बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

पवित्रता-भाग दो

स्वामी विद्यानंद जी 'विदेह'
पवित्रता का महत्त्व प्रत्यक्ष है। शुद्धता की महिमा अकथनीय है। पवित्रता और शुद्धता का बड़ा माहात्म्य है। शुद्धता में सौन्दर्य है, रोचकता है, सुरुचि है। पवित्रता में अद्भुत आकर्षण  है। शुद्धता मनमोहिनी है। पवित्रता परम मोहिका है। शुद्धता परम श्रद्धास्पद है। शुद्धता में स्फुरण है, पवित्रता में प्रस्फुरण है। शुद्धता में, पवित्रता में चरम माधुर्य है और परम प्रियता है। शुद्ध गेह, शुद्ध देह, शुद्ध नगर, शुद्ध ग्राम, शुद्ध वस्त्र, शुद्ध आभूषण, सब बडे़ प्रिय और दर्शनीय प्रतीत होते हैं। सब, जो शुद्ध है, मनोरम है।

शुद्धता में ही रूपख्याति है। शुद्ध जल में, पवित्र दर्पण में, निर्मल घृत में ही स्व, पर रूप की प्रतीति होती है। पवित्र अन्तःकरण में ही आत्मसाक्षात्कार होता है। पवित्र अन्तःकरण में ही ब्रह्मानुभूति होती है।

पवित्रता ही धर्म है। पवित्रता ही मर्म है। विचारों की पवित्रता का ही नाम अहिंसा है। वाणी की पवित्रता का ही नाम सत्य है। भावनाओं की पवित्रता का ही नाम अस्तेय है। जननेन्द्रिय की पवित्रता का ही नाम ब्रह्मचर्य है। परिग्रह की पवित्रता का ही नाम अपरिग्रह है। देह की पवित्रता का ही नाम शौच है। वृत्तियों की पवित्रता को ही तप कहते हैं। अध्ययन की पवित्रता ही स्वाध्याय है। सत्त्व की पवित्रता ही ईश्वर-प्रणिधान है। पवित्रता ही यम है। पवित्रता ही नियम है। स्थिति {बैठने} की पवित्रता ही आसन है। प्राण की पवित्रता ही प्राणायाम है। मन की पवित्रता ही प्रत्याहार है। चिन्तन की पवित्रता ही धारणा है। मनन की पवित्रता ही ध्यान है। अन्तःकरण की पवित्रता ही समाधि है। पवित्रता ही अष्टांग योग है। चक्रों की पवित्रता ही का चक्रजागरण है।

पवित्रता में ही सर्वसम्पादन है। पवित्रता में ही सब ऋद्धियां और सिद्धियां निहित हैं। अतः तीव्रता के साथ, पूर्ण तत्परता के साथ पवित्रता की सतत साधना करते रहिए। शिर, भाल, भौं, नेत्र, कर्ण, नासिका, मुख, रसना, होठ, हनू, ग्रीवा, हस्त, स्कन्ध, वक्ष, पृष्ठ, जाठर, नितम्ब, मूल-मलेन्द्रिय, जंघा, पाद, सबको परम पवित्र बनाइए और सदा पवित्र रखिए। मेधा, बुद्धि, हृदय, मन और चित्त को परम पवित्र कीजिए और सदा पवित्र रखिए। पवित्रता के सम्पादन से योगसिद्धि सहजतया उपलब्ध हो जाती है। पूर्ण पवित्रता के बिना योग-सिद्धि असम्भव है। पवित्रता ही प्रजा है। पवित्रता ही योग है।

देव जनों, दिव्य जनों की संगति से जीवन की पवित्रता सम्पादन कीजिए। मननशीलों की संगति से बुद्धि और ध्यान की पवित्रता प्राप्त कीजिए। सब पंच भूतों की संगति से प्रकृति- विहार द्वारा पवित्रता लाभ कीजिए। पवमान {पवित्र भगवान्} की संगति से पवित्रता संचारित कीजिए। अन्दर बाहर से उभयतः, सर्वथा शुद्ध, पवित्र हो जाइए।

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