सोमवार, 19 सितंबर 2011

त्रिशब्‍द अटूट सम्‍बन्‍ध


त्रिशब्‍द अटूट सम्‍बन्‍ध

अनादि तत्त्‍व = ईश्‍वर, जीव और प्रकृति।
प्राकृतिक मूल गुण = सत्‍व, रजस् और तमस्।
जगत के कारण = निमित्त, उपादान और साधारण।
"ओ३म्" के अक्षर = अ, ऊ  और म्।
वैदिक महाव्‍याहृतियाँ = भूः, भुवः और स्‍वः।
ईश्‍वर के गुण = सर्वव्‍यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान।
ईश्‍वर के कर्म = सृष्टिकर्त्ता, ज्ञानप्रदाता और कर्मफलदाता।
ईश्‍वर के स्‍वभाव = सत्‍य, चेतन और आनन्‍दस्‍वरूप।
जीवात्‍मा के गुण = एकदेशी, अल्‍पज्ञ और अल्‍पसामर्थ्‍यवान। (मनुष्‍य जाति)   
जीवात्‍मा के कर्म = भोग, योग और मोक्षप्राप्ति का प्रयत्‍न। (मनुष्‍य जाति)     
जीवात्‍मा के स्‍वभाव = सत्‍य, चेतन और कर्मशील। (मनुष्‍य जाति)    
प्रभु मिलन के साधन = ज्ञान, कर्म और उपासना।
जीवन के परम-सत्‍य = जन्‍म, जीवन और मृत्‍यु।
साधना के साधन = ज्ञान, भक्ति और वैराग्‍य।
सफलता के शत्रु = स्‍वार्थ, आलस्‍य और अहंकार।
कर्म के साधन = मन, वचन और कर्म।
कर्म के भेद = शुभ, मिश्रित और अशुभ।
कर्म के रूप = अकाम, सकाम और निष्‍काम।
कर्मफल की प्राप्ति = जाति, आयु और भोग।
कर्मफल के प्रकार = फल, प्रभाव और परिणाम।
त्रिविध दुःख = आध्‍यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक।
वस्‍तु के रूप = स्‍थूल, सूक्ष्‍म और सूक्ष्‍मतम।
तीन शरीर = स्‍थूल, सूक्ष्‍म और कारण।
तीन अवस्‍थाएँ = जागृत, स्‍वप्‍न, सुषुप्ति।
काल की स्थिति = भूत, वर्तमान और भविष्‍य।
जीवन की स्थितियाँ = बचपन, यौवन और बुढापा।
लोक परिस्थियाँ = स्‍वर्ग, नरक और वैराग्‍य।
लड़ाई-झगड़े के कारण = धन, स्‍त्री और भूमि।
वाद-विवाद के कारण = अज्ञानता, अहंकार और निर्बलता। 
तीन लिंग = स्‍त्रीलिंग, पुर्लिंग और नपुंसकलिंग।
मानव व्‍यवहार = आत्‍मवत्, सदाचार और मधुर=भाषण।
मानव कर्तव्‍य = सेवा, सत्‍संग और स्‍वाध्‍याय।
आर्य की परिभाषा = धर्माचारी, सेवाधारी और निर्हंकारी।
मनुष्‍य की पहचान = संस्‍कार, संस्‍कृति और मानवता।
आर्य की पहचान = धर्म, कर्म और आचरण।
मित्र की पहचान = आत्‍मवत् व्‍यवहारी, विघ्‍न निवारक और निःस्‍वार्थी।
शत्रु की पहचान = अत्‍यन्‍त मधुरभाषी, अवसरवादी और अत्‍यन्‍त स्‍वार्थी। 
गुरु की पहचान = मार्गदर्शक, धार्मिक और निःस्‍वार्थी।
संन्‍यासी की पहचान = प्राणायाम, प्रवचन और परोपकार।
धार्मिक की पहचान = धर्मनिष्‍ट, परोपकारी और सर्वहितैषी।  
मनुष्‍य का गुरु = ईश्‍वर, वेद और धर्मनिष्‍ठ माता=पिता=आचार्य।
स्‍वस्‍थ जीवन रहस्‍य = शुद्धाहार, शुद्धविहार और शुद्धव्‍यवहार।
घर का अर्थ = माता, पिता और संतान।
परिवार की परिभाषा = माता=पिता, पुत्र=पुत्रवधु और संस्‍कारी संतानें।
मूर्तिमान देवता = पितर (जीवित माता, पिता), गुरु (शिक्षक, आचार्य एवं आध्‍यात्मिक मार्गदर्शक तथा पति के लिये धर्मपत्‍नी एवं पत्‍नी के लिये पति) और अतिथिगण।
यज्ञ की परिभाषा = देव-पूजा, संगति-करण और दान।
यज्ञ की भावना = त्‍याग, परोपकार, और सेवा।
यज्ञ की सार्थकता = शुद्धता, समर्पण और वैदिक-विधि।
स्‍वाध्‍याय सामग्री = वेद, आप्‍त-पुरुष व्‍यवहार और स्‍व-अध्‍याय।
स्‍वाध्‍याय प्रक्रिया = पठन-पाठन, श्रवण-प्रवचन और सदाचरण।
सत्‍संग के पात्र = सदाचारी, धर्माचारी और धार्मिक विद्वान।
जप की विधि = नाम-स्‍मरण, अर्थ-चिन्‍तन और आचरण।
धर्म की विधि = सत्‍य, अहिन्‍सा और प्रेम।
श्राद्ध की विधि = सत्‍याचरण, पितर-सम्‍मान और समर्पण।
प्रेम की विधि = त्‍याग, समर्पण और निरभिमानता।
पूजा की विधि = सदुपयोग, मन-वचन-कर्म से सेवा और आज्ञा-पालन।
ध्‍यान की विधि = मौनावस्‍था, अर्थसहित प्रभु-नाम स्‍मरण और निरन्‍तराभ्‍यास।
समाधि की विधि = निर्विषयं मनः, निर्विषयं मनः और निर्विषयं मनः।
योग की उपलब्धि = प्रेम, समानता और आनन्‍द।
मदन जी रहेजा 

रविवार, 4 सितंबर 2011

ऐश्वर्य में रमने वाला मन

आचार्य सत्यजित जी आर्य
प्रभु-कृपा से हमें मन नामक एक अन्त:करण मिला है। प्रभु ने इस मन को ऐश्वर्यप्रिय बनाया है। इसलिए हर व्यक्ति ऐश्वर्य को पाना चाहता है। हर व्यक्ति ऐश्वर्य को देखकर या प्राप्तकर प्रसन्न होता है। ऐश्वर्य रहित स्थिति में प्रसन्नता नहीं रहती, ऐश्वर्य के कम होने पर प्रसन्नता कम हो जाती है। प्रभु ने सकल ऐश्वर्य प्रदान किये हैं। उसने ऐश्वर्यों को चाहने वाले ‘मन’ को भी दिया है।
संसार में अनेकविध ऐश्वर्य हैं। धन-सम्पत्ति, सुन्दर-शरीर, मधुर-वाणी, रंग-रूप, तीक्ष्ण व स्वच्छ बुद्धि, ज्ञान, वृक्ष-वनस्पति, नदी-पर्वत, पशु-पक्षी आदि बहुविध ऐश्वर्य संसार में बहुतायत से बिखरा पड़ा है। व्यक्ति इनकी ओर बार-बार आकर्षित होता रहता है। एक ऐश्वर्य से मन भर गया है तो दूसरे ऐश्वर्य को पाने में लग जाता है। थोड़ा ऐश्वर्य प्राप्त करने के बाद जब उससे भी मन भर जाता है तो व्यक्ति अधिक ऐश्वर्य की प्राप्ति में लग पड़ता है।
ऐश्वर्य की इच्छा को, अधिकाधिक ऐश्वर्य की इच्छा को आध्यात्मिक-क्षेत्रा में हीन दृष्टि से देखा जाता है। वस्तुत: ऐश्वर्य की चाह तो सब में होती है, भौतिकवादी सांसारिक व्यक्ति में भी और आध्यात्मिक व्यक्ति में भी। ऐश्वर्य की कामना प्रगति के लिए आवश्यक है, प्रगति चाहे भौतिक हो या आध्यात्मिक। भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त करके, उसका अनुभव लेकर व्यक्ति उससे जब वितृष्ण हो जाता है, भौतिक ऐश्वर्य की चाह-ललक से ऊपर उठ जाता है, तो इसे ही ‘वैराग्य’ कहते हैं। किन्तु इस वैराग्य का कारण भी ऐश्वर्य की कामना ही है। जिस भौतिक बाह्य ऐश्वर्य को चाहा था वह पुरुषार्थ कर पा भी लिया था, उससे पूर्ण तृप्ति को पाना असंभव ज्ञात होने पर व्यक्ति आध्यात्मिक- आन्तरिक ऐश्वर्य को पाना चाहता है। आध्यात्मिक आन्तरिक ऐश्वर्य अधिक प्रसन्नता देता है, अधिक देर तक रहता है। आध्यात्मिक ऐश्वर्य की प्रसन्नता की विशेषता यह होती है कि वह प्रसन्नता व्यग्रता से रहित, बहुत शांत-गंभीर होती है।
भौतिक बाह्य-ऐश्वर्य इसलिए हीन व हेय है क्योंकि आध्यात्मिक-आन्तरिक ऐश्वर्य उससे बड़ा व अधिक होने से श्रेष्ठ व उपादेय होता है। आध्यात्मिक व्यक्ति का मन भी ऐश्वर्य-प्रिय होता है। प्रारंभिक आध्यात्मिक व्यक्ति को पर्वत, वन, नदियां, झरने, घाटियां, पर्वतशिखर आदि प्राकृतिक ऐश्वर्य बहुत आकर्षित करते हैं। इन्हें पाकर वह प्रसन्न होता है व अधिक एकाग्र होकर आध्यात्मिक आन्तरिक एकाग्रता-सुख-शान्ति -सन्तोष को और अधिक ऊँचे स्तर पर पाता रहता है।
इन सब ऐश्वर्यों का भी ऐश्वर्य एक और ऐश्वर्य है। वह है परमपिता परमात्मा का ऐश्वर्य। उच्च स्तर का साधक-योगाभ्यासी-योगी वही बन पाता है जिसे परमात्मा का ऐश्वर्य आकर्षित करने लगता है। उसे सांसारिक बाह्य ऐश्वर्य व आन्तरिक आध्यात्मिक एकाग्रता-शान्ति-संतोष आदि ऐश्वर्य भी फीके लगने लगते हैं। वह इन अन्य ऐश्वर्यों का आवश्यक उपयोग तो करता है, पर उसे वे अंतिम-ऐश्वर्य की तरह नहीं लगते हैं। ऐश्वर्य में रमने वाला मन परमात्मा के ऐश्वर्य में ऐसा रमता है कि उसके अन्य राग समाप्त हो जाते हैं, वह वैराग्य को प्राप्त हो जाता है। वेद (श्रव्य-काव्य) और प्रकृति (संसार, दृश्य-काव्य) में बुद्धिपूर्वक प्रवेश करने वाले को वहां ईश्वर के नित्य-नये ऐश्वर्य का बोध होता रहता है, वह ईश्वर में ही रम जाता है, ईश्वर के ऐश्वर्य में ही रमा रहता है। उसे भौतिक प्राकृतिक ऐश्वर्य लुभा नहीं पाते, वह इनसे विरत हो जाता है।
प्रभु-कृपा से मिले ऐश्वर्य-प्रिय मन की पूर्ण सफलता यही है कि वह चरम-ऐश्वर्य को चाहने लगे। यदि व्यक्ति अपने मन की ऐश्वर्य-प्रियता का समझदारी से उपयोग करे, तो ईश्वर-साक्षात्कार तक पहुँच सकता, अपने जीवन को चरितार्थ कर सकता है, कृतकृत्य हो सकता है। अपने मन को परमात्मा के ऐश्वर्य की ओर मोड़ देने पर सभी आध्यात्मिक उपलब्धियां सहज मिलती जाती हैं। प्रभु-कृपा से प्राप्त ऐश्वर्य-प्रिय मन का यही सर्वोत्कृष्ट उपयोग है।