सोमवार, 6 अगस्त 2012

थोड़ा सा बच के


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...............

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर 

आचार्य सत्यजित् जी
प्रभुकृपा से जीवन अच्छा चल रहा है। भौतिक सुख-सुविधायें ठीक-ठीक हैं, परिश्रम कर रहे हैं, आवश्यकताओं की पूर्ति हो रही है, यह एक सन्तोष की बात है। जीवन केवल भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए नहीं चल रहा है, उसमें परोपकार-सेवा भी है, दया-प्रेम भी है, सत्संग-स्वाध्याय भी है यह और भी बड़े सन्तोष की बात है। भौतिक सुख-सुविधाओं के साथ यदि परोपकारादि गुण न हों, तो जीवन एकांगी व नीरस रहता है। इसमें बाह्यसुख तो संतोष जनक मिल जाते हैं, किन्तु आंतरिक सुख नहीं मिल पाता है। भौतिक सुख-सुविधाओं के रहते जब परोपकारादि भी किए जाते हैं तब आन्तरिक सुख भी मिलता रहता है।
प्रभुकृपा से बाह्य व आन्तरिक सुख युक्त जीवन चलाते हुए हम प्रायः सन्तुष्ट भी रहते हैं। जिनमें कुछ और अधिक सात्विकता उभरती है वे ईश्वर विश्वास भी साथ में रखते हैं। उनके जीवन में ईश्वर-समर्पण का भाव उभर आता है वे भौतिक सुख-सुविधाओं से थोड़ा बच कर चलते हैं। अपने लिए भौतिक सुख-सुविधाओं को पाना उनके लिए मुख्य नहीं रहता। वे जीवन को परोपकार, सेवा आदि में अधिक लगा देते हैं। यह बड़ी ही सन्तोष जनक स्थिति होती है। व्यक्ति स्वयं भी अपने आप से पर्याप्त सन्तुष्ट रहता है, अन्य भी उसे प्रेरणादायी मानते हैं, उसकी प्रशंसा करते हैं। वर्षों तक ऐसा त्यागयुक्त अच्छा जीवन जीते जाने वाले बहुत व्यक्ति हैं।
प्रभुकृपा से ऐसा अच्छा जीवन जीते हुए भी जिन व्यक्तियों के बीच हम कार्यरत होते हैं, जिनके साथ रहते हैं, जिन के साथ खाते-पीते हैं, उठते-बैठते हैं, उनसे धीरे-धीरे थोड़े राग-द्वेष बनने लग जाते हैं। जिस संस्था या साधनों में रहते हुए ऐसा अच्छा जीवन जी रहे होते हैं, उस संस्था व साधनों से धीरे-धीरे थोड़ा राग-लगाव बनने लगता है। यह थोड़ा सा राग या थोड़ा सा द्वेष आरम्भ में पता तक नहीं चलता। परोपकार से व दया-प्रेम, सत्संग-स्वाध्याय आदि के कारण अपना जीवन इतना अच्छा लगता है कि जीवन में किसी दोष-कमी की संभावना तक नहीं दीखती।
परोपकारादि के आन्तरिक सुख से सन्तुष्ट-तृप्त हुए हम उस में बढ़-चढ़ कर लगे रहते हैं। तन-मन-धन से उसमें लगे रहते हैं, खूब परिश्रम करते हैं। हमें यह आभास ही नहीं होता कि इसके साथ कुछ छोटे-मोटे राग-द्वेष जुड़ते चले जा रहे हैं। जैसे भौतिक सुख-साधनों को प्राप्त करने में लगे व जुटे व्यक्ति को परोपकार, सेवा, सत्संग-स्वाध्याय आदि नहीं सूझते, उसके पास इन सब को सोचने के लिए समय ही नहीं होता। बस भौतिक सुख-सुविधाओं में मस्त रहते हुए जैसा जीवन चल रहा है, वह चलता चला जाता है। इसी प्रकार भौतिक सुख-सुविधाओं से थोड़ा बच कर परोपकार-ईश्वरविश्वास से युक्त जीवन जीते हुए भी हम उस में ऐसे लगे-जुटे रहते हैं कि अपने में पनप रहे राग-द्वेष को देख-जान-समझे ही नहीं पाते। जीवन में जुड़ते-बढ़ते जा रहे राग-द्वेष के बारे में सोचने का समय तक हमारे पास नहीं होता। बस, परोपकार-सेवा आदि से प्राप्त आन्तरिक सुख व यश-प्रशंसा में मस्त रहते हुए जैसा जीवन चल रहा है वैसा ही चलता चला जाता है।
प्रभु की अत्यधिक कृपा है उन पर, बड़े सौभाग्यशाली हैं वे, जो इन परोपकारादि उत्तम कार्यों को करते हुए यह विचारने का समय भी निकाल लेते हैं कि मैं थोड़ा-थोड़ा कहीं राग-द्वेष से युक्त तो नहीं हो रहा हूँ। अपने राग-द्वेष को जानकर, उनसे बच जाते हैं व उच्च आध्यात्मिक जीवन जीते हुए परोपकारादि शुभ कर्मों में लगे रहते हैं। शुभ कर्मों को करते-करते  भी सावधानी से थोड़ा बच के चलते रहना होता है, नहीं तो ये थोड़े-थोडे़ राग-द्वेष आगे चल कर इतने अच्छे जीवन को पतित कर डालते हैं।
प्रभुकृपा से हम थोड़ी सी सावधानी-सजगता बनाये रखें, थोड़ा से बचते-बचते चलें तो दीर्घ परोपकारी जीवन के अन्त में अपने जीवन को सार्थक देख पायेंगे। जीवन की सन्ध्या में हमें अपने से कोई शिकायत नहीं रहेगी, अपने से कोई ग्लानि-असन्तुष्टि नहीं रहेगी। हमारा जीवन भर रहा धर्म व ईश्वर पर विश्वास डगमगायेगा नहीं, उसमें अविश्वास-शिथिलता नहीं आयेगी। पूर्ण सन्तोष, पूर्ण आत्मविश्वास, पूर्ण निभर्यता, पूर्ण उत्साह, पूर्ण तृप्ति के साथ रहते हुए अन्यों को भी इसी मार्ग चलने की अधिकाधिक प्रेरणा करते हुए, अपने पर प्रभु की पूर्ण कृपा होने की सन्तुष्टि रख पायेंगे। अतः थोड़ा सा बचके।

2 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्ते जी, धन्यवाद। आप इसे पुनः लिखते हैं या लिखे हुए को डाल देते हैं?

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. नमस्ते जी ,
      पुनः लिखकर ब्लॉग में प्रकाशित करता हूँ
      मेरा विचार जिज्ञासा समाधान के लिए एक ब्लॉग बनाने का है

      हटाएं