बुधवार, 29 जून 2011

महर्षि मन्तव्य

     
   मैं अपना मन्तव्य उसी को जानता हूँ  की जो तीन काल में एकसा सबके सामने मानने योग्य है. मेरा कोई नवीन कल्पना वा मतमतान्तर चलाने का लेशमात्र भी अभिप्राय नहीं है किन्तु जो सत्य है उसको मानना, मनवाना और जो असत्य है उसको छोड़ना और छुड़वाना मुझको अभीष्ट है. यदि मैं पक्षपात करता तो आर्यावर्त में प्रचलित मतों में से किसी एक मत का आग्रही होता किन्तु जो-जो आर्यावर्त वा इन देशों में अधर्मयुक्त चाल-चलन है उसका स्वीकार और जो धर्मयुक्त बातें हैं उनका त्याग नहीं करता, न करना चाहता हूँ क्योंकि ऐसा करना मनुष्य धर्म से बहिः है.
-महर्षि दयानन्द

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