गुरुवार, 30 अगस्त 2012

कहीं देर न हो जाये


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...............

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर 

प्रभुकृपा से हमें भोग भोगने व कर्म करने का अवसर मिला है। दुर्लभ मानव शरीर में आकर हम विविध भोगों को बार-बार भोग सकते हैं, भोगते रहते हैं। इसी मानव शरीर में हम विविध अच्छे-बुरे कर्मों को बार-बार कर सकते हैं, करते रहते हैं। हमारे सामने भोग भी बहुत हैं व करने योग्य कर्म भी बहुत हैं। जब तक धन-सम्पत्ति, भोग्य पदार्थ व शरीर में भोगने की सामर्थ्य है, तब तक हम भोगों को भोगते रहते हैं, भोगते जाते हैं। जब तक शक्ति-सामर्थ्य है, अवसर है, तब तक हम कर्मों को करते चले जाते हैं।
प्रभुकृपा से प्राप्त भोग व कर्म का अवसर न्यूनाधिक हम सबके पास है। हम अपनी- अपनी परिस्थिति इच्छा आदि के अनुसार न्यूनाधिक भोग व कर्म करते ही रहते हैं। भोग व कर्म का अवसर, सुविधा व सामर्थ्य जिन मनुष्यों में लगभग समान होता है, उनमें भी भोग व कर्म की पर्याप्त भिन्नता देखी जाती है। बहुत से भोग व कर्म हमारे असमान होते हैं। कोई भोगों की ओर बहुत अधिक झुका रहता है, कर्म में प्रवृत्ति कम रखता है। कोई कर्म की ओर अधिक झुका रहता है, भोग में प्रवृत्ति कम रखता है।
अपनी-अपनी समझ से, अपने-अपने ज्ञान के अनुसार और अपने आस-पास के लोगों की देखा-देखी व प्रेरणा से हम अपने भोगों व कर्मों का निर्धारण करते रहते हैं। भोगों व कर्मों को चुनने में हम अपनी सामर्थ्य आदि के अनुसार कुछ स्वतन्त्र व कुछ परतन्त्र रहते हैं। अपनी शक्ति-सामर्थ्य-परिस्थिति में सीमित-परतन्त्र रहते हुए भी हम भोग व कर्मों को चुनने में पर्याप्त स्वतन्त्र रहते हैं, रह सकते हैं। हम चाहें तो भोगें व न चाहें तो न भोगें, कम चाहें तो कम भोगें व अधिक चाहें तो अधिक भोगें। हम चाहें तो कर्म करें व न चाहें तो न करें, कम चाहें तो कम करें व अधिक चाहें तो अधिक करें।
प्रभुकृपा से हम सभी में यह सामर्थ्य है कि हम अपने भोगों व कर्मों की मात्रा-स्वरूप- प्रयोजन को इच्छानुसार पर्याप्त मात्रा में बदल सकते हैं। आध्यात्मिक व्यक्ति अपने इस मानव जीवन के प्रयोजन को समझ चुका होता है, वह अपने लक्ष्य का निर्धारण कर चुका होता है। उसके सामान्य व्यक्ति वाले प्रयोजन व लक्ष्य नहीं होते। उसकी दृष्टि बदल चुकी होती है। परिणाम स्वरूप वह भोगों  को भोगने व कर्मों को करने में अन्यों से भिन्न दिखाई देता है। ऐसे उच्च आध्यात्मिक मनुष्य निर्बाध रूप से व तीव्रता से आध्यात्मिक प्रगति करते चले जाते हैं।
प्रभुकृपा से जिन्होंने अभी-अभी अध्यात्म को समझना आरम्भ किया है, अभी-अभी समझा है, कुछ माह व कुछ वर्षों से ही इस ओर प्रवृत्त हुए हैं, उनको अपनी इस प्रवृत्ति पर सन्तोष होता है, यह सन्तोष की बात है भी, एक सीमा तक इसमें सन्तोष होना भी चाहिए। किन्तु अभी पहले के भोग व कर्मों के संस्कार भी हमारे साथ हैं, उनके अनुसार हमारा स्वभाव बना हुआ है, अतः हम थोड़ा-बहुत अध्यात्म का चिंतन व आचरण करते हुए भी बहुत सा चिंतन व आचरण सामान्य मनुष्यवत् करते रहते हैं। हमें अपना वह थोड़ा सा आध्यात्मिक प्रयत्न भी पर्याप्त दिखाई देता है, अन्य तो इतना भी नहीं कर रहे हैं, मैं तो उनसे बहुत ठीक हूँ, अभी पर्याप्त जीवन बचा है, धीरे-धीरे और अधिक आध्यात्मिक प्रयत्न करुंगा, अभी तो ये-ये उत्तरदायित्व पूरे करने हैं, ये-ये इच्छाएं पूरी करनी है..........।
अध्यात्म को समझने वाले, अध्यात्म में प्रविष्ट व्यक्ति का जीवन भी बहुत बार इसी शैली से चलता-चला जाता है। भविष्य में उसे विशेष आध्यात्मिक प्रयत्न का अवसर मिल पाता है या नहीं, यह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है। हो सकता है आगे मेरा स्वास्थ्य या अन्य परिस्थितियां आध्यात्मि प्रयत्न के अनुकूल न रहें, तब क्या होगा ? प्रभुकृपा से यदि आज स्वास्थ्य है, सामर्थ्य है, अनुकूल परिस्थिति है, तो आध्यात्मिक पुरुषार्थ को भविष्य के लिए छोड़ना, एक बड़ी दुःखद भूल बन सकता है। जितना अधिक पुरुषार्थ योगाभ्यास के लिए, धर्म के लिए कर सकते हैं, करते ही जाना है। आगे देखेंगे, आगे कर लेंगे, अभी तो ये भोग व कर्म कर लूं फिर निश्चिंत होकर पूरी तरह आध्यात्मिक मार्ग पर चलूंगा, ये सब इच्छाएं-कामनाएं मात्र इच्छाएं-कामनाएं ही न रह जायें। प्रभुकृपा से अभी मिल रहे अवसर का पूरा उपयोग करना है, कहीं देर न हो जाये।

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