मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

अन्तर्यात्रा (भाग १) मैं कौन हूँ ?


आचार्य सत्यजित् जी 
ऋषि उद्यान, अजमेर

अन्तर्मुखी बनेंगे.................।

ओ ऽ ऽ ऽ ऽ म् ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ओ ऽ ऽ ऽ ऽ म् ऽ ऽ ऽ ऽ 

इस कक्षा का नाम है अन्तर्यात्रा।

साधक व्यक्ति जहां ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना करता है, ध्यान के काल में एकाग्र होता है, वहां ईश्वर के स्मरण प्रार्थना के अतिरिक्त और भी बहुत सी बातें करनी होती हैं। कुछ मूलभूत परीक्षण और निरीक्षण करने आवश्यक होते हैं। उन निरीक्षणों, परीक्षणों को करके निर्णय निकालने भी आवश्यक होते हैं। ये अध्यात्म का मार्ग केवल ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना पर अधिक लम्बा नहीं चल पाता है। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना अध्यात्म का अत्यावश्यक अंग है, इसके बिना भी गति नहीं है, किन्तु केवल ईश्वर की स्तुति और प्रार्थना करने में भी गति नहीं है। बहुत से साधक-साधिकायें आपको मिलेंगे, आप में से भी हो सकते हैं। अपने-अपने अनुभव होते हैं। सतत् परमात्मा का स्मरण ओ३म् का जप, मन्त्र का उच्चारण, अर्थ की भावना, अच्छी बाते हैं, बहुत अच्छी बाते हैं। उनको करने से बहुत परिवर्तन आता है, अच्छी प्रगति होती है, किन्तु योग-साधना को सर्वांगीण रूप से सम्पन्न करने के लिये, और पूरी ऊँचाईयों तक पहुंचने के लिए, कुछ और बातों का भी विचार, चिन्तन-मनन करना आवश्यक होता है। और ये प्रक्रियायें भी जब गम्भीर स्तर पर की जाती हैं तो वो बैठ करके ध्यान जैसी स्थिति में ही की जाती है। जिन स्थितियों में हम ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना करते हैं उन्हीं स्थितियों को बनाकर के, आसन लगाकर के, प्रत्याहार बनाकर के धारणा लगाकर के, फिर ये क्रियायें की जाती हैं। यदि इन क्रियाओं को न करके अथवा बहुत कम करके, मात्र सुनकर के और स्वीकार करके, अध्यात्म में कोई चलेगा तो अधिक नहीं चल पाता है। बहुत सारी बातें हमने सुनली हैं, एक स्तर पर विचार भी ली हैं, एक स्तर पर निर्णय भी किये हैं, किन्तु ध्यानावस्थित होकर के उन पर गम्भीरता से, सूक्ष्मता से विचार करना और अपने साथ में जोड़ना उसमें मेरी स्थिति क्या स्थिति है ? ये सब आन्तरिक जगत् के कार्य हैं। यही अन्तर्यात्रा है।

जिस प्रकार से संसार की वस्तुओं को देखने के लिए हम यात्रा करते हैं, घूमते हैं, हमारा परिचय होता है, यहां से, वहां से, और उससे कुछ सीख निकलती है हममें, कुछ अनुभव बनता है, इसी प्रकार से अपने मन को देखने के लिए, अन्दर यात्रा करनी होती है। आध्यात्मिक प्रगति के लिए कुछ आवश्यक अभ्यासों को, बिन्दुओं को इस अन्तर्यात्रा में आपको बताया जायेगा और करवाया जायेगा।

आज एक मूलभूत विषय, प्रारम्भिक विषय, आपके सामने रख रहा हूँ। सामान्य सा प्रश्न है कि मैं कौन हूँ ? बहुत सामान्य प्रश्न है। सांसारिक व्यक्ति से भी पूछें तो वो कुछ बतायेगा मैं ये हूँ, बच्चे से पूछें आप कौन हैं ? वो भी बतायेगा मैं ये हूँ। अध्यात्म में आने के बाद में हम सुनते हैं बहुत कुछ कि मैं कौन हूँ ? सांसारिक अवस्था में जिसको मैं मानते थे, आध्यात्मिक अवस्था में वो ‘मैं’ बदल जाता है। मैं आखिर हूँ कौन ? मैं ये शरीर हूँ अथवा आत्मा हूँ ? ये घर-परिवार मैं हूँ अथवा धन-सम्पत्ति, यश, पद-प्रतिष्ठा मैं हूँ ? ये राष्ट्र, ये धर्म, ये सम्प्रदाय, ये मान्यतायें मैं हूँ ? अथवा इनसे भिन्न कुछ मैं हूँ ? आपमें से अधिकांश ये स्वीकारते होंगे कि मैं ये शरीर नहीं हूँ, आत्मा हूँ। अध्यात्म में इसमें क्यों बल दिया जाता है, ये समझो कि मैं कौन हूँ ? और इस मैं कौन का जानना इतना महत्त्वपूर्ण है कि इसका ठीक ज्ञान सम्प्रज्ञात समाधि की अन्तिम अवस्था में होता है। सम्प्रज्ञात के भिन्न-भिन्न स्तरों में अन्त में आत्मा का प्रत्यक्ष होता है। 

आखिर मैं कौन हूँ ? ये मैं कौन हूँ जानना बिल्कुल ठीक-ठीक ये सामान्य बात नहीं है। सामान्यतया हम समझते हैं कि मैं कौन हूँ, जिसे मैं कौन हूँ का बोध हो गया, उसका आध्यात्मिक मार्ग कैसा हो जाता है, उसकी मानसिक स्थिति कैसी हो जाती है, वो कुछ अन्तर आना चाहिए। जो व्यक्ति शरीर को मैं समझता है उसका व्यवहार क्या होगा, और जो आत्मा को मैं समझता है उसका व्यवहार क्या होगा ? पहला ध्यान के समय का अभ्यास अभी ये करना है हम स्वयं विचारने लगें कि मैं कौन हूँ ? यदि मैं शरीर नहीं हूँ तो शरीर क्यों नहीं हूँ मैं ? यदि मैं मन नहीं हूँ तो क्यों नहीं हूँ मैं मन ? मैं बुद्धि नहीं हूँ तो क्यों नहीं हूँ बुद्धि ? और चेतन आत्मा हूँ तो वही हूँ मैं। 

बचपन से लेकर अब तक शरीर की विभिन्न अवस्थाओं को हम अनुभव करते हैं। शरीर की अवस्थायें भिन्न-भिन्न हैं हमें खूब आभास है कि मैं पहले ऐसा था, अब ऐसा हूँ। लेकिन इन सब अनुभूतियों के साथ जो मैं पने की अनुभूति है, वो बदलती है या वही रहती है ? बचपन से लेके अबतक मैं बहुत परिवर्तित हो गया हूँ, शरीर की दृष्टि से ये हमें पता लगता है। किन्तु अन्दर आत्मा के स्तर पे क्या अनुभव होता है, बचपन में कोई और आत्मा थी वो परिवर्तित होके कुछ और बन गई है ? अथवा वही है ? जिस समय मैं रुग्ण हूँ, शरीर परिवर्तित है अब अवस्था बदल गई है। लेकिन तब भी एक आभास है मैं यह हूँ। और जब स्वस्थ थे तब भी शरीर की एक स्थिति थी, तब भी अनुभव करते थे मैं यह हूँ। इन स्थितियों में जो मैं पने की अनुभूति है, उसमें क्या अन्तर आता है ? 

ये हो सकता है कि मैं दुःखी हूँ और मैं सुखी हूँ ये अन्तर हमें दिखाई देता है। और हम सुखी-दुःखी होते भी हैं। जो मैं सुखी या जो मैं दुःखी था या हूँ वो मैं भिन्न-भिन्न हैं या वही हैं ? जो सुखी था वही मैं अब दुःखी हूँ अथवा मैं कोई भिन्न हो गया हूँ ? कोई मैं भिन्न हूँ ? बाल्यावस्था में जो मैं था वही आज मैं हूँ अथवा कुछ भिन्न हूँ ? इन पे हमें विचार करना है। 

स्वयं अपना निरीक्षण करना है और फिर ये देखना है कि मैं संसार का व्यवहार करते हुए, किसको मैं मानकर के चल रहा होता हूँ ? मैं शब्द का उच्चारण करते हुए मन में मैं का क्या स्वरूप आता है ? आत्मा को मानते हुए या शरीर को मानते हुए ? जब हम शरीर को मैं मानके चलते हैं तो हम शरीर के लिए हितकारी कार्य करते हैं। शरीर के लिए अहितकर कार्य नहीं करते, जिससे शरीर को सुख-सुविधा हो उसे पाने का उसे रखने का सम्भालने का कार्य करते हैं। जब हम आत्मा को मैं मानते हैं, जो आत्मा को मैं मानते हैं वो भी शरीर का ध्यान रखते हैं। शरीर की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखते हैं। रुग्ण होने पर उपचार वो भी कराते हैं, प्यास लगने पर पानी वो भी पीते हैं, भोजन वो भी करते हैं, किन्तु फिर भी व्यवहारों में अन्तर होता है। जो केवल शरीर को मैं मानता है, वो ये ध्यान नहीं रखता है कि इस तरह के कर्म से, इस तरह की कमाई से, इस तरह के व्यवहार सं, शरीर को भले ही अनुकूलता मिल रही है, सुख मिल रहा है, लेकिन ये आत्मा के लिए हितकर है या नहीं है ? वो कुछ भी विचार नहीं करते।

जो आत्मा को मैं मानते हैं और शरीर को साधन मानते हैं, वो भी शरीर के लिए प्रयत्न करते है, किन्तु वो ये ध्यान रखते हैं कि शरीर की रक्षा के लिए, शरीर की अनुकूलता, सुख-सुविधा के लिए किया गया ये कार्य है। आत्मा के लिए अर्थात् मेरे लिए हितकर है या नहीं ? शरीर के लिए जो सुख-सुविधायें चाहियें वो धर्मपूर्वक भी कमाई जा सकती है, अधर्मपूर्वक भी सम्पादित की जा सकती हैं। किसी भी तरह से कमायें शरीर के लिए तो वो समान अनुकूलता सुख प्रदान करते हैं। 

जो आत्मा को मैं मानता है वहाँ वो ऐसे कर्म नहीं करता जो शरीर के लिए तो अनुकूल हों लेकिन आत्मा के लिए प्रतिकूल हों हानिकारक हों। वो ऐसे कर्म करता है जो शरीर के लिए भी अनुकूल हो और आत्मा के लिए भी अनुकूल हों। यदि कभी ऐसी स्थिति बनती है जहाँ एक ही की अनुकूलता है, एक ही का हित होता है, आत्मा का या शरीर का और उसी उपाय को उसे अपनाना भी है दो में से किसी एक को, तो जो आत्मा को मैं मानता है वो शरीर को हानि पहुँचाने वाले किन्तु आत्मा के लिए हितकर या आत्मा को जिससे हानि न हो ऐसे काम को भले ही कर लेगा, लेकिन जो शरीर को मैं मानता है वो इस बात की चिन्ता नहीं करेगा कि इस से आत्मा को हानि होती है वो केवल इस आधार पर निर्णय लेगा कि इस से शरीर को अनुकूलता और सुख मिल रहा है। शरीर की जिससे हानि होती हो, वो कभी नहीं करेगा। लेकिन जो आत्मा को मैं मानता है वो कुछ कर्म ऐसे करते हुए दिख सकता है जिससे शरीर को भले ही हानि हो रही हो लेकिन आत्मा का बहुत बड़ा हित हो रहा है।

इस गर्मी को तो कोई पसन्द नहीं करेगा। जो केवल शरीर को मैं मानता है वो गर्मी को अनुकूल नहीं समझेगा। लेकिन जो आत्मा को मैं मानता है वो आत्मा के हित के कार्य में शरीर की इस विपरीत स्थिति को भी प्रसन्नता से सहन कर लेगा। ऐसा प्रायः हम करते रहते हैं। 

लेकिन क्या हम प्रत्येक कर्म के समय में इस मैं को यानि आत्मा को ध्यान रखते हुए कर्म करते हैं ? ये साधक के लिए जानना, समझना, देखना और उसमें सुधार करना बहुत आवश्यक है, नही ंतो बहुत सी बाह्य आध्यात्मिक क्रियाओं को करते हुए भी व्यवहार में उसके निर्णय गलत होते रहेंगे। हर व्यक्ति, हर प्राणी, हर आत्मा अपने हित के लिए ही कार्य करता है। अपने अहित के लिए कभी नहीं करता। लेकिन जो आत्मा के अहित के लिए कार्य करता है, भले ही शरीर का हित हो रहा हो उसका सीधा सा अर्थ ये है मै को नहीं समझ पाया है कि मैं कौन हूँ ? जिस दिन उसको ये समझ में आ जाये कि मैं यानि मैं चेतन आत्मा उस दिन वो आत्मा के लिए हानिकारक कर्म कर ही नहीं सकता, कभी नहीं करेगा, क्योंकि कोई भी आत्मा, कोई भी प्राणी अपने अहित के लिए, अपनी हानि के लिए करता ही नहीं है। उसका स्वभाव ही नहीं है। वो सदा अपने हित के लिए ही कार्य करता है। सांसारिक व्यक्ति अधार्मिक व्यक्ति, लौकिक व्यक्ति जब अपने लिए काम करता है वो अपने शरीर और जड़ वस्तुओं के लिए कार्य कर रहा होता है। क्योंकि उन्हीं को वो अपना मैं समझता है। और आध्यात्मि व्यक्ति भी अपने लिए काम करता है, परोपकार करता हुआ भी वो अपने लिए कार्य करता है। वो धन को खर्च करता हुआ, समय को खर्च करता हुआ, दूसरे शब्दों में कहें तो धन की हानि करता हुआ, समय की हानि करता हुआ, श्रम की हानि करता हुआ भी उसे कर रहा होता है। अर्थात् वो इसको मैं नहीं मानता और किसी चीज को मैं मैं मान रहा है वो है आत्मा।

तो आज की अन्तर्यात्रा में १॰ मिनट के लिए आपको बैठना है। प्रथम बिन्दु ये देखना है पाँच मिनट मैं कौन हूँ ? भले ही अब तक कितना ही समझा है, सीखा है, सुना है फिर भी देखना है थोड़ा। मैं कौन हूँ ? और अगले पाँच मिनट में ये देखना है कि मेरा जो आजकल जीवन चल रहा है। शिविर से पहले उसमें उन व्यवहारों में मैं स्वयं को क्या मानते हुए कर्म कर रहा था ? आत्मा को मानते हुए या शरीर को मैं मानते हुए ? ये अपने-अपने कुछ कर्मों का, मुख्य-मुख्य घटनाओं का परीक्षण करना है। कुछ घटनाओं को जिसकी जो इच्छा हो वो ले लीजियेगा। ये भी देख सकते हैं कि मेरे एक वर्ष में दो वर्ष में बचपन से लेके अबतक कुल मिलाकर के मैंने अपने लिए काम किया है लेकिन उस समय मैं कौन था ? किसको मैं मानकर मैंने काम किया है ? और अब मैं साधक बन रहा हूँ या गम्भीर साधना में जा रहा हूँ तो मुझे किसको मैं मानकर काम करना है ? और आत्मा को मैं मानकर करूंगा तो आजकल जो कार्य कर रहा हूँ उसमें कहाँ-कहाँ परिवर्तन हो जायेगा ? १॰ मिनट का समय बहुत कम है, एक केवल अनुभव आपको यहाँ पर मिलेगा। बाकी ये कार्य आपको जब भी समय मिले वहाँ कर सकते हैं या घर में जाकर के जब आपको समय मिले एकान्त वास हो वहाँ इन कार्यों को करेंगे।

तो सीधे बैठ जाइये, नेत्रों को बन्द कर लें, आसन की स्थिति सम्यक् कर लें, मन को धारणा स्थल पर लगालें। प्रारम्भ करें मैं कौन हूँ ?............................................केवल एक बिन्दु पर चिन्तन-ध्यान मैं कौन हूँ ? ....................................................अपने ज्ञान की स्थिति को देखें, क्या मैं ये निर्णय कर चुका हूँ ? मैं कौन हूँ ? अथवा विचारणीय बिन्दु अभी भी बना हुआ है ? मैं कौन हूँ ? वर्षों के अध्ययन के बाद, स्वाध्याय के बाद, क्या अभी भी ये विचारणीय बिन्दु है, मैं कौन हूँ ? अथवा सब स्पष्ट हो चुका है कि मैं कौन हूँ ? ...................................................।

अब आगे विचार करें अपने व्यवहारों को स्मृति में लायें, जिस समय मैं ‘मैं’ का व्यवहार कर रहा होता हूँ ? व्यवहार-काल में किसे ‘मैं’ मान रहा होता हूँ ? मेरे व्यवहार किस ओेर संकेत हैं.........कि यह साधक किसे मैं मान रहा है ?.............................................। अपने किसी एक या कुछ व्यवहारों को ध्यान से देखें, स्मरण में लाके..............................। अब कुछ देर के लिए ये परिदृश्य मन में लायें परिकल्पना करें, जिस समय में मैं स्वयं को चेतन, नित्य, निराकार, एकदेशी आत्मा मानकर चलूँगा, तब मेरा व्यवहार कैसा होगा ? ......................................। स्वयं को निराकार चेतन मानते हुए उन्हीं व्यवहारों में रखकर के देखने का प्रयास करें।...........................। इन पिछले व्यवहारों में आत्मा को मैं मानकर यदि मैं चलूं................। फिर से मैं उन व्यवहारों में प्रवेश कर रहा हूँ.........................। आत्मा को मैं मानते हुए........................। तो अब कैसा व्यवहार होगा...............................?

अब रुकेंगे। नेत्रों को अभी बन्द रखेंगे। दिन में शिविर-काल में भी कार्यों को करते हुए बीच-बीच में देखें कि यह क्रिया करते समय मैं अपना क्या स्वरूप मानकर इसे कर रहा हूँ ? और समय मिलने पर अपना निरीक्षण करते रहें। अब परमात्मा का स्मरण करते हुए इस कक्षा को समाप्त करेंगे।

ओ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ म् ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ 

दृष्टि नीची रखते हुए मौन रखते हुए यहाँ से प्रस्थान करेंगे। जिनका सेवा का कार्य है, भोजन वितरण का वो भी वहाँ पहुँचेंगे और इन्हीं भावनाओं को रखते हुए कार्य करेंगे। जिन माताओं, बहनों का फल या ककड़ी आदि काटने  का कार्य है वे भी वहाँ पर पहुँचेंगे।

                                                                        ओम् शम्

3 टिप्‍पणियां:

  1. आचार्य जी को शत-शत नमन ,बहुत सुन्दर शब्दों द्वारा समझाया आपने ,

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  2. नमस्ते श्री॰ नन्दकिशोर आर्य जी, आप ने इसे शब्दों में लिखा इसलिये आप का बहुत धन्यवाद.... कॄपया इसकी ध्वनि मुद्रित MP3 हो तो कृपया लिंक भेजिये । धन्यवाद ...

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  3. http://www.paropkarinisabha.com/cms.php?cat_id=835&cat_parent_id=833

    इस लिंक पर जाकर मिडिया फायर को क्लिक करें

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