बुधवार, 29 अगस्त 2012

गहराई में शान्त-मन


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण...............

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर 

प्रभु-कृपा से हम इतना समझते हैं, स्वीकारते हैं, मानते हैं कि हमें शान्ति चाहिए, अशान्ति नहीं। हमें संसार में भी शान्ति चाहिए, राष्ट्र-राज्य-नगर-मोहल्ले-घर में भी शान्ति चाहिए, अशान्ति नहीं। हमें मन में भी शान्ति चाहिए, अशान्ति नहीं। शान्ति में हम अनुकूलता अनुभव करते हैं, अशान्ति में प्रतिकूलता। अनुकूलता होने पर हमें सुख होता है व प्रतिकूलता होने पर दुःख होता है। बाहर की अशान्ति हमारे मन में भी अशान्ति पैदा करती रहती है, फलतः हम दुःखी हो जाते हैं।
बाहर की अशान्ति के कारण मन में अशान्ति उत्पन्न होती है, अतः हम बाहर की अशान्ति को ठीक करने का यथासंभव प्रयास करते हैं, करना भी चाहिए। बाहर की अशान्ति को हम कुछ कम भी कर पाते हैं, फलतः अन्दर की मन की अशान्ति भी कुछ कम हो जाती है। इस प्रकार के प्रयत्न व अनुभव से हमें निश्चित हो जाता है कि बाहर की अशान्ति उत्पन्न होती है और बाहर की अशान्ति न्यून या समाप्त होने के कारण अन्दर की अशान्ति न्यून या समाप्त हो जाती है। इस प्रकार हम बाहर की अशान्ति-शान्ति और अन्दर की अशान्ति-शान्ति में कारण-कार्य सम्बन्ध समझ लेते हैं, फलतः इसी पर केन्द्रित होकर अशान्ति हटाने व शान्ति पाने के प्रयास में लगे रहते हैं। ऐसा प्रयास करना भी चाहिए।
इस निश्चय व यत्न से हमें सफलता मिलती रहती है, किन्तु यह सफलता सीमित मात्रा में मिलती है। हमारी अशान्ति का कारण मात्र बाह्य-अशान्ति ही नहीं होती। हम अपनी असमर्थता, अकुशलता, अल्पज्ञता, आलस्य, उपेक्षा आदि के कारण भी अशान्त-दुःखी होते रहते हैं। इनसे होने वाली अशान्ति कम नहीं होती, बहुत अधिक होती है। हम इनके कारण न केवल बाह्य-अशान्ति के बिना भी अशान्त होते रहते हैं बल्कि बाह्य-अशान्ति से होने वाली अशान्ति को कई गुणा बढ़ा लेते हैं। हम बार-बार उन्हीं बाह्य-विषयों को विचारते रहते हैं और बार-बार अशान्त होते रहते हैं।
बाह्य-अशान्ति को हम अपने प्रयास से कुछ दूर कर पाते हैं, पर पूरी तरह नहीं। बाह्य-अशान्ति को हम पूरी तरह समाप्त कर भी नहीं सकते। बाह्य-अशान्ति का कारण अन्य अनेक व्यक्ति भी होते हैं, जिन पर हम पूर्ण नियन्त्रण-नियमन नहीं कर सकते। लोग पुनः-पुनः अशान्ति का कारण बनते ही रहेंगे। किन्तु आन्तरिक-अशान्ति को हम पूरी तरह समाप्त कर सकते हैं क्योंकि इसका मुख्य कारण हम स्वयं हैं। यदि हम चाहें तो आन्तरिक-अशान्ति को पूर्णतः हटा सकते हैं, इसमें कोई हस्तक्षेप भी नहीं कर सकता।
हम अपने मन के ऊपरी तल पर जीते रहते हैं। मन का ऊपरी तल विभिन्न-बाह्य घटनाओं व आन्तरिक वृत्तियों से चलायमान-दोलायमान बना रहता है। इसी चंचलता में जीते हुए हम इनसे सतत प्रभावित होते रहते हैं, अशान्त व दुःखी होते रहते हैं। मन के इस ऊपरी तल पर सामान्यतः हम अल्प नियन्त्रण ही कर पाते हैं। प्रभु-कृपा से यदि हमम न के अन्दर गहराई में प्रविष्ट हो जायें तो गहन शान्ति को तत्क्षण उपलब्ध हो सकते हैं।
समुद्र ऊपरी तल पर सदा चंचल-दोलायमान बना रहता है, अतः अशान्त भी बना रहता है। उसमें बडे़-बडे़ तूफान भी आते हैं, तब अत्यन्त अशान्त हो जाता है। इसी प्रकार मन का ऊपरी भाग भी थोड़ा या अधिक चलायमान बना रहता है। यदि हम उसमें तैरने-ठहरने में समर्थ नहीं होते हैं, तो अशान्त भी होते रहते हैं। जैसे समुद्र की गहराई में उतर जाने पर चंचलता- अशान्ति नहीं रहती, इसी प्रकार यदि हम मन की गहराई में उतर जायें तो चंचलता-अशान्ति से उबर कर स्थिरता-शान्ति-सुख को उपलब्ध हो सकते हैं।
एकान्त में बैठकर जैसे ही हम मन में गहरे से गहरे उतरते जाते हैं, वैसे ही चंचलता- अशान्ति-दुःख से दूर हट जाते हैं और स्थिरता-शान्ति-सुख से युक्त होते जाते हैं। प्रभु ने हमें ऐसा मन दिया है जो लोक-व्यवहार हेतु चलायमान भी हो सकता है व आन्तरिक-व्यवहार हेतु पूर्ण स्थिर-एकाग्र भी हो सकता है। यह हमारी अकुशलता है कि हम लोक-व्यवहार में उपयोगी मन की चलायमानता (सक्रियता) को उच्छृंखल (अव्यवस्थित-अनियमित) करके लोक-व्यवहार में बाधाएं उत्पन्न कर लेते हैं व दुःखी होते रहते हैं। यह हमारी अज्ञानता है कि हम मन के स्थिर -एकाग्र हो सकने के सामर्थ्य का उचित व पर्याप्त उपयोग नहीं कर पाते हैं। प्रभु ने हम पर कृपा कर रखी है, हमें उस कृपा का लाभ उठाना है।

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