मंगलवार, 24 जुलाई 2012

आखिर कितनी बार और गिरना है ?


आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण............

आखिर कितनी बार और गिरना है ?

आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर
आचार्य सत्यजित् जी

प्रभुकृपा से धर्मनिष्ठ साधनारत व्यक्ति अपने को शुद्ध-पवित्र बनाते जाते हैं। वर्षों तक सतत् धर्मानुष्ठान व साधना में लगे रहने वाले व्यक्ति भी मोक्ष मार्ग के पथिक ही होते हैं, अभी उन्होंने अन्तिम लक्ष्य नहीं पा लिया होता है, अभी वे जीवन-मुक्त नहीं हो गये होते हैं। अभी वे अपने अविद्या-संस्कारों को दग्धबीज नहीं कर पाये होते हैं, अतः समय-समय पर किसी-किसी विषय में उनका निचले स्तर पर आ-जाना होता रहता है। पर साथ ही उनका ऊँचे उठने का क्रम भी चलता रहता है। जन सामान्य की दृष्टि में वे उच्च आधात्मिक स्तर के होते हैं, जन सामान्य उनसे प्रेरणा भी लेता रहता है।
प्रभुकृपा से अध्यात्म-मार्ग को समझकर उस पर चल पड़ा साधक भी इस मार्ग में बालक या किशोरवत् हीे होता है। जैसे बालक या किशोर अधिक आशावादी होते हैं, ऊँची सोचते हैं, शीघ्र सफलता पाना चाहते हैं, अधिक उत्सुकता व कम धैर्य वाले होते हैं, ऐसा ही नया साधक भी होता है। उसे अपनी सामर्थ्य की न्यूनता तो प्रतीत होती है। पर वह थोडे़ प्रयत्न के बाद ही सफलता की अपेक्षा करने लगता है, वह शीघ्र व बड़ी सफलता पाना चाहता है। उसे अपना प्रयत्न व साधना में लगाया गया काल पर्याप्त लगने लगता है, पर तदनुरूप पर्याप्त सफलता जीवन में दिखला नहीं देती। वह अब भी अपने को दोषों में घिरा पाता है। दोषों से बचने का संकल्प व प्रयत्न बार-बार करते हुए भी, बार-बार संकल्प टूटने व गिरने की अनिष्ट स्थिति में अपने आप को पाता है।
प्रभुकृपा को स्वीकारने वाला साधक इसे तो प्रभुकृपा मान लेता है कि मैं अपने दोषों को जान पाता हूँ, दोषों को मैं जानकर दुःखी होता हूँ, उन्हें पुनः न करने का संकल्प लेता हूँ व इस ओर प्रयत्न भी करता हूँ। यह वास्तव में प्रभु कृपा है भी, यह सब भावी प्रगति का लक्षण भी है। किन्तु साधक को अपना बार-बार गिरना बहुत बुरा लगता है, स्वीकार्य नहीं होता, पुनरपि गिरना होता ही रहता है, होता ही रहता है। साधक के मन में तब प्रश्न उठता है- आखिर कितनी बार और गिरना है ?
यह साधक के लिए अच्छी बात है कि वह इस प्रश्न पर विचार करने लगा है। ऐसी स्थिति के लिए साधक स्वयं भी अपने अनुभव के आधार पर उचित निर्णय निकाल सकता है। कितने भी निचले स्तर का साधक हो, उसने भी अनेक दुर्गुणों पर विजय पाई होती है, अनेक शुभ गुणों का अच्छी प्रकार पालन किया होता है। प्रश्न उठते हैं कि साधक अब तक यह सब कैसे कर पाया था ? यदि पहले सफलता मिली है तो आगे उसी विधि से सफलता क्यों नही मिल सकती ? यदि कुछ दुगुर्णों से पूरी तरह या पर्याप्त मात्रा में बच चुका है, तो अन्य शेष दुर्गुणों से कैसे नहीं बच सकता ? बच सकता है, किन्तु साधक को अपने पर विश्वास नहीं होता है कि मैं इन शेष दुर्गुणों से बच जाऊँगा। उसके मन में तो यही प्रश्न उठता रहता है कि आखिर कितनी बार और गिरना है ?
दोषों को जानना, न हटा पा सकने पर दुःखी होना आदि आध्यात्मिक दृष्टि सहायक अच्छे लक्षण हैं, किन्तु इतना पर्याप्त नहीं हो पाता है। क्योंकि उस दोष से सम्बन्धित जन्म-जन्मान्तर के संस्कार बहुत प्रबल हैं और दोष की गहराई से पूरी विवेचना नहीं हो पाई है। दोष यदि पूर्णतः हानिकर समझ में आ जाये उसमें कोई लाभ-सुख न दिखे, तो उसका दूर हटना सरल हो जाता है। जिस जिस भी दुर्गुण से हम अब तक हटे हैं, उनसे तभी हट पाये हैं, जब हमें उनकी हानि पूर्णतः समझ में आ गई। इसी प्रकार आगे भी अन्य दुर्गुण हटाये जा सकते हैं।
यदि हानि को पूर्णतः समझ लेने पर भी दुर्गुण नहीं हट पा रहा है, पुनः-पुनः पतन हो जाता है, व्रत संकल्प टूट जाते हैं, तो यह जन्म-जन्मान्तर के प्रबल संस्कारों के कारण हो रहा होगा, ऐसा माना जा सकता है। ऐसे में साधक के लिए उस दुर्गुण के दोष-दर्शन, उसके हटाने का संकल्प व आलम्बन से दूर रहना, ये प्रमुख उपाय करणीय होते हैं। इन्हें करते-करते भी यदि संकल्प टूटता है-पतन होता है, तो भी बिना निराश हुए ये प्रयत्न करते रहने होते हैं। इन प्रयत्नों से जब संस्कार क्षीण हो जायेंगे, तब अचानक उस दोष से छुटकारा मिल जायेगा।
अध्यात्म में प्रगति के लिए किया गया छोटा सा भी प्रयत्न निष्फल नहीं होता। अपने को नए दोषों-संस्कारों से बचाये रखते हुए पिछले दोष-संस्कार काटते रहने होते हैं। इसी रीति से धीरे-धीरे सफलता मिलती है, समय की पर्याप्त अपेक्षा है, पर्याप्त धैर्य चाहिए। प्रभु के विधान पर चलने में असफलता का क्या प्रश्न ? आशंका की क्या बात ? हर पतन के बाद पूरे घटनाक्रम पर सावधानी से विचार करने का समय निकाला जाए तो कारण पकड़ने में आने लगते हैं। कारण पता लगने पर समाधान ढूंढना कठिन नहीं होता, वह स्वतः भी ज्ञात हो जाता है। तब पतन रुक जायेगा। आखिर कितनी बार और गिरना है ? जब तक गिरने से सीख नहीं लेंगे, गिरने से समझ नहीं बनायेंगे, गिरने से विवेक प्राप्त नहीं करेंगे, तब तक गिरते रहना है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. वाह अति सुन्दर वर्णन उस परमपिता क़े मार्ग पर चलने वालो का , जो अभी - अभी चलना सीखे है इस मार्ग पर उनके लिए तो ये लेख एक ताजगी भरा पेय है ,

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