शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

मैं भी ऐसा हो सकता हूँ

आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण........
-आचार्य सत्यजित् जी

-आचार्य सत्यजित् जी
ऋषि उद्यान, अजमेर

प्रभुकृपा से मुझे यह मानव-तन मिला। समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ तन है यह। श्रेष्ठ बुद्धि-इन्द्रियों-शरीर का जितना श्रेष्ठ उपयोग करके अपने जीवन को मैं जितना श्रेष्ठ बना सकता था, वह नहीं बना पाया हूँ। जितने दुर्गुण मुझे दूर कर लेने चाहिए थे, वे हो नहीं पाये हैं। मैं प्रयास करता हूँ, पर सफलता नहीं मिलती। अनेक बार प्रयास करना चाहते हुए भी प्रयास नहीं कर पाता हूँ, कम प्रयास कर पाता हूँ। क्यों ?
मैं जैसा जीवन जी रहा हूँ, उससे अच्छा जीवन जीने वाले बहुत हैं। मेरे से अधिक विद्वान्-ज्ञानी, मेरे से अधिक शांत-एकाग्र, मेरे से अधिक तपस्वी, मेरे से अधिक संयमी, मेरे से अधिक वीतराग, मेरे से अधिक सात्त्विक, मेरे से अधिक प्रयत्नशील-पुरुषार्थी, मेरे से अधिक ईश्वर-भक्त, मेरे से अधिक मुमुक्षु.................। ये इतने अच्छे धार्मिक-आध्यात्मिक व्यक्ति बन गये, मैं नहीं बन पाया, क्यों ? मेरे में क्या कमी है ? क्या मेरे प्रति ईश्वर की कृपा कम है ? क्या मैं ईश्वर का उतना प्रिय नहीं हूँ ? क्या मेरी आत्मा दुर्बल-अयोग्य-अक्षम है ? क्या ये भिन्न प्रकार की आत्माएँ है ? जो अच्छा आध्यात्मिक जीवन जी रही हैं ?
मूलतः सभी आत्माएँ शक्ति-सामार्थ्य-स्वभाव में समान हैं। कर्मानुसार शरीर-बुद्धि आदि साधनों व संस्कारों में भिन्नता रहती है। यह भिन्नता किसी-किसी में अधिक रहती है। आत्मा की दृष्टि से मैं अन्यों के समान हूँ। पर शरीर-बुद्धि आदि साधनों व संस्कारों में भिन्नता रहती है। साधनों की भिन्नता देखकर प्रतीत होता है कि ईश्वर की इन पर अधिक कृपा है, मेरे पर कम कृपा है। किन्तु ईश्वर तो न्यायकारी है, उसके लिए सब आत्माएँ मूलतः समान हैं, किन्तु वह कर्मानुसार यथायोग्य न्यायानुसार फल देना ईश्वर का स्वभाव है, यह ईश्वर का अनुपम स्वभाव है। प्रभु की यह कृपा तो मेरे पर भी पूर्णतः विद्यमान है।
प्रभुकृपा से जो आत्माएँ धर्म-अध्यात्म के क्षेत्र में अच्छी प्रगति प्राप्त कर चुकी हैं, यह उनके परिश्रम-तपस्या के कारण हैं। मैं या कोई भी आत्मा वैसे ही परिश्रम-तपस्या करके धर्म-अध्यात्म के क्षेत्र में अच्छी प्रगति कर सकते हैं। जो आज उच्च आध्यात्मिक स्तर पर पहुँचे हैं, वे भी कभी अन्यों जैसे निम्न आध्यात्मिक स्तर के थे। उन्होंने प्रभुकृपा के महत्त्व को समझा, ज्ञान-तपस्या-संयम का मार्ग अपनाया, तो वे विशेष प्रभुकृपा के पात्र बन सके और उच्च आध्यात्मिक स्तर के शान्ति-सन्तोष-सुख में जी रहे हैं। मैं भी ऐसा हो सकता हूँ।
साधना करना मुझे कठिन लगता है। त्याग-तपस्या-संयम आदि को पालने में बड़ा कष्ट प्रतीत होता है, सांसारिक सुखों का आकर्षण प्रबल है, बार-बार संयम टूटता है, त्याग-तपस्या को छोड़ बैठता हूँ। क्या यह कठिनाई मात्र मेरे साथ है, क्या यह मात्र मेरे साथ हो रही है, क्या यह आज के युग में ही है ? इसी प्रकार की परिस्थिति में रहते हुए, इसी प्रकार की कठिनाई-कष्ट को उठाते हुए कुछ आत्माएँ उच्च आध्यात्मिक स्तर पर पहुँची हैं। मेरे साथ आने वाली कठिनाईयाँ व कष्ट अपूर्व-अद्भुत नहीं हैं, मात्र मुझे ही इससे नहीं गुजरना पड़ रहा है। हर आत्मा को इस प्रक्रिया से गुजरना होता है। पुराने कुसंस्कार बाधक बनते ही हैं।
प्रभुकृपा से धर्म-अध्यात्म का शुद्ध मार्ग मुझे मिला है, मैं इसके संपर्क में आ गया हूँ, यह मेरा एक बड़ा सौभाग्य है। मेरे में आध्यात्मिक जीवन जीने की इच्छा है, यह भी बड़ा सौभाग्य है। मैं अपने जीवन को शुद्ध सात्त्विक, संयमी, संतोषी, वीतरागयुक्त बनाना चाहता हूँ, यह इच्छा अनुपम है। इस इच्छा को बार-बार करके, इसे दृढ़ व व्यापक बनाकर, यथासामर्थ्य साधना करने में कष्ट-बाधा कम होते जायेंगे, आध्यात्मिक मार्ग पर चलना-बढ़ना-चढ़ना सरल होता जायेगा। इस प्रक्रिया से तो मुझे निकलना ही पडे़गा। पर इतना निश्चित है मैं भी अन्य उच्च आध्यात्मिक व्यक्तियों जैसा बन सकता हूँ, अवश्य बन जाऊँगा, प्रभुकृपा में कोई कमी नहीं है। आत्मा के आधार पर प्रभु की कृपा में कोई भेद नहीं है, योग्यतानुसार यथायोग्य कृपा वे सदा करते हैं। मुझे परिश्रम से अपनी योग्यता बढ़ानी है। मैं भी अन्यों जैसा श्रेष्ठ बन सकता हूँ। यदि मैंने सावधानी नहीं रखी तो मैं अन्यों जैसा निकृष्ट भी बन सकता हूँ।

1 टिप्पणी:

  1. namaste jee,
    dhanyavaad, shubhkaamanaaen, prabhu kripaa,
    ek pankti choot gayee hai,
    yathaayogya phal ..... deta hai | yathaayogya, nyaayanusaar phal .... denaa eeshvar
    satyajit

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