शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

नित्य-अनित्य का विवेक प्राप्त करो।

आचार्य ज्ञानेश्वर जी कि प्रवचनमाला से 

भूमिकाः- मोक्ष की प्राप्ति और व्यवहार की श्रेष्ठता के लिए विवेक जरूरी है। सबसे पहला है नित्य-अनित्य का विवेक। आचार्यवर कहते हैं:-

क्या मेरा शरीर अनित्य है ? क्या मैं मरूंगा ? यह प्रश्न ऐसा है कि यद्यपि स्थूल रूप से किसी व्यक्ति से पूछा जाये तो वह उत्तर देगा- इसमें क्या नई बात है। मरना तो है। जो उत्पन्न हुआ है, वो तो मरेगा ही। सभी मरते हैं, मैं भी मरूंगा। यहां पर यह उस व्यक्ति का शाब्दिक ज्ञान है, आनुमानिक ज्ञान भी है। इसके अलावा एक प्रात्यक्षिक ज्ञान भी होता है, जो व्यक्ति में विवेक उत्पन्न करने के लिये बाध्य कर देता है। वह विवेक ज्ञान जब उत्पन्न होता है तो व्यक्ति में वैराग्य उत्पन्न होता है। शाब्दिक ज्ञान का उतना प्रभाव नहीं होता है, आनुमानिक प्रमाण से उत्पन्न ज्ञान का प्रभाव उतना नहीं होता है, जितना कि प्रात्यक्षिक ज्ञान का प्रभाव पड़ता है। जब मन के अंदर इस प्रकार की बात उठाकर के बार-बार व्यक्ति विचार करता है कि - क्या मैं कभी बूढ़ा होऊंगा, रोगी होऊंगा, मरूंगा ? यह संसार में जो मुझे दिखाई दे रहा है, जो मेरा परिवार है, जो मैंने इतना लंबा चौड़ा सम्बन्ध बनाया है, ये संसार में सैकड़ों हजारों व्यक्तियों के साथ मधुर संबंध हैं, क्या ये सदा बने रहेंगे ? मेरी बहुत बड़ी ख्याति है। क्या ये ख्याति मेरे मरने के बाद पक्की समाप्त हो जायेगी ? आध्यात्मिक आदमी अपनी मृत्यु को ज्ञान-विज्ञान के आधार पर आज इस समय उपस्थित कर लेता है। उसी पल महसूस कर लेता है कि- ये लो मैं मर गया। जैसे वास्तव में मरने के बाद व्यक्ति की स्थिति होती है, मरकर पता नहीं, वो कहां गया। उसका शरीर नष्ट हो जाता है, उसके सारे संबंध टूट जाते हैं। ऐसे ही आध्यात्मिक आदमी, अपनी मृत्यु के समान स्थिति मन के अंदर उत्पन्न कर लेता है। जैसे मृत्यु होने के बाद में किसी का किसी से संबंध है ही नहीं, बिलकुल संबंध नहीं बनता। मरने के बाद वह कहां गया, कोई नहीं जानता। यह सही है कि अधिकांश व्यक्ति इसी धरती पर से आये हैं। पीछे उनका परिवार था, बेटे-पोते भी थे, कोई मकान भी था, प्रतिष्ठा भी थी, सम्मान भी था। कल्पना कीजिये कि-हम उसी नगर, गली, पड़ोस में आ गये हों, हो सकता है उसी घर में आ गये हों। यह एक सम्भावना है, लेकिन इसका पक्का पता चलेगा नहीं। योगी व्यक्ति इस प्रकार अपने आप से प्रश्न करने उसका समाधान निकालता है कि- मैं मरूंगा। मरने के बाद मेरी ये स्थिति होगी कि सारे संसार का मुझसे संबंध बिलकुल टूट जायेगा। किसी मां के पेट में जाकर के मुझे नये सिरे से सारे संसार का ताना-बाना बुनना पड़ेगा। जो आज हमने 60,70,80 वर्ष की उम्र तक पहँचते- पहुँचते ताना-बाना बुना, अपना व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक संसार बनाता है। जब व्यक्ति मृत्यु को अनुमान प्रमाण के आधार पर, सत्य कल्पना के आधार पर अपने मन-मस्तिष्क में ले आता है तो निश्चित रूप से विवेक उत्पन्न होता है।

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

ईश्वर जीव और प्रकृति को जानें


ईश्वर जीव और प्रकृति को जानें



यज्ञ प्रशिक्षण देते आचार्य ज्ञानेश्वर जी 


भूमिकाः- अपने अविद्या आदि दोषों को दूर करने हेतु विद्या की प्राप्ति करना जरूरी होता है, तब ही लौकिक और आध्यात्मिक सफलता मिलती है। अतः आचार्यवर कहते हैं

मनुष्य जीवन का उद्देश्य है- बंधन से छूट कर के स्वतंत्रता को प्राप्त करना। इसका उपाय है- ईश्वर को जानना, अपने आप को जानना और प्रकृति को जानना। पहले प्रकृति को जानें अर्थात् इस संसार को जानें। फिर अपने स्वयं के स्वरूप को जानें कि मैं कौन हूं, मेरा सामर्थ्य क्या है, मेरी योग्यता क्या है। इसके बाद ईश्वर क्या है, उसका सामर्थ्य क्या है, इसके विषय में जानें। इन तीन चीजों का अच्छी प्रकार से ज्ञान प्राप्त कर लेने पर व्यक्ति प्रकृति के बंधन से छूट सकता है और कोई उपाय नहीं है।
ईश्वर को जानने के लिए व्यक्ति को शास्त्र पढ़ने पड़ते हैं। वेद दर्शन उपनिषद् आदि-आदि शास्त्र हैं। उनको पढ़कर के अपने जीवन को पवित्र बनाना पड़ता है। अपने जीवन को उन आदर्शों के आधार पर चलाना पड़ता है। जो आदर्श जो मर्यादायें जो सिद्धान्त जो विधि-विधान ऋषियों ने वेदों के आधार पर हमारे लिए निर्धारित किये हैं उनके अनुरूप आचरण करना पड़ता है। इनसे विपरीत चलकर के कोई भी व्यक्ति इस बंधन से छूट नहीं सकता दुःखों से छूट नहीं सकता।

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

ईश्वर, जीव, प्रकृति को न जानने


 ईश्वर, जीव, प्रकृति को न जानने वाला भूलें करता है।

भूमिका- अपनी भूल, अपने ही हाथों सुधर जाये, यह अच्छा है, लेकिन इसके पहले भूल का कारण जानना जरूरी होता है, और वह है:-
आर्ष परम्परा के पोषक आचार्य श्री ज्ञानेश्वर जी 
अपनी दिनचर्या में, अपने जीवन में अनेकों प्रकार की त्रुटियाँ, भूलें, दोष दिन में हो जाते हें। न केवल स्थूल (शारीरिक) रूप से, न केवल वाचनिक रूप से बल्कि विचार के माध्यम से भी हमसे त्रुटियाँ होती हैं। जो व्यक्ति सतर्क-सावधान नहीं है, वह रोजाना सैकड़ों प्रकार की भूलें कर लेता है। वह कभी मन में द्वेष उत्पन्न करता है तो कभी राग उत्पन्न करता है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से राग, द्वेष और मोह उत्पन्न करना त्रुटि है, भूल है, दोष है। सतर्क और सावधान न होना, आलसी, प्रमादी, (लापरवाह) होकर के अपने कर्तव्यों को, दायित्वों को भूल जाना, अपने आत्मा को भूल जाना, ईश्वर के सत्य को भूल जाना, संसार के जड़त्व (निर्जीवता-अनात्मा स्वरूप) को भूल जाना, ये त्रुटि है। जो व्यक्ति ईश्वर, जीव और प्रकृति (सत्त्व, रज व तम और इनसे बने संसार) नामक तीन पदार्थों का ज्ञान सतत नहीं रखता है, वह हर समय त्रुटि करता है।
हमें हर समय यह पता होना चाहिए कि-‘‘मैं आत्मा हूँ, शरीर और संसार के पदार्थ जड़ हैं और ईश्वर इनको बनाने वाला है और सर्वव्यापक है।’’ जो व्यक्ति इन तीनों वस्तुओं का ज्ञान हर समय अपने मन, मस्तिष्क में नहीं रखता है, वह त्रुटि कर रहा है, हर पल कर रहा है। ऐसी त्रुटि केवल उससे होती है जो त्रैतवाद (ईश्वर, जीव प्रकृति) को ठीक प्रकार से नहीं समझ रहा है। पता होना चाहिए कि- ये मेरा शरीर जड़ है और मैं इसका संचालक आत्मा हूँ। मैं मन-इन्द्रियों का प्रयोग करने वाला चालक हूँ। इस शरीर को बनाने वाला, इसका संचालन करने वाला और कमरे कर्मों का फल देने वाला और इस शरीर का पालन करने वाला परमपिता परमात्मा है। वह मेरा ईश्वर, मेरे हृदय में बैठा हुआ मुझको अच्छे बुरे का ज्ञान कराता है।

इन तीनों तत्त्वों का ज्ञान जब व्यक्ति को सतत् बने रहता है, तब वह ज्ञानी और दोषरहित होता है। जब तीन प्रकार का ज्ञान उसको नहीं रहेगा तो सतत्, दिनभर अठारह घंटे, हर सेकेंड वह त्रुटि करेगा, भूल करेगा, दोष करेगा। इन तीन तत्त्वों के ज्ञान को जो व्यक्ति प्राप्त कर लेता है, वह व्यक्ति निरंतर उन्नति करता रहता है। इसमें कोई संशय नहीं है।

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

सफलता के पीछे ज्ञान है।


सफलता के पीछे ज्ञान है।

भूमिका- किसी ध्येय में सफलता पाने के लिए उस विषय का ज्ञाता होना जरूरी है। जो जितना अधिक जानकार है, वह उसमें अधिक सफल है। आचार्यवर सफलता का एक रहस्य ये बता रहे हैं कि-


ये सारी स्थितियाँ मानसिक हैं, और ये आध्यात्मिक मानसिक स्थितियाँ, हमारे ज्ञान विज्ञान के परिणाम हैं। ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त करके व्यक्ति उसके अनुरूप सतत चलता रहे तो यह मानसिक स्थिति बनी रहती है।

कौन सफल है ?

भूमिकाः- आध्यात्मिक सफलता यानी मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर चल रहे व्यक्तियों में क्या विशेषत होती है, आचार्यवर यह बताते हैं:-
वानप्रस्थ साधक आश्रम रोजड के व्यवस्थापक देश-विदेश में योग व
 यज्ञ का प्रशिक्षण प्रदान कर ऋषि संस्कृति को स्थापित करने में प्रयत्नशील महान साधक
 आचार्य ज्ञानेश्वर जी आर्य कि प्रवचनमाला से संकलन
 
 व्यक्ति को प्रायः यह अनुभव होता है कि मैं उन्नति कर रहा हूँ, प्रगति कर रहा हूँ, पवित्र होता जा रहा हूँ। अतः वास्तविक उन्नति और विकास क्या है, इसका लक्षण क्या है, यह भी हमें समझना चाहिए।

जो व्यक्ति अधिकतम प्रसन्न रहता है, सन्तुष्ट रहता है, गंभीर रहता है, स्वतन्त्र रहता है, किसी भी प्रकार का भय, चिंता या आशंका उसको नहीं रहती है, उसके मन में द्वेष, वितर्क, संशय उत्पन्न नहीं होते हैं, रजोगुण, तमोगुण की प्रवृत्ति मन में उत्पन्न नहीं होती है, सहनशक्ति, धैर्य, सरलता, विनम्रता, और सेवाभाव उसके मन में बना रहता है, सत्य को, धर्म को, आदर्श को, न्याय को व्यक्ति शिरोधार्य करके चलता रहता है, मन में ईश्वर के प्रति प्रेम बना रहता है, कठिनाईयाँ, बाधायें उपस्थित होने पर भी वह उन आदर्शों और धार्मिक कार्यों को छोड़ता नहीं है, ऐसा व्यक्ति ही उन्नति करता है और वही सफल कहलाता है।

लक्ष्य के प्रति अग्रसर होना, आगे बढ़ते रहना, लक्ष्य प्राप्ति की गति तीव्र करना, बाधाओं से बचना और समस्याओं का समाधान करना, एक सीमा तक व्यक्ति के अपने हाथ में है।

पहले व्यक्ति के जीवन के लक्ष्य का निर्धारण हो जाता है कि - ये मेरा लक्ष्य है। वह उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सर्वात्मना समर्पित होकर के चलता है तो सांसारकि प्रतिकूलतायें, सांसारिक बाधायें, सांसारिक विरोध, सांसारिक कठिनाईयाँ उसके सामने कुछ भी नहीं होती हैं। वह पूर्ण आत्मविश्वास के साथ ईश्वर से शक्ति, ज्ञान, बल और आनंद को प्राप्त करते हुए आगे बढ़ता रहता है। वह भी बिना भय, संशय, शंका, लज्जा उप्तन्न किये हुये।

अनेक बार देखने में आता है कि व्यक्ति दिन में इतना असावधान होता है, इतना तमोगुण, रजोगुण से युक्त रहता है, उसमें इतनी अधिक सकामता और स्वार्थ की वृत्ति रहती है, इतनी इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति होती है, उसके व्यवहारों में, विचारों में इतनी जड़ता रहती है कि ऐसे व्यक्ति को धार्मिक, परोपकारी, ईश्वरभक्त, आध्यात्मिक और योग मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति नहीं मान सकते।

आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति लौकिक वृत्तियों (व्यवहारों) से अत्यन्त विलक्षण (अलग तरह का) होता है। लौकिक व्यक्ति बाह्य चिन्हों के माध्यम से, बाह्य लक्षणों से, बाह्य क्रियाकलापों से कितना ही अपने आप को धार्मिक, आध्यात्मिक प्रकट करने का प्रयास करे, अन्दर से तो वो होता लौकिक ही है। सामान्य रूप से व्यक्ति के व्यक्तित्व का, उसमें मौजूद आध्यात्मिकता का पता नहीं चलता है। हां, जो व्यक्ति उसके निकट में रह रहा है, वह उसके हाव-भाव को, उसके विचारों को और क्रियाओं को ठीक प्रकार से सुनकर के, समझकर के, जानकर के कुछ थोड़ा पता लगा सकता है अन्यथा व्यक्ति की आध्यात्मिकता का, निष्कामता का, ऐषणारहित मनोस्थिति का, उसकी विवेकयुक्त स्थिति काया लौकिक प्रयोजन से रहित मनःस्थिति का सामान्य ज्ञान नहीं हो सकता। वह इसका पता लगा ही नहीं सकता। इतना होने पर भी यह निश्चित है कि दूसरे व्यक्ति हमारा निर्धारण करें या नहीं करें, किन्तु हम अपना निर्धारण जरूर कर सकते हैं कि हमारी क्या स्थिति है, हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं।
साभार:- श्री राधावल्लभ चोधरी