। मुझे तो वह धन चाहिए जिसे पा लेने के पश्चात् और कुछ प्राप्त करने की इच्छा नहीं रहती। जिसके सामने संसार के सारे वैभव हेय लगते हैं।

मोती मिला है मुझको मानस के मानसर में।
कंकर बटोरने की क्यों कामना करूँ मैं।।

वेद-स्वाध्याय से साभार 
लेखक-स्वामी देवव्रत जी 
प्रधान सेनापति 
सा.आ.वी.दल 

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