बुधवार, 29 जून 2011

महर्षि मन्तव्य

     
   मैं अपना मन्तव्य उसी को जानता हूँ  की जो तीन काल में एकसा सबके सामने मानने योग्य है. मेरा कोई नवीन कल्पना वा मतमतान्तर चलाने का लेशमात्र भी अभिप्राय नहीं है किन्तु जो सत्य है उसको मानना, मनवाना और जो असत्य है उसको छोड़ना और छुड़वाना मुझको अभीष्ट है. यदि मैं पक्षपात करता तो आर्यावर्त में प्रचलित मतों में से किसी एक मत का आग्रही होता किन्तु जो-जो आर्यावर्त वा इन देशों में अधर्मयुक्त चाल-चलन है उसका स्वीकार और जो धर्मयुक्त बातें हैं उनका त्याग नहीं करता, न करना चाहता हूँ क्योंकि ऐसा करना मनुष्य धर्म से बहिः है.
-महर्षि दयानन्द

यज्ञ का अनुष्ठान


01. जब उत्तम-उत्तम उपदेशक होते हैं तब अच्छे प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सिध्द होते हैं / और जब उत्तम उपदेशक और श्रोता नहीं रहते तब अंध परम्परा चलती है / फिर भी जब सत्पुरुष होकर सत्योपदेश होता है. तभी अंध परम्परा नष्ट होकर प्रकाश की परम्परा चलती है .

02. मनुष्य लोग अपनी विद्या और उत्तम क्रिया से जिस यज्ञ का सेवन करते हैं उससे पवित्रता का प्रकाश, पृथिवी का राज्य, वायुरूपी प्राण के तुल्य राजनीति, प्रताप, सब की रक्षा, इस लोक और परलोक में सुख की वृध्दि, परस्पर कोमलता से वर्तना ओए कुटिलता का त्याग इत्यादि श्रेष्ठ गुण उत्पन्न होते हैं इसलिए सब मनुष्यों को परोपकार तथा अपने सुख के लिए विद्या और पुरुषार्थ के साथ प्रीतिपूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान नित्य करना चाहिए.
सत्यार्थ प्रकाश 

सोमवार, 27 जून 2011

सुखों कि खान

        सब लोगों को चाहिए की अच्छे-अच्छे कामों से प्रजा की रक्षा तथा उत्तम-उत्तम गुणों से पुत्रादि की शिक्षा सदैव करें कि जिससे प्रबल रोग विघ्न और चोरों का अभाव होकर प्रजा और पुत्रादि सब सुखों को प्राप्त हों यही श्रेष्ठ काम सब सुखों कि खान है /
         हे मनुष्य लोगो ! आओ अपने मिल के जिसने इस संसार में आश्चर्यरूप पदार्थ रचे हैं उस जगदीश्वर के लिए सदैव धन्यवाद देवें. वही परम कृपालु ईश्वर अपनी कृपा से उक्त कामों को करते हुए मनुष्यों कि सदैव रक्षा करता है.
महर्षि दयानंद सरस्वती