रविवार, 5 अगस्त 2012

प्राणायाम का लाभ

स्वामी दयानन्द जी सरस्वती
सत्यार्थ प्रकाश तृतीय समुल्लास
प्रथम संस्करण

स्वामी दयानन्द जी का
वास्तविक चित्र
१८ अगस्त १८७७ को
 गुरुदासपुर (पंजाब ) में लिया गया 

योगशास्त्र की रीति से प्राणों के और इन्द्रियों के जीतने के लिये उपाय का उपदेश करैं सो यह योगशास्त्र 1.34 का सूत्र है-
प्रच्छर्द्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य।
इसका यह अर्थ है कि छर्द्दन नाम वमन का है जैसे कि मक्खी वा और कुछ पदार्थ खाने में उदर से मुख द्वारा अन्न बाहर निकल जाता है और प्रकृष्टंच तच्छर्द्दनंच प्रच्छर्द्दनम् अत्यन्त जो बल से वमन का होना उसका नाम प्रच्छर्द्दन है।। विधारणं नाम विरुद्धंच तद्धारणंच विधारणम्। जैसे कि उस अन्न का धारण पृथिवी में होता है उसको देख के घृणा होती है तो ग्रहण की इच्छा कैसे होगी, कभी न होगी। यह दृष्टान्त हुआ। परन्तु दार्ष्टान्त इसका यह है कि नाभि के नीचे अर्थात् मूलेन्द्रिय से लेके धैर्य से अपानवायु को नाभि में ले आना, नाभि से अपान को और समान को हृदय में ले आना, हृदय में दोनों वे और तीसरा प्राण इन तीनों को बल से नासिका द्वार से बाहर आकाश में फेंक देना अर्थात् जो वायु कुछ नासिका द्वार से निकलता है और भीतर जाता है उन सबका नाम प्राण है। उसको मूलेन्द्रिय, नाभि और उदर को ऊपर उठाले तब तक वायु न निकले, पीछे हृदय में इकट्ठा करके जैसे कि वमन में अन्न बाहर फेंका जाता है, वैसे सब भीतर के वायु को बाहर फेंक दे। फिर उसको ग्रहण न करै, जितना सामर्थ्य होय, तब तक बाहर की वायु को रोक रक्खै। जब चित्त में कुछ क्लेश होय, तब बाहर से वायु को धीरे-धीरे भीतर ले जाय, फिर उसको वैसा ही वारम्वार 20 वार भी करेगा तो उसका प्राण वायु स्थिर हो जायगा और उसके साथ चित्त भी स्थिर होगा। बुद्धि और ज्ञान बढे़गा। बुद्धि इस प्रकार तीव्र होगी कि बहुत कठिन विषय को भी शीघ्र जान लेगी। शरीर में भी बल पराक्रम होगा और वीर्य भी स्थिर होगा तथा जितेन्द्रियता होगी। सब शास्त्रों को बहुत थोड़े काल में पढ़ लेगा। इससे यह दोनों उपदेशों को यथावत् अपने सन्तानों को कर दे।

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